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1984 सिखों की अपूरणीय क्षति

1984 सिखों की अपूरणीय क्षति

by हिंदी विवेक
in राष्ट्र- धर्म रक्षक विशेषांक -जुलाई-२०२३, विशेष, सामाजिक
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कांगे्रस की लगाई आग इंदिरा गांधी की हत्या का कारण तो बनी ही, हिंदुओं एवं सिखों के बीच बहुत बड़ी खांई बना गई। इसे भरने का प्रयास दोनों ओर से हो रहा है लेकिन अभी बहुत काम बाकी है।

कई मायनों में 1984 सिख इतिहास में संक्रांति काल के रूप में अंकित हो गया है। अंग्रेजी में इसे कहेंगे- वाटरशेड वर्ष। इससे भी ज्यादा, जिस तरह से कांग्रेस ने पंजाब में सिखों के साथ व्यवहार किया वह किसी दुष्कर्म से कम नहीं था। वर्ष 1984 मेें दो महत्वपूर्ण घटनाओं, ऑपरेशन ब्लू स्टार और सिख विरोधी नरसंहार ने सिखों को सोचने पर मजबूर कर दिया था और न केवल कांग्रेस के प्रति बल्कि पूरे देश के प्रति सिखों के मन में भारी बदलाव आ गया था।

गौर से समझा जाए तो इन घिनौनी गतिविधियों की शुरुआत 1978 में हुई थी जब कांग्रेस केंद्र में सत्ता से बाहर थी और पार्टी ने चुनावी कारणों से सिखों को विभाजित करने की योजना बनाई। मार्क टली और कुलदीप नैय्यर जैसे समकालीन वरिष्ठ लेखकों ने इस बात की गवाही दी है कि कैसे कांग्रेस ने पंजाब में अकालियों के समानांतर दमदमी टकसाल के प्रमुख जरनैल सिंह भिंडरावाले को आगे बढ़ाने की योजना बनाई। 1979 के लोकसभा चुनाव में भिंडरावाले ने कांग्रेस के लिए प्रचार किया था, यह बात अब किसी से छिपी नहीं है। लेकिन कुछ समय पश्चात, लगभग 1982 में भिंडरांवाले अपने आप में एक सशक्त नाम बन गया व अपनी ताकत का लोहा मनवाने लगा। स्वर्ण मंदिर परिसर से उसने अपनी शर्तों पर काम करवाना शुरू कर दिया। यह वह समय था जब हरचंद सिंह लोंगोवाल के नेतृत्व वाले अकाली दल ने भी विवादास्पद आनंदपुर साहिब प्रस्ताव को लागू करने की मांग को लेकर अपना आंदोलन शुरू किया था।

1984 की शुरुआत में पंजाब में सचमुच आग लग गई थी। ऐसा कोई दिन नहीं था जब हत्याएं न होती हों। तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी वरिष्ठ अकालियों को उनकी मांगों पर बातचीत के लिए आमंत्रित करती थीं, लेकिन वार्ता विफल हो जाती थी। मार्क टली के अनुसार, प्रधान मंत्री या उनके प्रतिनिधि और अकालियों के बीच कम से कम बातचीत के 13 सत्र हुए, लेकिन उनमें से कोई भी सफल नहीं हुआ क्योंकि या तो प्रधान मंत्री या अकाली पीछे हट गए, किसी समझौते पर कभी नहीं पहुंच पाये। गौरतलब है कि जब अकालियों के साथ बातचीत हो रही थी तब प्रधानमंत्री ने भिंडरावाले की हिंसक गतिविधियों को रोकने के लिए कोई प्रयास नहीं किया। स्वर्ण मंदिर में हथियारों और गोला-बारूद की आपूर्ति तब भी बनी रही, जब भिंडरावाले ने पूर्व सेना अधिकारी शाहबेग सिंह के साथ अकाल तख्त की किलेबंदी शुरू कर दी थी। बड़ा ही आतंकी माहौल चल रहा था।

