सिख-हिंदू परम्परा की साझी विरासत की कथाएं उन लोगों के मुंह पर जोरदार तमाचा हैं जो उन्हें अलग करके देेखने का प्रयास करते हैं। पहले गुरु नानक देव से लेकर दसवें गुर गोविंद सिंह तक ने हिंदू समाज की रक्षा एवं सामाजिक विकास हेतु कार्य किए।
दुनिया में सबसे पुरानी सभ्यता-धर्म या संस्कृति को देखें। हिंदुत्व, सनातन धर्म या वैदिक काल सा कोई भी नाम दें तो सबसे पुरानी भारतीय सभ्यता ही है। इस सभ्यता या धर्म की विशेषता रही कि ये कभी भी रुढ़िवादता या कट्टरता का पोषक नहीं रहा। समय समय पर इसमें कोई बदलाव या सुधार की जरुरत पड़ी और समयानुसार किसी भी महापुरुष ने बदलाव या सुधार का मार्ग दिखलाया तो इसने उसे आत्मसात किया। इसी का नतीजा है कि इससे निकली बौद्ध, जैन, सिख व आर्यसमाज जैसी अनेकों धारायें भारत भूमि पर पूरी मस्ती में लहलहा रही हैं। इतना ही नहीं बाहर से जो भी आक्रांता या शरणार्थी आया हमने उसके अतीत को भूल उसके अंश वंश को आत्मसात किया। क्योंकि सनातन परम्परा का मूल आधार ‘सर्वे सुखिन:भवन्तु वसुधैव कुटुम्बककम्’ से चल सिक्खी तक आ ‘सरबत दा भला व मानस की जात सब एको पहिचानबो’ के रूप में आज भी मानव हित का सर्वोत्तम उद्घोष बना हुआ है।
आज हम बात करेंगे केवल भारत के हिंदू व सिख परम्पराओं के अतीत से ले कर आज तक के रिश्तों की।
यह सर्वविदित है कि गुरु नानक देव का जन्म एक हिंदू खत्री परिवार में हुआ। यह वो समय था जब भारत पर बाबर जैसे आक्रांताओं के हमले शुरू हो चुके थे। गुरुनानक देव से लेकर गुरु अंगद देव, गुरु अमर दास जी, गुरु राम दास जी व गुरु अर्जुन देव तक मानवता का संदेश लिये हिंदू समाज में जन जागरण का अभियान चलाते रहे। इनके अनुयायी भी लगभग हिंदू मतावलम्बी ही बने। जहांगीर ने जब गुरु अर्जुन देव पर अत्याचार किये तब भी जहांगीर ने उनका वर्णन हिंदू संत या हिंदू पीर के रूप में ही किया।
उसके बाद जब छठे गुरु ने राजसी बाना धारण कर जहांगीर की चुनौती को स्वीकारा तो जहांगीर ने उन्हें भी हिंदू राजाओं के साथ ग्वालियर किले में बंदी बनाया। जब मरणासन्न जहांगीर को बीमारी से राहत न मिली तो हरी मंदिर साहिब की नींव रखने वाले मियां मीर द्वारा जहांगीर को पापबोध करवा छठे गुरु हर गोबिंद राय को रिहा करने को कहा तब भी भी छठे नानक ने अपने साथ 52 हिंदू राजाओं को रिहा करने की जिद्द ठान ली और उण 52 राजाओं को भी रिहा करवाया।
उसके बाद सातवें व आठवें गुरु का कार्यकाल ज्यादा बड़ा नहीं रहा। लेकिन इतिहास में उल्लेखित है कि सातवें गुरु हर राय ने दारा शिकोह को चिकित्सा देखभाल प्रदान की, सम्भवतः जब उन्हें मुगल गुर्गों द्वारा जहर दिया गया था। ये तीन मुंह बोलते प्रमाण हैं सिख धर्म को खत्म करने के मुगलिया अत्याचार के। एक तो सिख धर्म की स्थापना हिंदू वंश में जन्म ले गुरु नानक देव ने की। कहीं सनातनी हिंदू मान्यताओं के ईर्द-गिर्द होने के कारण इनके ज्यादातर अनुयायी उतरी भारत व विशेषकर पंजाब के हिंदुओं में से ही बने। या इस क्षेत्र के हिंदू जो इनके अनुयायी नहीं भी बने, उन्हें भगवान राम व कृष्ण या हिंदू सम्प्रदाय के महान संतों के रूप में सम्मान देते रहे।
