पंजाब का सौभाग्य रहा कि, एक ही समय में वहां पर महाराजा रणजीत सिंह और हरि सिंह नलवा जैसी विभूतियों ने अपने रण कौशल से भारत भूमि को अफगान हमले से बचाया। उनकी अमर गाथा मानवीय उच्चादर्शों एवं देेश प्रेम के लिए हमेशा याद की जाती रहेगी।
शेर ए पंजाब महाराजा रणजीत सिंह
पंजाब की धरती पर अनेक योद्धाओं का जन्म हुआ जिन्होंने अपने बल और बुद्धि के दम पर चार चंद्रमाओं को भारत की भूमि पर पहुंचाया। इन योद्धाओं में से केवल एक व्यक्ति को ‘शेर-ए-पंजाब’ कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ। वह ‘शेर-ए-पंजाब’ महाराजा रणजीत सिंह थे, जिन्होंने अपने जीवनकाल में ऐसी उलटी गंगा बहाई कि भारत पर फिर से पश्चिम की हिम्मत नहीं पड़ी आक्रमण करने की। भारत की भूमि ऐसे वीर योद्धाओं की सदैव ऋणी रहेगी।
महाराजा रणजीत सिंह का जन्म 1780 ई. शुक्रचकिया मिसल के सरदार महा सिंह के घर सरदारनी राज कौर की कोख से हुआ था। बचपन में चेचक के प्रकोप के कारण उनकी एक आंख की रोशनी चली गई। उनकी मां ने उनका नाम बुद्ध सिंह रखा, लेकिन उनके जन्म की खबर उनके पिता को नहीं बताई गई। युद्ध जीतने के बाद वापस लौटने पर उनकी मुलाकात हुई तो इसी खुशी में उन्होंने आपका नाम रणजीत सिंह रखा। लेकिन उन्हें अपने बच्चों का प्यार ज्यादा दिनों तक नहीं मिला। वह जल्द ही रणजीत सिंह को अकेला छोड़कर स्वर्ग चले गये।
1792 ई. पिता के स्वर्गवासी होने के बाद मिसल के नेतृत्व की जिम्मेदारी का भार आपके नाजुक कंधों पर आ गया। ‘होनहार बीरवान के चिकने-चिकने पात’ के अनुसार उन्होंने मिसल के किरदार को बखूबी निभाना शुरू किया। 1796 ई. उन्होंने घनैया मिसल के नेता सरदार गुरबख्श सिंह की बेटी मेहताब कौर से शादी की। इस मिसल में शादी करने से आपकी ताकत बढ़ गई। अपनी क्षमता और दूरदर्शिता के कारण 1799 ई. में लाहौर को अपने अधीन कर लिया और उसे अपने राज्य में मिला लिया। 1801 ई. में लाहौर के लोगों ने आपको ‘महाराजा’ की उपाधि से सम्मानित किया।
1802 ई. में लाहौर पर विजय प्राप्त करने के बाद, उन्होंने अमृतसर को सिख राज्य में मिला दिया और ‘शेर-ए-पंजाब’ की उपाधि प्राप्त की। महाराज रणजीत सिंह ने अपनी ताकत और बुद्धि के कारण अपने जीवन में हर मोर्चे पर जीत प्राप्त की। आप का राज्य उत्तर में सुलेमान और लद्दाख की पहाड़ियों तक फैल गया और इसमें कश्मीर, कांगड़ा, चम्बा, काबुल और पेशावर आदि के क्षेत्र शामिल थे। पहली बार पंजाब में संगठित राज्य की स्थापना कर आप ने ऐसा वीरतापूर्ण कार्य किया जो कोई नहीं कर पाया।
रणजीत सिंह अपने हृदय में गरीबों और पीड़ित जनता के लिए अपार प्रेम के साथ एक बहुत ही दयालु, न्यायप्रिय और परोपकारी राजा बन गए। उनका स्वभाव बहुत परोपकारी था, उन्हें पारस के रूप में याद किया जाता है। आप ने गरीबों को मुफ्त जागीरें बांटी और अनगिनत लोगों को रुपये और पैसे से मदद की। आप का प्रशासन बहुत सरल था। कई गुनाहों में आपने जुर्माने की सजा ही दी। अधिकांश निर्णय ग्राम पंचायतों को दिए गए। लेकिन आखिरी अपील खुद महाराजा सुनते थे।
उनका सूबा धर्मनिरपेक्ष था उन्होंने हिंदुओं और सिखों से वसूले जाने वाले जजिया पर भी रोक लगाई। कभी भी किसी को सिख धर्म अपनाने के लिए विवश नहीं किया। इस बारे में वह कहते थे, भगवान ने मुझे एक आंख दी है, इसलिए उससे दिखने वाले हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, अमीर-गरीब मुझे सभी बराबर दिखते हैं। उन्होंने तख्त सिंह पटना साहिब और तख्त सिंह हजूर साहिब का निर्माण भी कराया। साथ ही उन्होंने अमृतसर के हरमंदिर साहिब गुरुद्वारे में संगमरमर लगवाया और सोना मढ़वाया, तभी से उसे स्वर्ण मंदिर कहा जाने लगा।
सिख योद्धा हरि सिंह नलवा
