भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में पंजाबियों का योगदान अतुलनीय है। दीवान मूलराज से लेकर भगत सिंह तक वहां के बलिदानियों की बड़ी लम्बी श्रृंखला रही है। स्वतंत्रता के पश्चात् विभाजन का सबसे ज्यादा शिकार पंजाब ही रहा।
भारतीयों को अपनी स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए लम्बे समय तक संघर्ष करना पड़ा। इस लम्बे युद्ध में पंजाब और पंजाबियों के योगदान का कुछ कारणों से ठीक-ठीक हिसाब नहीं लगाया जा सका। अभिलेखों के अनुसार, फांसी पानेे वालों में 87 प्रतिशत पंजाबी थे, काले पानी की सजा वालों में 89 प्रतिशत, और जिन्हें कैद किया गया था, उनकी गणना करना मुश्किल है। पंजाब के त्याग और योगदान के बारे में विस्तार से शोध कर सही तथ्य दुनिया के सामने लाने की आवश्यकता है, ताकि उसे उचित सम्मान और न्याय मिल सके।
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम नायक – दीवान मूलराज :- कुछ लोग 1857 के विद्रोह को भारत की आजादी का पहला युद्ध मानते हैं, लेकिन इस विद्रोह में शामिल पक्ष अपने ही राज्य को बचाने के लिए लड़े। किसी भी तरह से पूर्ण स्वतंत्रता के मानक या अवधारणा को पूरा नहीं करते। दरअसल ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन से आजादी के लिए पहला युद्ध पंजाबी हिंदू दीवान मूलराज के नेतृत्व में वर्ष 1848 में पंजाब के मुल्तान से लड़ा गया था। दीवान मूलराज ने मुल्तान के गवर्नर पद से इस्तीफा दे दिया था। निस्संदेह उनकी लड़ाई केवल देश के लिए थी।
1839 में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के 6 साल बाद, खालसा सेना, जिसने बड़ी जीत हासिल की थी, अक्षम शासकों के अधीन हो गई। प्रथम आंग्ल-सिख युद्धों में खालसा साम्राज्य की हार हुई और 1845 में अंग्रेजों ने अप्रत्यक्ष रूप से पंजाब पर कब्जा कर लिया। अंग्रेजों की ज्यादतियों का मुल्तान के गवर्नर दीवान मूलराज ने कड़ा विरोध किया। मूलराज जल्द ही विद्रोह के केंद्र बन गए और अंग्रेजों के साथ भयंकर सैन्य संघर्ष किया। अंत में मूलराज ने 22 जनवरी 1849 को आत्मसमर्पण कर दिया। उन्हें गिरफ्तार किया गया और मौत की सजा सुनाई गई, लेकिन बाद में सजा को आजीवन निर्वासन में बदल दिया गया। अगस्त 1851 में एक बीमारी के बाद मूलराज ने बक्सर जेल जाते समय नश्वर दुनिया को अलविदा कह दिया। उनके कुछ वफादार सेवकों द्वारा उनके शव का गंगा तट पर अंतिम संस्कार किया गया था। मूलराज निरंकुश स्वभाव के थे, जिसे अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार नहीं थी। मूलराज के खजाने की उस वक्त कीमत 30 लाख पाउंड थी। दुर्भाग्य से, हमारे इतिहास में यह बहुत ही महत्वपूर्ण चरित्र, एक महान गुमनाम नायक, सरकारों द्वारा पूरी तरह से भुला दिया गया है।
राजा शेर सिंह और सरदार चतर सिंह अटारीवाला:– मूलराज के साथ राजा शेर सिंह अटारीवाला और उनके पिता सरदार चतर सिंह अटारीवाला ने भी पंजाब के उत्तरी क्षेत्र हजारा में खुलकर विद्रोह कर दिया।
भाई महाराज सिंह नौरंगाबाद:- अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद करने वाले अगले व्यक्ति नौरंगाबाद के भाई महाराज सिंह थे। उन्होंने राजा शेर सिंह अटारीवाला का पूरा समर्थन किया। इससे पहले कि भाई महाराज सिंह का विद्रोह एक जन आंदोलन का रूप ले पाता, उन्हें गिरफ्तार करके कलकत्ता और फिर सिंगापुर भेज दिया गया। वहां उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी गईं, जिसके परिणामस्वरूप वे 5 जुलाई 1856 को शहीद हो गए।