इतना ही नहीं गुरु नानक देव से लेकर दशम पिता गुरु गोविंद सिंह ने सिक्खी व बाद में खालसा धर्म को केवल पंजाब तक सीमित नहीं किया। गुरु नानक देव का सभी सनातन तीर्थों का भ्रमण व गुरु गोविंद सिंह का पटना साहिब में जन्म भी इसके स्पष्ट उदाहरण हैं।
जब औरंगजेब के सताये कश्मीरी पंडित गुरु तेगबहादुर जी के पास आते हैं, अगर उसकी विवेचना करें तो हर कोई ये मान लेगा कि उस समय एक तो हिंदू सिख धर्म को एक मानते थे व उस समय जो जुल्म कश्मीरी हिंदुओं पर हो रहे थे वैसे ही जुल्म मुगलों द्वारा सिख गुरुओं व सिख मतावलम्बियों पर हो चुके थे या हो रहे थे। फिर भी सिख गुरुओं ने मुगलों से हार नहीं मानी और यथासम्भव उसका प्रतिकार भी किया। यही कारण था कि कश्मीरी पंडित गुरु अर्जुन देव की शरण में आ उनसे अपनी रक्षा की गुहार लगाते हैं। गुरु तेग बहादुर जी भी उनकी रक्षा के लिये अपने तीन अनुयायियों भाई मति दास, भाई सति दास, भाई दयालदास के साथ औरंगजेब से मिलने जाते हैं, तो चारों को क्रूर ढंग से शहीद कर दिया जाता है। उसके बाद 25 वर्षों के चिंतन मनन व साधना के बाद गुरु गोविंद सिंह खालसा धर्म की स्थापना करते हैं। यह सब इतिहास ज्यादातर भारतीयों की आंखों के सामने चलचित्र की तरह घूमता रहता है। इसमें कोई दो राय नहीं अगर गुरु तेग बहादुर जी बलिदान न देते, गुरु गोविंदद सिंह जी खालसा धर्म की सृजना नहीं करते तो दिल्ली से ले कर कश्मीर तक सारा उत्तर भारत इस्लाम स्वीकार कर लेता।
अंग्रेजों के समय से ही हिंदू सिखों को अलग करने की साजिशें हो रही हैं। फिर भी अतीत से ले आज तक हिंदू सिख एक दूसरे के पूरक रहे हैं। हालांकि सिख गुरुओं ने तिलक जंजू की रक्षा के लिये जो कुछ किया वो अनमोल व अकल्पनीय है और न ही कोई ये ऋण चुका सकता है, फिर भी आज कुछ लोग कट्टर सिख या कट्टर हिंदू के नाम पर हिंदू सिख में दरार पैदा करना चाहते हैं। उन्हें समझना होगा कि चाहे सिक्खी की एक अलग पहिचान व शान है पर फिर भी हिंदुओं के बिना सिक्खी अधूरी है व सिखों के बिना हिंदू।
अगर इतिहास में जायें तो खालसा धर्म के संस्थापक गुरु गोविंद सिंह का जन्म पटना साहिब, कर्मभूमि आनंदपुर साहिब व पाऊंटा साहिब वर्तमान पंजाब व हिमाचल। उनकी तपोस्थली व साधना स्थली हेमकुंड साहिब व नैनादेवी। जब मुगलों से लड़ते हुये आनंदपुर साहिब से निकलते हैं तो जाते हैं वर्तमान महाराष्ट्र के सुदूर नांदेड़ साहिब में और वहीं पर मुगलिया छल से घायल होते हैं। उपचार से कुछ ठीक होने के बाद तीर चलाते समय घाव खुलने से ज्योति ज्योत समाते हैं नांदेड़ साहिब में ही।
इससे पहले भी देखें तो जब गुरु गोविंद खालसा धर्म सजाते हैं तो पांच प्यारों में से एक लाहौर (पंजाब) से, एक मेरठ तत्कालीन दिल्ली, एक द्वारिका गुजरात, एक बीदर कर्नाटक व एक पुरी उड़ीसा से थे। यानी गुरु गोविंद ने जब पांच शीश मांगे तो उसमें केवल तत्कालीन या आज का पंजाब नहीं पूरा हिंदोस्तान था। तो फिर सिक्खी या सिख गुरुओं को केवल पंजाब तक सीमित रखना कहां तक उचित है?
