भारत को मुगल अपने पैरों तले रौंदने की कोशिश में थे, उस समय हिंदुओं की रक्षा के लिए गुरु गोविंद सिंह ने खालसा की स्थापना की। खालसा के सिंह म्लेच्छों पर हर तरह से भारी पड़े और भविष्य के लोकतंत्र की नींव रखी।
भारत और दुनिया के धार्मिक इतिहास में सिख धर्म एक महत्वपूर्ण और लोगों के लिए कल्याणकारी चरित्र वाला नवीनतम धर्म है। सिख इतिहास में शहादत की परम्परा के पीछे जहां गुरबाणी का सच साबित होता है वहीं मानव कल्याण, क्रांतिकारी विचारधारा और राष्ट्रवाद की मिसाल भी है। लगभग 550 वर्ष पूर्व गुरु नानक पातशाह द्वारा स्थापित इस ‘निर्मल पंथ’ की गुरबाणी में दर्ज आध्यात्मिक और दार्शनिक लक्ष्यों की व्यावहारिक पूर्ति के लिए गुरु गोविंद सिंह ने 1699 की वैसाखी को आनंदपुर साहिब में खालसा धर्म की स्थापना की।
खालसा के निर्माण की यह अविश्वसनीय घटना संयोग से नहीं हुई थी। यह सदियों की विचारधारा और जीवन संघर्ष से पैदा हुई अंतर्दृष्टि का परिणाम था। खालसा ने रचनात्मक काल में ही राजनीतिक और सामाजिक कल्याण के ऐसे कारनामों को अंजाम दिया, जिनका दूसरा सानी होना असम्भव है। यह सिख भावना और गुरबानी की जादुई शक्ति थी कि सिख गुरु साहिब के इशारे पर अपना सिर कटवाने के लिए उठ खड़े हुए। लासानी कुर्बानियों का यह सिलसिला गुरु काल और उसके बाद भी निरंतर चलता रहा। मुक्तसर की धरती पर 40 शहीदों की महान शहादतें, चमकौर के युद्ध में बड़े साहिबजादे बाबा अजीत सिंह और बाबा जुझार सिंह, सरहिंद में छोटे साहिबजादे बाबा जोरावर सिंह और बाबा फतेह सिंह की शहादत हर तरह से देश-दुनिया के धार्मिक इतिहास में लासानी है। बाबा बंदा सिंह बहादुर ने पंजाब के कई क्षेत्रों को जीतकर खालसा राज्य और लोग हितकारी सरकार की स्थापना की, यह फ्रांसीसी क्रांति से पहले का विश्व इतिहास में एक क्रांतिकारी हस्ताक्षर था।
गुरु के सिखों और साहिबजादों की शहादत से सिख मानसिकता को विपरीत परिस्थितियों में भी निडरता और दृढ़ता से आगे बढ़ने का हौसला मिलता रहा। ये गुण उन्हें विरासत में मिले हैं। साहिबजादों को दादा गुरु तेग बहादुर जी के धर्म ‘हेति साका जिन किया, सीस दिया पर सिररु ना दिया’ के बारे में पता था। निस्संदेह यह बाबेकेयां और बाबरकेयां के बीच खूनी संघर्ष की पराकाष्ठा थी। इसकी शुरुआत गुरु नानक साहिब ने अमनाबाद में बाबर को ‘जाबर’ बुलाकर और ‘खुरासन खस्माना किया हिंदुस्तान डराया’ कहकर की थी। गुरु नानक साहिब से पहले भी भगत कबीर जी का ‘होका की-सूरा सो पहचानिए, जो लड़े दीन के हेत, पुरजा-पुरजा कटि मरै, कबहूं ना छाड़े खेत। ॥’ भक्ति आंदोलन के संत भारत को सदियों की विदेशी गुलामी से मुक्त कराने का प्रयास करते रहे थे। हम में से बहुत से लोग जानते हैं कि बाल गुरु हरगोविंद साहिब के साथ अपनी बेटी के रिश्ते को स्वीकार नहीं करने के लिए दीवान चंदू ने गुरु अर्जन देव के खिलाफ सम्राट जहांगीर को उकसाया था। लेकिन असली कारण जहांगीर ने अपनी डायरी में जो लिखा है। उसके अनुसार गुरु अर्जन देव को सिख दुकान को बंद करने के लिए ही शहीद किए गए थे। सिख धर्म, जो कि गुरु अमर दास जी के समय में श्री गोइंदवाल से बहुत लोकप्रिय था। जहांगीर चाहता था कि गुरु साहिब द्वारा सम्पादित श्री गुरु ग्रंथ साहिब में इस्लाम को अपनाए जाने की बात हो और उसकी प्रशंसा करे। लेकिन गुरमत का सिद्धांत है कि अल्लाह को याद किए बिना कोई भी, चाहे वह मुसलमान ही क्यों न हो, खुद को जहन्नुम में गिरने से नहीं बचा सकता।
गुरु तेग बहादुर साहिब जी की शहादत मानवता और धर्म के इतिहास में पहली घटना थी, जहां कोई अपनी कुर्बानी देने के लिए खुद ‘मकतल’ जाता है। यहां अत्याचार का धैर्य से सामना हुआ। गुरु साहिब की शहादत पूरी तरह से धार्मिक स्वतंत्रता की सरोकारों को समर्पित थी। मुगल बादशाह औरंगजेब मुतसबी, जो एक दिन में सवा मन जनेऊ उतारता था, एक क्रूर धर्मांध था जो तलवार के बल पर भारत में इस्लाम की स्थापना करना चाहता था। बादशाह औरंगजेब हिंदुओं पर आतंक और अत्याचार का दौर चला रहा था। उन्होंने हिंदुओं को इस्लाम या मौत के बीच चयन करने के लिए मजबूर किया। जजिया को हिंदुओं पर लगाया गया ताकि उन्हें अपना धर्म छोड़ने के लिए मजबूर किया जा सके, हिंदू त्योहार मनाना और घोड़ों की सवारी करना भी प्रतिबंधित था। पवित्र हिंदू मंदिरों को तोड़ दिया गया और मस्जिदों का निर्माण किया गया। इन अत्याचारों के विरोध का अर्थ था बेइज्जती और जीवन की हानि। हालांकि, कश्मीरी पंडित कृपा राम दत्त (जो बाद में बाल गोविंद राय के विद्या उस्ताद बने और कृपा सिंह के नाम से जाने गए) के नेतृत्व में आए याचिकाकर्ताओं से गुरु साहिब ने औरंगजेब से यह कहलाया कि पहले गुरु तेग बहादुर को इस्लाम में परिवर्तित करें, फिर हम भी बन जाएंगे। लालच और धमकियों के बावजूद इस्लाम कबूल करने से इनकार करने पर 11 नवम्बर 1675 को चांदनी चौक पर सरेआम गुरु तेग बहादुर साहिब का सिर तलवार से कलम कर शहीद कर दिया गया। गुरु गोविंद सिंह द्वारा बचित्र नाटक में स्पष्ट लिखा है कि, “तिलक जंजू राखा प्रभ ताका किनो बढ़ो कलू मैं साका।” यह कि गुरु साहिब की शहादत हिंदू धर्म के लिए थी।
पांचवे गुरु और नौवें गुरु की शहादत को देखते हुए गुरु गोविंद सिंह महाराज ने गुरुपद ग्रहण करते ही सरकार के जुल्म के खिलाफ लोगों में एक जागृति पैदा कर दी। शास्त्र के साथ-साथ शस्त्र विद्या पर भी विशेष ध्यान दिया जाता। उन्होंने सच्चे इंसान के आदर्श को व्यवहार में लाकर केसगढ़ साहिब में 1699 की बैसाखी पर ‘खालसा’ की रचना की। इस प्रकार दस गुरुओं को शस्त्रों को सिखों के हाथों में मजबूती से थमाने में दो शताब्दियों से अधिक समय लग गया।
