रसातल में जाते वामपंथी दल

बीते दिनों एक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना, सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा बनने से चूक गई। जब मुख्य चुनाव आयोग ने 10 अप्रैल को आदेश पारित करके तीन राजनीतिक दलों का राष्ट्रीय दर्जा वापस ले लिया, तब इसमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) का नाम भी शामिल था। यह समाचार इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस वामपंथी दल ने निश्चित शर्तों को पूरा नहीं करने पर अपनी यह मान्यता तब गवां दी, जब वह अपनी स्थापना के शतवर्ष पूरा करने के मुहाने पर खड़ा है।

प्रश्न है कि सीपीआई की वर्तमान स्थिति में लगभग एक ही समय जन्मे संगठन— राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ (आरएसएस) और सीपीआई में पाताल-आकाश जैसा अंतर क्यों है? आज संघ से प्रेरित भाजपा न केवल देश का सबसे बड़ा राष्ट्रीय राजनीतिक दल है, अपितु उसकी केंद्र के साथ कई राज्यों में सरकारें भी है। इसकी तुलना में सीपीआई, राष्ट्रीय पार्टी बनने की एक भी शर्त को पूरा करने में विफल हो गई है। निर्धारित मापदंडों के अनुसार, किसी दल को 4 राज्यों में क्षेत्रीय दल का दर्जा प्राप्त हो या उसके पास 3 राज्यों को मिलाकर लोकसभा की 2 प्रतिशत सीटें हो या फिर उसपर चार लोकसभा सीटों के साथ लोकसभा चुनाव या विधानसभा चुनाव में 4 राज्यों में 6 प्रतिशत मत हो, तो उसे राष्ट्रीय पार्टी माना जाता है। नवंबर 1964 में सीपीआई से टूटकर बनी सीपीआई(एम) का अभी राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा बरकरार है, किंतु वह भी राष्ट्रीय राजनीति में उसके पराभव के कारण संकट में है।

समाज में आरएसएस की जनस्वीकार्यता क्यों बढ़ रही है और सीपीआई की दुर्दशा किस कारण हुई? इसका एक संकेत इन दोनों संगठनों दवारा स्थापना के लिए चुने गए दिन से भी मिल जाता है। संघ वर्ष 1925 में विजयदशमी के दिन (27 सितंबर), तो उसी वर्ष सीपीआई क्रिसमस सप्ताह (26 दिसंबर) के दौरान स्थापित हुआ था। भले ही वामपंथियों को राजनीतिक स्वरूप भारत में मिला हो। किंतु इसका वैचारिक बीजारोपण 17 अक्टूबर 1920 में तत्कालीन सोवियत संघ स्थित ताशकंद में हो चुका था और वह 1943 तक मास्को से संचालित ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ से दिशा-निर्देश प्राप्त करते रहे।

जहां आरएसएस भारतीय प्रज्ञा का मूर्त रूप है और अपनी स्थापना से उसकी रक्षा हेतु प्रतिबद्ध है, वही वामपंथियों की मान्यता है कि भारत का नवसृजन उसी भारतीय प्रज्ञा को जमींदोज करने पर ही संभव है। जहां संघ देश को सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से सुदृढ़ रखने हेतु मौलिक भारतीय जड़ों को पुष्ट करने में विश्वास रखता है, वही वामपंथी आंदोलन उन्हीं जड़ों को काटकर देश के विकास को अवरुद्ध करने का प्रयास करता है। आरएसएस में जहां विचारों से असहमति रखने वालों और विरोधियों का भी सम्मान होता है, वही वामपंथ— हिंसा और असहमति रखने वालों के प्रति असहिष्णुता पर केंद्रित विदेशी दर्शन है।

देश में वामपंथियों को अपने प्रणेता कार्ल मार्क्स के विचारों से उर्जा मिलती है, जो कभी भारत ही नहीं आए। मार्क्स द्वारा 8 अगस्त 1853 को ‘न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून’ हेतु लेखबद्ध कॉलम महत्वपूर्ण है। तब मार्क्स ने लिखा था, “अंग्रेज पहले विजेता थे, जिनकी सभ्यता श्रेष्ठतर थी, और इसलिए, हिंदू सभ्यता उन्हें अपने अंदर न समेट सकी। उन्होंने देशज समाज को उजाड़कर, स्थानीय उद्योग-धंधों को तबाह करके और मूल समाज के अंदर जो कुछ भी महान और उन्नत था, उन सबको धूल-धूसरित करके भारतीय सभ्यता को नष्ट कर दिया। …खंडहरों के ढेर से पुनर्जनन का कार्य मुश्किल से होता है, फिर भी यह प्रारंभ हो चुका है।” यहां मार्क्स का तात्पर्य था कि भारत के पुनर्निर्माण हेतु भारतीय संस्कृति का विनाश आवश्यक है। इसी विचार की कोख से वर्ष 1978 में वामपंथी अर्थशास्त्री राजकृष्ण ने तत्कालीन भारतीय आर्थिकी की त्रासिक दशा के लिए हिंदू संस्कृति को जिम्मेदार ठहराते हुए ‘हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ’ शब्द को जन्म दिया था।