हरि सिंह नलवा महाराजा रणजीत सिंह कि फौज में सबसे भरोसेमंद कमांडर थे। प्रचंड शक्तिशाली तथा युद्ध नीति में हरि सिंह से अफगानी फौज खौफ खाती थी। उनका जन्म 1791 में माता धर्म कौर और पिता गुरदयाल सिंह उप्पल के घर हुआ। सात वर्ष की उम्र में ही हरि सिंह के सिर से पिता का छत्र उठ गया। पिता का निधन होने के बाद हरि सिंह ने अपने मित्रों और आस पास के गांव के युवकों को एकत्रित कर युद्ध अभ्यास शुरू किया। उन्होंने पाकिस्तान के गुजरावालां में बहुत समय गुजारा, घुडसवारी, तलवारबाजी, तीरंदाजी जैसे खेल खेलकर युवाओं में आत्मविश्वास निर्माण करने का प्रयास किया। उस समय अफगानी फौजी दिन दहाड़े गैर मुस्लिम परिवार पर हमला कर बहू-बेटियों को उठाकर ले जाते थे। मंदिर तोड़कर मूर्तियों को तोड़ देते थे। यह अत्याचार देखकर हरि सिंह क्रोधित हो उठते थे परंतु पर्याप्त शस्त्र ज्ञान न होने के कारण वे हतबल थे। माता धर्मकौर की आज्ञा का सदैव पालन करते हुए अनेक बार माता के समक्ष अफगानियों द्वारा होनेवाले अत्याचार से व्यथित होकर सीधे उनसे लड़ने की अनुमती मांगी, परंतु मां ने मना कर दिया।
खैबर खीड से होने वाले अक्रमण पर उनकी बारीक नजर थी। 1801 में पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह गद्दी पर बैठ गए। हरि सिंह ने महाराजा रणजीत सिंह से मुलाकात की तथा हिंदुस्थान पर होनेवाले मुगल और अफगानियों के अत्याचार पर क्रोध व्यक्त किया। शक्तिशाली एवं युद्ध कौशल में निपुण हरि सिंह को खैबर-पाश इलाके से तैनात किया गया। अहमदशाह दुर्रानी ने खैबर पाश से हिदुस्थान पर हमला किया। हरि सिंह नलवा ने बड़ी मुस्तैदी से उस हमले का डटकर सामाना किया तथा दुर्रानी का पराभव किया। इस जीत से महाराजा रणजीत सिंह ने हरि सिंह नलवा को कमांडर इन चीफ की पदवी बहाल की। हरि सिंह के ताकत से आफगानियों का खैबर पाश से आना मुश्किल हो गया। अफगानियों द्वारा पिछले आठ सौ वर्षों से लूटमार की जा रही थी। उसे हरि सिंह नलवा ने रोक लगा दी। उत्तर भारत मध्य आशिया को खैबर पाश जोड़ती थी। यह इलाका पहाड़ी होने के कारण अफगानी लोग लुक-छुपकर हमला करते थे। मुल्तान, हजारा, मानेकड़ा, कश्मीर आदि युद्धों में अफगानों को परास्त कर नलवा ने सिख साम्राज्य को जबरदस्त विस्तार दिया था। लिहाजा नलवा के नाम से अफगानी खौफ खाने लगे थे। इतिहासकार बताते हैं कि अगर हरी सिंह नलवा ने पेशावर और उत्तरी-पश्चिमी युद्ध क्षेत्र जो मौजूदा वक्त के पाकिस्तान का हिस्सा है, में युद्ध न जीते होते तो आज यह अफगानिस्तान का हिस्सा होता। ऐसा होने पर पंजाब और दिल्ली में अफगानियों की घुसपैठ कभी नहीं रोकी जा सकती थी।एक बार महाराजा रणजीत सिंह जंगल से गुजर रहे थे तब एक शेर ने महाराजा रणजीत सिंह पर हमला कर दिया। साथ में हरि सिंह नलवा थे उन्होंने तत्परता से शेर पर झपट्टा मारा और सीधे शेर के मुंह में हाथ डालकर शेर का जबडा फाड़ दिया। इस प्रकार उन्होंने महाराजा रणजीत सिंह की जान बचाई। इस बहादुरी को देखकर हरि सिंह नलवा को “बागमार” कि उपाधि दी गई।
उन्होंने अफगानियों के खिलाफ कई युद्धों में हिस्सा लिया था। 1807 में महज 16 साल की उम्र में नलवा ने कसूर, जो अब पाकिस्तान में है, के युद्ध में हिस्सा लिया था और अफगानी शासक कुतुबुद्दीन खान को मात दी थी। वहीं 1813 में नलवा ने अन्य कमांडरों के साथ मिलकर अटॉक के युद्ध में हिस्सा लिया और आजिम खान व उसके भाई दोस्त मोहम्मद खान को मात दी थी। यह दोनों तब काबुल के महमूद शाह की तरफ से युद्ध लड़ रहे थे। सिखों की दुर्रानी पठानों के खिलाफ यह पहली बड़ी जीत मानी जाती है। 1818 में सिख आर्मी ने नलवा के नेतृत्व में पेशावर का युद्ध जीता। तब नलवा को पंजाब-अफगान सीमा पर पैनी नजर रखने की जिम्मेदारी दी गई थी। 1837 में नलवा ने जमरूद पर कब्जा जरूर जमाया जो कि खैबर पास के रास्ते अफगानिस्तान जाने का एकमात्र रास्ता था। लेकिन इसी जंग में 30 अप्रैल को सरदार हरि सिंह नलवा गोलियों से छलनी होकर शहीद हो गए थे।
अमरीक सिंह वासरीकर