पंजाब के पानी की विशेषता है कि यहां पर हर मत को मानने वाले लोग सप्रेम रहते आए हैं। कुछ अवांछनीय तत्वों को यह मेलजोल बर्दाश्त नहीं हो पाता, परंतु उनकी संख्या मुट्ठी भर है। सिख और हिंदू समाज के बीच का यह प्रेम चिर स्थायी है और रहेगा।
वर्तमान समय में पंजाब की राजनीतिक स्थिति के ऊपर विचार करते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे हम किसी ऐसे एक राज्य की बात कर रहे हैं जो देश के विभाजन की विभीषिका के उपरांत अपनी व्यवस्थित स्थिति में नहीं आ पाया। बहुत हद तक यह बात ठीक भी लगती है क्योंकि पंजाब को देखने का परिपेक्ष्य अब बदल चुका है। पंजाब, जो किसी समय विभिन्न मतों, समुदायों एवम् सम्प्रदायों के सह-अस्तित्व की भूमि के रूप में पहचाना जाता था, अब क्यों और कैसे साम्प्रदायिक आधार पर अलगाववाद के लिए जाना जाने लगा है। हमें इस समस्या पर विचार करने से पहले यह देखना होगा कि भारतीय पंजाब में रहने वाले कौन लोग अलगाववाद की बात करते हैं और ऐसे विचार का समर्थन करते भी हैं या नहीं। पंजाब अपने नाम की तरह ही विभिन्नता में एकता का प्रतीक रहा है। पंजाब का यह सामाजिक और सांस्कृतिक चरित्र भारत की पुरातन धरोहर का ही भाग है। पंजाब का मौजूदा क्षेत्र भारत के सदियों पुराने सप्तसिंधु भूखंड का ही नया नाम और उसकी वर्तमान पहचान है। इसी भूखंड पर भारत की मानवी सभ्यता का उदय हुआ और यह सभ्यता सभी दिशाओं में फैलती रही। किसी युग में भारत का भौगोलिक प्रसार पश्चिम में अफगानिस्तान से लेकर सुदूर दक्षिण पूर्व में इंडोनेशिया तक फैला हुआ था। इसकी पहचान का एक बौद्धिक सूत्र इसका धर्म-केंद्रित होना था। ज्ञान आधारित धर्म व्यवस्था ने ही इस विशाल भूखंड के समाज और संस्कृति का निर्माण किया है। यही एक सूत्र पूर्व की पहचान रहा है और यही इसको बांध कर भी रखता है।
पंजाब के ऐतिहासिक संदर्भ में उपरोक्त चर्चा करने का अभिप्राय यह है कि पंजाब एक पुरातन और निरंतर चली आ रही सभ्यता की जन्मस्थली रहा है और भारतीय लोग इसके साथ जुड़ कर ही अपनी पहचान देख पाते हैं। इस सभ्यता की पहचान सनातन प्रवाह वाली धर्म परम्परा है, जो विभिन्न मतों और सम्प्रदायों के रूप में आज भी जीवित है। भारतीय धर्म परम्परा के चार प्रमुख मत हैं, हिंदू, सिख, बौद्ध और जैन। इन चारों में समानता यह है कि ये सभी भारतभूमि से पैदा हुए मत हैं और यहीं से दुनिया के विभिन्न देशों में फैले। इनमें से हिंदू और सिखमत अद्वैत दर्शन के पक्षधर होने के कारण एक दूसरे के न सिर्फ करीब हैं बल्कि एक दूसरे के पूरक भी हैं। हिंदू धर्म में जहां आज भी साकार और निराकार दोनों तरह की आस्थाएं मौजूद हैं वहीं सिखमत सिर्फ निर्गुण निराकार को ही मान्यता देता है। अद्वैत सिद्धांत के अनुसार ब्रह्म-जीव-जगत की संकल्पना को सामाजिक रूप में अपनाने वाली सनातन धर्म परम्परा ने ही सिखमत को आकार दिया है। सनातन धर्म परम्परा और सिखमत के बीच अद्वैत दर्शन की एकात्मता ही सिखमत को भारतीय सभ्यता का नवीन समाज घोषित करती है। इस विचार के अनुसार सिखमत सनातन धर्म परम्परा का भाग होता हुआ भी, अपनी एक विशेष पहचान रखता है।