सरल तरीके से खालसा के निर्माण की व्याख्या किया जाए तो, उस दिन गुरु गोविंद राय (गुरु गोविंद सिंह) जी ने सिखों को एक भीड़ भरे दीवान में अपने म्यान से कृपाण फैलाकर सीस की पेशकश करने के लिए आगे आने की चुनौती दी। दीवान में अफरा-तफरी का माहौल जरूर था, लेकिन एक-एक कर पांच प्रियजन शीश पेश करने के लिए आगे आए। वे भारत के विभिन्न क्षेत्रों और विभिन्न जातियों से थे। गुरु साहिब ने सरब लोह के बर्तन में पानी डाला, बीर आसन में बैठकर पांच पाठ पढ़ते हुए उस बर्तन में दो धारी खंड आगे-पीछे करके अमृत तैयार किया। इस पद्धति के माध्यम से गुरु साहिब ने शास्त्र और शस्त्र के मेल से एक नई विचारधारा और स्वाभिमानी मानवता का निर्माण किया, जिसने आने वाली पीढ़ी और लोकतंत्र के लिए मजबूत प्रवृत्तियों को जन्म दिया। यहीं पर गुरु साहिब ने अमृत संचार के माध्यम से सीस चढ़ाने वाले पांच लोगों को नया जीवन दिया और उन्हें पांच पियारे एवं प्रियजनों की उपाधि दी और खालसा धर्म की नींव रखी। उस समय गुरु साहिब ने पंज प्यारे के सामने खुद को नमन किया और अमृत के उपहार के लिए अनुरोध किया। इन पांच प्रेमियों से अमृत पीकर गुरु साहिब ने न केवल गुरु शिष्य का एक नया मॉडल पेश किया, बल्कि ‘खालसा मेरो रूप है खास, खालसा मह हूं करौ निवास’ को भी प्रस्तुत किया। गुर चेला की ऐसी घटना और क्रांतिकारी परिवर्तन धर्म के क्षेत्र में पहले कभी नहीं देखा या सुना गया था। खालसा किसी की जागीर नहीं बल्कि अकाल पुरख की जागीर है। तभी तो यह ‘वाहीगुरू जी का खालसा वाहीगुरु जी की फतह’, यानी जीत भी अकाल पुरख की होती है, जिसका यह खालसा है। पंच प्यारों का संयुक्त फैसला ही गुरमता है, गुरु साहिब का पंच प्यारों को पंथ को सौंपना भी एक अनूठी और प्रारम्भिक लोकतांत्रिक परम्परा है। जिन्होंने समाजवादी लोकतंत्र के लिए उपजाऊ जमीन तैयार करने में प्रमुख भूमिका निभाई। सिखों में प्रचलित ‘एक पंक्ति एवं बांट कर खाने’ की परम्परा से आगे बढ़कर विभिन्न जातियों और सम्प्रदायों के इन पांच काकरी पांच पियारो को एक कटोरी(सरब लोह के बर्तन) में अमृत पिलाया गया। यह चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) में बंटा समाज से मतभेदों को मिटाकर किया गया क्रांतिकारी कार्य था। खालसा वास्तव में भाईचारा, समानता, सामाजिक न्याय, मानव मुक्ति और सांस्कृतिक क्रांति का जनक बना। ऐसा करने में सिख धर्म ने अपनी अनूठी उपस्थिति और सार्वभौमिक सामाजिक चरित्र को अपनाया, जैसा कि गुरबानी में निहित है। संत और सैनिक का यह मेल खालसा को अध्यात्म से जोड़ने के साथ-साथ समाज और मानव कल्याण के सरोकारों को भी अपने में समेटे हुए है, जिसकी प्रासंगिकता आज भी है। खालसा सशस्त्र है लेकिन जीविका के लिए उसे काम करना पड़ता है। दसवें पातशाह ने खालसा अलंकृत किया और ऊंच-नीच को क्षण भर में समाप्त कर दिया –