बाबा राम सिंह जी और नामधारी या कूका आंदोलन:- भाई महाराज सिंह की शहादत के ठीक 6 साल बाद लुधियाना जिले के एक छोटे से गांव भैनी साहिब में आजादी की ऐसी ही एक और ज्वाला भड़की, जिसने अंग्रेजी हुकूमत की जड़ों को हिला कर रख दिया। बाबा राम सिंह जी ने नामधारी एव कूका आंदोलन को जन्म दिया, जिसका मुख्य उद्देश्य अंग्रेजों को देश से खदेड़ कर अपनी मातृभूमि को आजाद कराना था। बाबा जी जल्दबाजी में ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहते थे जिससे उनका मिशन पटरी से उतर जाए। लेकिन 1871-72 में कुछ युवा और उत्साही नामधारियों ने पंजाब से गोहत्या को रोकने के लिए अमृतसर और मलेरकोटला में कुछ कसाइयों को मार डाला। ब्रिटिश सरकार ने जगह-जगह से कूकों को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया और भैनी गांव में पुलिस चौकी स्थापित कर दी। 68 कूकों को तोपों के आगे बांधकर उड़ा दिया गया। कई लोगों को फांसी दी गई और बाबा राम सिंह को गिरफ्तार कर रंगून भेज दिया गया। 1884 में वनवास के दौरान बाबा जी की मृत्यु यहीं हुई थी।
किसान आंदोलन:– 1907 में पंजाब में एक शक्तिशाली आंदोलन का जन्म हुआ जिसे किसान आंदोलन का नाम दिया गया है। इसके संचालक देश भगत सरदार अजीत सिंह और लाला लाजपत राय थे। यह आंदोलन ब्रिटिश सरकार द्वारा नहरी भूमि पर राजस्व में वृद्धि के विरुद्ध था। उन्हीं दिनों लाला बांके दयाल, सम्पादक झंग स्याल ने लायलपुर में एक सभा में उनकी प्रसिद्ध कविता पढ़ी, जिसकी गूंज पंजाब के गांव-गांव में सुनाई देने लगी-
पगड़ी सम्भाल, ओ जट्टा पगड़ी सम्भाल
सरकार ने इस आंदोलन की बढ़ती हुई गति और इससे उत्पन्न होने वाले खतरों को देखते हुए अजीत सिंह और लाला लाजपत राय को गिरफ्तार कर मांडले जेल भेज दिया। किसानों को खुश करने के लिए उन्होंने नहर बंदोबस्त अधिनियम को वापस ले लिया और भूमि पर लगान की दर कम कर दी।
मदन लाल ढींगरा :– अमृतसर के एक युवा छात्र मदन लाल ढींगरा, जो शिक्षा के लिए लंदन गए थे, ने सर विलियम कर्जन विली को गोली मार दी। विली की हत्या के आरोप में मदन लाल को 16 अगस्त 1909 को फांसी दे दी गई। उन्होंने अपने एक बयान में कहा था, “हमारा युद्ध तब तक जारी रहेगा, जब तक हमारा देश आजाद नहीं हो जाता।”
गदर आंदोलन:– बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मध्य पंजाब के हजारों युवक अमेरिका और कनाडा गये और उच्च शिक्षा प्राप्त की। 1913 में अपने देश को स्वतंत्र कराने की इच्छा से एक शक्तिशाली आंदोलन, जिसे हम ‘गदर आंदोलन’ के रूप में याद करते हैं, को जन्म दिया। इसके पहले अध्यक्ष बाबा सोहन सिंह भकना और सचिव लाला हरदयाल थे। उन्होंने ‘गदर’ नामक एक साप्ताहिक पत्र भी प्रकाशित करना शुरू किया जो पंजाबी के अलावा उर्दू और गुजराती में भी प्रकाशित होता था। ‘गदर’ के पंजाबी संस्करण के सम्पादक करतार सिंह सराभा थे। गदर आंदोलन की आशा भारत में सशस्त्र क्रांति लाकर अंग्रेजों को देश से बाहर खदेड़ने की थी।
29 अक्टूबर, 1914 को तोसामारू जहाज से कई गदरी युवक देश आए और उन्होंने देशद्रोह करने का फैसला किया। उन्होंने अपने आदमियों को भारतीय सेना में भर्ती करके अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए सैनिकों को तैयार करना शुरू कर दिया। लेकिन उनके ही एक सदस्य ने पूरे कार्यक्रम की जानकारी ब्रिटिश सरकार को दे दी। युवकों को गिरफ्तार किया गया और उनमें से कई झूठे मुठभेड़ों में गोलियां चलाकर शहीद किए गए। युवा करतार सिंह सराभा सहित 47 से अधिक गदरियों को फांसी दी गई थी। 306 को कालापानी की सजा दी गयी, जबकि 77 से अधिक गदरियों पर जुर्माना लगाया गया और उनकी जमीन और सम्पत्ति को जब्त कर लिया गया। 400 क्रांतिकारियों को तरह-तरह की सजा देकर जेल भेज दिया गया और 2500 से ज्यादा को गांवों में नजरबंद कर दिया गया। कामा गाता मारू जहाज त्रासदी भी इसी आंदोलन का एक हिस्सा था।
1919 में जलियांवाले बाग का साकाः– इस घटना में ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। गोली कांड में सरकार के अनुसार 484 लोग मारे गए, जबकि अनाधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 1500 से अधिक लोग मारे गए और 2000 से अधिक घायल हुए। रौलेट एक्ट और मार्शल लॉ जैसी सख्ती ने देशवासियों का ब्रिटिश शासन के प्रति विश्वास को खत्म कर दिया।