चूंकि उस समय पंजाब में राष्ट्रपति शासन था, इसलिए हर तरह से प्रधानमंत्री ही राज्य चला रही थी। सिख नेता आम तौर पर भ्रमित थे कि केंद्र पंजाब में आग बुझाने के प्रयास क्यों नहीं कर रहा है। यह बात उन्हें खायी जा रही थी कि दिन प्रतिदिन स्थिति को और अधिक गम्भीर क्यों होने दिया जा रहा था। पांच बार पंजाब के मुख्यमंत्री रह चुके प्रकाश सिंह बादल अक्सर कहा करते थे कि इंदिरा गांधी अकाली नेताओं को बेवकूफ बना रही थीं। उनका मानना था कि प्रधान मंत्री केवल दिखावटी काम करेंगी, लेकिन कभी भी मुद्दों को गम्भीरता से नहीं लेंगी। इसी तरह, एस.जी.पी.सी. के अध्यक्ष गुरचरण सिंह टोहरा कहते थे, सिखों को मूर्ख बनाया जा रहा है। ऑपरेशन ब्लू स्टार के दिनों में जब पंजाब को अंधेरे में रखा गया था, तब भारतीय सेना को स्वर्ण मंदिर पर ऑपरेशन के लिए एक संदेश दिया गया था। इसके बारे में सोच कर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि कितना भयावह रहा होगा वह समय॥ लेकिन ऐसा लगता है कि प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने स्वर्ण मंदिर पर सेना के हमले की योजना की कल्पना की थी, इस उम्मीद में कि यह कांग्रेस को दिसम्बर 1984 में होने वाले लोकसभा चुनावों में हिंदू वोटों को मजबूत करने में मदद करेगी।

कई सिख नेताओं को लगता है कि अगर भिंडरावाले से निपटने के लिए ऑपरेशन ब्लू स्टार को अंजाम न दिया गया होता, तो इसे कार्यान्वित करने के अन्य तरीके भी हो सकते थे। ऐसे सवाल हैं कि भिंडरावाले को इतना बढ़ने क्यों दिया गया? उसे गिरफ्तार क्यों नहीं किया जा सका? एक ओर अकाली नेताओं की मांगों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा था तो दूसरी ओर भिंडरांवाले के रूप में एक भगोड़े को खड़ा होने दिया जा रहा था। बड़ा ही विषम दृश्य था। ऑपरेशन ब्लूस्टार ने पूरे पंजाब राज्य को पंगु बना दिया था, मानो पूरे राज्य को लकवा मार गया हो। इस कदम ने भिंडरावाले के भक्तों और अनुयायियों सहित 1,500 से अधिक लोगों को मौत का ग्रास बनाया। साथ ही इसने राज्य में विद्रोह की एक बड़ी लहर को जन्म दिया। तुरंत ही ऑपरेशन वुडरोज शुरू हो गया था, जिसका उद्देश्य उन सिख युवाओं की तलाश करना था, जो ऑपरेशन ब्लूस्टार के खिलाफ विद्रोह करने वाले थे। इस प्रक्रिया में उनमें से सैकड़ों ने भारत-पाक सीमा पार की और ब्लू स्टार के बाद के युग में उग्रवाद के लिए तैयार चारा बन गए। आखिर क्या परिणाम हुआ कांग्रेसी धांधलियों का?

ब्लूस्टार के बाद राज्य गम्भीर मानसिक और मनोवैज्ञानिक पीड़ा में तर गुस्से से उबलता रहा। स्वर्ण मंदिर में जो कुछ भी हुआ उससे सिख और हिंदू दोनों की ही व्यग्रता बढ़ती रही। जिस दौरान कि स्तब्ध पंजाब आघात से जूझ रहा था, उसी वर्ष नवम्बर में दो सिख सुरक्षाकर्मियों ने इंदिरा गांधी की हत्या कर दी। हालांकि यह एक गम्भीर सुरक्षा चूक थी, लेकिन बाद में देश भर में पूरा सिख समुदाय इसका शिकार हुआ। रातों-रात सम्पूर्ण सिख समुदाय पर देश के दुश्मन होने का ठप्पा लग गया और उनको एक अलग ही नजरिये से देखा जाने लगा और उनके लिए स्थिति और बदतर होती चली गयी। यह एक बेहद शर्मनाक सोच थी और निश्चित रूप से इस आरोप में कोई सच्चाई नहीं थी।

जैसे ही दिल्ली सिखों के खिलाफ तबाही का केंद्र बना, उनके खिलाफ हिंसा देश के एक दर्जन से अधिक प्रमुख शहरों में समान रूप से प्रदर्शित हुई। इतना ही नहीं, इसने सिख सेना के वरिष्ठ अधिकारियों को भी स्थिति के खिलाफ विद्रोह करते देखा।

1984 के दिसम्बर में लोकसभा चुनाव आते-आते सिखों का पूरा अलगाव हो गया था। जैसा कि कांग्रेस को मिले फैसले से जाहिर होता है, देश और पंजाब को बांटने की कांग्रेस की योजना पूरी तरह सफल रही। लेकिन सिख और कांग्रेस पूरी तरह से बंट गये थे। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में भरसक प्रयासों से इस खाई को कुछ हद तक पाट दिया गया है, लेकिन कांग्रेस की ओछी राजनीति के कारण सिखों के मानस पर लगी चोटें अभी भी ताजा हैं।

                                                                                                                                                                                          अजय भारद्वाज

 

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