(1) मानस की जात सबै एक पहचानिबो
(2) ‘एक पिता एक के हम बारिक’ के महान कथन के अनुसार, सिख धर्म को सम्पूर्ण मानव जाति के लिए एक सार्वभौमिक धर्म बना दिया गया।
21वीं सदी में मनुष्य के सामने जो चुनौतियां हैं, उनमें सबसे बड़ी समस्या चरित्र संकट है। मर्यादा में रहकर ही व्यक्ति के चरित्र का निर्माण किया जा सकता है। खालसा को सख्त हिदायत है कि वह चार बुराइयों से दूर रहे। जिसमें कि केश की बेअदबी न करें, कुठा (मुस्लिम तरीके से तैयार किया गया मांस) न खाएं, पराई महिलाओं एवं पराए पुरुष से सम्भोग ना करें, और तंबाकू का सेवन न करें। यह नैतिक और सामाजिक परिवर्तन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। धर्म का पालन करना और धर्म का प्रचार करना मनुष्य का मूल अधिकार है। मौलिक अधिकारों को लोकतंत्र में ही स्वीकार किया जा सकता है। अपने पिता गुरु तेग बहादुर को कश्मीरी पंडितों की मांग पर कुर्बानी देने के लिए गुरु गोविंद सिंह का इशारा करना समाजवादी लोकतंत्र की बहाली के लिए एक और ऐतिहासिक भूमिका थी। गुरु गोविंद सिंह एक ऐसे युगपुरुष हैं, जिन्होंने स्वार्थ से परे जाकर अपने पिता, अपने पुत्र और स्वयं को बलिदान कर दिया ताकि अन्याय, अत्याचार के खिलाफ युद्ध जारी रहे और उनके द्वारा बनाया गया खालसा लगातार अपने ऐतिहासिक चरित्र में भूमिका निभा सके। श्री गुरु गोविंद सिंह ने खालसा की रचना कर के भारत के अस्तित्व को एक नया भविष्य दिया, गुरु साहिब की इस राष्ट्रवादी भूमिका को सूफी फकीर साईं बुल्लेशाह ने ‘ना कहू अब की ना कहूं तब की बात कहूं मैं जब की, अगर ना होते गुरु गोविंद सिंह सुन्नत होती सब की’ कहकर मुहर लगई है।
अठारहवीं शताब्दी में खालसा के दृष्टिगोेचर चरित्र को अहमद शाह दुर्रानी के सातवें हमले के दौरान सेना के साथ आए काजी नूर मुहम्मद ने अपने शत्रु सिखों के प्रति घृणा के कारण सिखों के लिए सग (कुत्ते) शब्द का प्रयोग किया, परन्तु वे सिखों के शौर्य और आचरण की प्रशंसा किए बिना न रह सके, कि इन कुत्तों को कुत्ता मत कहो क्योंकि ये शेर हैं, और बहादुर युद्ध के मैदान में शेर की तरह होते हैं। खालसा के शौर्य और बलिदान से भारत की जनता में एक नया उत्साह आया और मुगल साम्राज्य का पतन होने लगा। जो इस्लामिक जोश और ताकत पूरी दुनिया को अपनी हुकूमत मानती थी, उसे पंजाब की धरती पर सिंहों के घोड़ों ने कुचल दिया था। समय आने पर बंदा सिंह बहादुर ने यहां खालसा का विनम्र शासन स्थापित कर दुनिया को कल्याणकारी राज्य प्रबंधन का पाठ पढ़ाया। मिसल के समय, सिंहों ने राखी प्रणाली के तहत लोगों की रक्षा की, जबकि महाराजा रणजीत सिंह ने शेरे पंजाब के रूप में पंजाब पर शासन किया और दुनिया को राजाशाही के बावजूद एक लोक-कल्याणकारी राज्य के मॉडल से परिचित कराया। ये सभी खालसा की जीतें थीं।
प्रो. सरचंद सिंह ख्याला