गुरुद्वारा सुधार आंदोलन एवं अकाली आंदोलन:- 1920-21 में पंजाब में गुरुद्वारा सुधार आंदोलन की शुरुआत हुई। निश्चय ही इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य गुरुद्वारों को भ्रष्ट महंतों और अंग्रेजों के दलालों की लूट से मुक्त कर उनका प्रबंध पंथ के प्रतिनिधि वर्ग को सौंप देना था। परंतु आधुनिक शोध और उस समय के (लिखित) दस्तावेज यह प्रकट करते हैं आंदोलन का असली लक्ष्य देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराना भी था। गुरु के बाग के मामले में एक अंग्रेज ने देखा कि सत्याग्रहियों पर लाठियां बरस रही हैं। उन्होंने लिखा, ‘मैंने आज यहां एक नहीं बल्कि कई ईसा मसीह को सूली पर चढ़दे देखा।’ चाबियां की मोर्चा में सफलता के बाद महात्मा गांधी ने बाबा खड़क सिंह को एक टेलीग्राम में बधाई दी जिसमें उन्होंने लिखा, ‘भारत की आजादी की पहली लड़ाई जीत ली गई है – बधाई।’
बब्बर अकाली आंदोलन:- शांतिपूर्ण तरीके को पसंद नहीं करने वाले कुछ युवाओं ने एक नए संगठन को जन्म दिया, जिसे बब्बर अकाली आंदोलन का नाम दिया गया। इस आंदोलन के प्रमुख नेता मास्टर मोटा सिंह और किशन सिंह गर्गज थे। उनका उद्देश्य सरकारी एजेंटों और मुखबिरों को सबक सिखाना और देश में अंग्रेजी शासन के खिलाफ जागरूकता पैदा करना था। उन्होंने बब्बर अकाली दोआबा नामक एक पैम्फलेट भी जारी किया। लेकिन उनकी हिंसक कार्रवाइयों से घबराई ब्रिटिश सरकार ने बब्बर अकालियों को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया। गिरफ्तार किए गए 186 बब्बर में से 5 को मौत की सजा, 11 को आजीवन कारावास और 38 को अलग-अलग सजा के साथ जेल भेजा गया।
कीर्ति किसान पार्टी :- 1920 के दशक में देश में समाजवादी विचारधारा ने जोर पकड़ना शुरू किया। इसका प्रभाव पंजाब पर भी पड़ा। 1927 में संतोख सिंह और अब्दुल मजीद ने कीर्ति किसान पार्टी की स्थापना की। इस संस्था के आदर्शों के प्रचार-प्रसार के लिए ‘कीर्ति’ नामक पत्रक निकाला गया।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस:- 1929 में लाहौर में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की वार्षिक बैठक में बोलते हुए पंडित नेहरू ने पूर्ण स्वराज का नारा दिया और उसके बाद अगला राजनीतिक आंदोलन अपने गंतव्य की ओर बढ़ने लगा।
नौजवान भारत सभा:- 1926 में भगत सिंह ने नौजवान भारत सभा की नींव रखी। 1928 में साइमन कमीशन के विरोध में लाठियों से लाला लाजपत राय गम्भीर रूप से घायल हो गए और 17 नवम्बर 1928 को उनकी मृत्यु हो गई।
सरदार भगत सिंह और उनके साथी राजगुरु, यशपाल और चंद्रशेखर आजाद ने पंजाब पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी सांडर्स से लालाजी की मौत का बदला लिया। 1928 में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने पार्लियामेंट में बम फेंका और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और मुकदमे के दौरान बोलते हुए देश की आजादी का पक्ष लोगों के सामने रखा।
23 मार्च 1931 को सांडर्स की हत्या के लिए भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दे दी गई। महात्मा गांधी ने एक जगह लिखा है कि, ‘युवा पीढ़ी को शायद भगत सिंह जितना प्रभावित किसी और ने नहीं किया।’
1928 में देशी राजाओं के अत्याचार और उनकी ज्यादतियों के खिलाफ पंजाब प्रजा मंडल का गठन किया गया था। इसके प्रमुख नेता सेवा सिंह ठीकरीवाला थे, जिनकी पटियाला राज्य पुलिस की कठोरता का शिकार होकर 1935 में मृत्यु हो गई।
इंडियन नेशनल आर्मी (आईइनए) यानी आजाद हिंद फौज- 1941-42 में जनरल मोहन सिंह और नेताजी सुभाष चंद्र बोस देश से बाहर चले गए और भारतीय राष्ट्रीय सेना का गठन किया। उनकी आशा आक्रमण कर अंग्रेजों को देश से खदेड़ने की थी। बेशक यह प्रयास सफल नहीं हुआ, लेकिन केवल पांच साल बाद ही देश एक लम्बे युद्ध के बाद 15 अगस्त 1947 को आजाद हो गया। इस आजादी की सबसे बड़ी कीमत पंजाबियों को तब चुकानी पड़ी जब उन्हें अपने घर, धार्मिक स्थल, मंदिर और गुरुद्वारे छोड़कर स्वतंत्र भारत में शरणार्थी के रूप में आना पड़ा। हमने यह आजादी बहुत बड़ी कीमत पर ली है। इस आजादी के लिए पंजाब द्वारा दिए गए योगदान को किसी भी तरह से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
नवरीत कौर