अगर इससे आगे बढ़े तो गुरु गोविंद के दो छोटे साहिबजादे शहीद कर दिये गये व माता गुजरी ने भी प्राण त्याग दिये तो उस समय छोटे साहिबजादों व माता गुजरी के अंतिम संस्कार के लिये खड़ी अशर्फियों से धरती नापने वाला गुरसिख न होकर भी गुरु में अपार श्रद्धा रखने वाला हिंदू बनिया टोडरमल था। इसके साथ ही नवाब का नौकर, जिसे सरहिंद के ठंडे बुर्ज में माता गुजरी व छोटे साहिबजादों को दूध पिलाने पर नवाब सरहिंद द्वारा पूरे परिवार सहित कोल्हू में पेरवाया गया, वह मोती राम मेहरा एक गुरसिख न हो कर भी सिक्खी व गुरु गोविंद के प्रति अगाध श्रद्धा रखने वाला सामान्य हिंदू था। ये आम हिंदू का सिक्खी व गुरु गोविंद के प्रति समर्पण का अनूठा उदाहरण है।
जब गुरु गोविंद आनंदपुर साहिब से निकल पूरा परिवार बलिदान कर नांदेड़ साहिब पहुंचते हैं तो वहां रह रहा शिकारी से सन्यासी बना हिंदू संत मुगलों के जुल्मों सितम की कथा से व्याकुल हो गुरु गोविंद से प्रेरणा पा उनका आशीष पा बंदा बहादुर सिपाही बन सरहिंद के नवाब को सबक सिखाने को सरहिंद की ईंट से ईंट बजा देता है। ये मुंह बोलता उदाहरण है कि हिंदू ने सदैव सिक्खी व गुरु गोविंद को अपना आदर्श, गुरु व राम कृष्ण के बराबर माना।
इससे और पहले की बात करें तो भाई जैता जी गुरु तेग बहादुर जी का शीश ले आनंदपुर साहिब को जाते समय कुशाल गढ़ी में मुगल सैनिकों द्वारा घिर गये। उस समय मुगल सैनिकों के सम्मुख गुरु तेग बहादुर जी के शीश की जगह अपना शीश कटवा देने वाला कुश्हाल दहिया गुरसिख न होकर भी गुरु तेग बहादुर जी व सिक्खी के प्रति असीम श्रद्धा रखने वाला हिंदू जाट था। हम ऐसी कहानियों व तथ्यों को जितना खोजते जायेंगे तो एक ही बात सामने आयेगी कि सिख धर्म व सिख गुरुओं के प्रति हिंदू समाज की श्रद्धा समर्पण व आस्था के अनेकों उदाहरण मिलेंगे। सिख समाज में जितने भी गोत्र व वंश हैं उन सब की जड़ें कहीं न कहीं हिंदू वंशों से जुड़ जायेंगी। सिख धर्म पूरे भारत का था, है और रहेगा। इस महान धर्म व महान परम्परा को केवल पंजाब व पंजाबी तक सीमित करना सही नहीं कहा जा सकता।
राजिंद्र बंसल अबोहर