यह उस कालखंड की बात है, जब ब्रितानियों द्वारा भारत को खोखला करने के बाद पं.नेहरू की वाम-समाजवादी नीतियों ने स्वतंत्र भारत को लगभग कंगाल कर दिया था। तब विश्व ने सोवियत संघ के विघटन और बर्लिन दीवार प्रकरण से वामपंथियों के विफल समाजवाद में अति-द्ररिदता को देखा था। भारतीय वैदिक संस्कृति कितनी समृद्ध रही है, यह वैश्विक अर्थशास्त्रियों के उस प्रामाणिक शोध से स्पष्ट है, जिसमें भारत को पहली शताब्दी से लेकर 17वीं सदी तक दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बताया गया था। तब उस दौर में भारत, सनातन संस्कृति से प्रेरणा पा रहा था।

वामपंथियों का भारतीय संस्कृति-परंपरा के प्रति घृणास्पद दृष्टिकोण, कार्ल मार्क्स के संकीर्ण चिंतन के अनुरूप ही है। 25 जून 1853 को ‘न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून’ में भारतीय संस्कृति को लेकर मार्क्स ने लिखा था, “….मनुष्य का अध:पतन इससे भी स्पष्ट हो रहा था कि प्रकृति का सर्वसत्ताशाली स्वामी मनुष्य, घुटने टेककर वानर हनुमान और गऊ शबला की पूजा करने लगा था।” इसी हिंदू विरोधी चिंतन को मार्क्स के असंख्य बंधु आज भी आगे बढ़ा रहे है।

भारतीय कम्युनिस्टों का सियासी क्षरण केवल सनातन संस्कृति और उसकी रक्षा हेतु प्रतिबद्ध संगठनों (संघ सहित) के प्रति से द्वेष रखने तक सीमित नहीं है। जब मुख्य निर्वाचन आयोग ने सीपीआई से राष्ट्रीय राजनीतिक दल का दर्जा छीना, तब आधिकारिक प्रतिक्रिया देते हुए उसने कहा, “चुनाव आयोग को विचार करना चाहिए था कि सीपीआई… ने ब्रिटिश राज के खिलाफ संघर्ष में प्रमुख भूमिका निभाई… देश की लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था को मजबूती देने का काम किया है।” क्या वाकई ऐसा था?

पराधीन भारत में मुस्लिम लीग को छोड़कर सीपीआई एकमात्र राजनीतिक पार्टी थी, जो पाकिस्तान के सृजन के लिए ब्रितानी षड्यंत्र का हिस्सा बनी। तब वामपंथी स्वतंत्र भारत को 15 से अधिक हिस्सों में विभाजित करने के भी पक्षधर थे और आज भी उनका यही विचार है। उन्होंने 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में ब्रितानियों के लिए मुखबिरी की। गांधीजी, नेताजी आदि राष्ट्रवादी देशभक्तों को गालियां दी। भारत की स्वतंत्रता को अस्वीकार किया। 1948 में भारतीय सेना के खिलाफ हैदराबाद स्थित जिहादी रजाकरों को पूरी मदद दी। 1962 के भारत-चीन युद्ध वैचारिक समानता के कारण शत्रुओं का साथ दिया। 1967 में वामपंथी चारू मजूमदार ने माओवाद को जन्म दिया, जो आज ‘अर्बन नक्सलवाद’ का स्वरूप ले चुका है। सफल भारतीय परमाणु परीक्षणों और कार्यक्रम को भी कलंकित किया है। वामपंथियों के कुकर्मों की एक लंबी सूची है। यह चिंतन आज ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का भी वैचारिक अधिष्ठान है।

वामपंथियों को लोकतंत्र में कितना विश्वास है, इसका उत्तर संविधान निर्माता बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में दिए भाषण में मिलता है। उनके अनुसार, “…कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा की तानाशाही सिद्धांत पर आधारित संविधान चाहती है। वे भारतीय संविधान की निंदा इसलिए करते हैं कि वह संसदीय लोकतंत्र पर आधारित है…।” यही नहीं, वामपंथी अपने विरोधियों का कितना आदर करते है, यह बीते दशकों में उनके द्वारा शासित केरल और प.बंगाल में सामने आए सर्वाधिक राजनीतिक हत्याओं से स्पष्ट है।

क्या सीपीआई की राष्ट्रीय दल की मान्यता समाप्त होने पर यह मान लेना चाहिए कि वामपंथी आंदोलन पस्त हो चुका है?— शायद नहीं। भले ही सीपीआई आदि वामपंथी दल राजनीतिक रूप से रसातल में है, किंतु विगत दशकों में उसके दर्शन ने असंख्य रक्तबीजों को तैयार किया है, जो भारतीय राजनीति, शैक्षणिक, बौद्धिक, साहित्यिक, नौकरशाही, आर्थिक और पत्रकारिता आदि क्षेत्रों में न केवल सक्रिय है, अपितु व्यवस्था और ‘नैरेटिव’ को प्रभावित करने की ताकत भी रखते है।

– बलबीर पुंज

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