वर्तमान समय में कुछ अलगाववादी ताकतें सिखमत और सनातन धर्म के इस गहरे रिश्ते को जानते हुए भी, तोड़ने का प्रयास करने में लगी हुई हैं। ऐसा नहीं के ऐसे शरारती तत्व सनातन धर्म परम्परा को नहीं समझते, लेकिन उनका उद्देश्य इसको तोड़ने और कमजोर करने का है। कुछ विदेशी ताकतें बहुत लम्बे समय से ही देश को अस्थिर करने के लिए, सिखों के मन में अलगाव की भावना पैदा करने का प्रयत्न कर रही हैं। इस भाईचारे में दरार पैदा करने का उनके पास एक ही रास्ता था कि हिंदू-सिख को दो अलग-अलग पहचानों में बांट दिया जाये। दार्शनिक आधार पर ये दोनों धर्म कभी भी अलग नहीं हो सकते, लेकिन बाहरी रूप में अपनाए गये कुछ चिह्नों के नाम पर एक पृथक धार्मिक पहचान स्थापित करने के प्रयत्नों से अलगाववाद को बल मिला। ‘सिखी सिखिया गुर विचार’ सिखमत का रास्ता गुरुओं द्वारा उच्चारित वाणी को जीवन में आत्मसात करने वाला है। गुरुवाणी मानव को अपना सामाजिक जीवन आध्यात्मिक और दार्शनिक दृष्टि से निर्मित और नैतिक मूल्यों पर आधारित धर्म व्यवस्था में जीने का आवाहन करती है। यह आध्यात्मिक और दार्शनिक दृष्टि ब्रह्म-केंद्रित भारतीय ज्ञान परम्परा से ही मूर्तिमान होती है। इस तरह गुरुवाणी भारत की इस सनातनी ज्ञान परम्परा का ही प्रवचन है, जिसको किसी भी तरह से अलग नहीं किया जा सकता।
कुछ विदेशी ताकतें इसी सनातनी एकता को खंडित करने का प्रयास कर रही हैं। इस के लिए वे सिख भाईचारे में हिंदू धर्म के विरुद्ध अलगाव की भावना पैदा करने का षड्यंत्र कर रहे हैं। ऐसी स्थिति के पीछे अवश्य कुछ ऐतिहासिक कारण हैं, जैसे कि देश की आजादी के समय ही सिख समुदाय के लिए एक पृथक शासन की मांग को पैदा करना, पंजाब राज्य का असंतोषजनक विभाजन, 1984 का सिख नरसंहार आदि। इन सभी बातों को सिखों के मन में गुस्सा और अविश्वास पैदा करने के लिए इस्तेमाल किया गया। अगर हम देश की आजादी से पहले के समय पर भी नजर डालें तो पता चलेगा कि अलगाववाद की भूमि पहले से ही तैयार हो रही थी। इस में बर्तानवी हुकूमत का बड़ा हाथ था। भारत पर शासन करने के उदेश्य से बर्तानवी शासकों ने यहां के लोगों को जाति, धर्म और भाषा आदि के आधार पर बांटना शुरू किया। सामाजिक सुधार आंदोलन के नाम पर और ईसाई मिशनरियों के प्रति-उत्तर में यहां की धर्म परम्पराओं ने अपने आप को अब्राह्मिक परम्परा के अनुरूप ढालना आरम्भ कर दिया। भाव, आत्मिक और आंतरिक मानवी पहचान के स्थान पर बाह्य चिह्नों पर आधारित विशिष्ट और पृथक पहचान स्थापित करने का दौर आरम्भ हो गया। यहीं से सिख समाज के स्वरूप में विशिष्टतावाद शुरू हुआ और अलगाव के बीज भी बो दिए गये। ब्रह्म-केंद्रित धर्म व्यवस्था में किसी भी बाह्य पहचान पर बल नहीं दिया जाता बल्कि सभी तरह की सांसारिक पहचानों को एक परमात्मा रूपी परमसत्ता में ही सम्मिलित माना जाता है। इस तरह एकात्म भाव के स्थान पर विशिष्ट और पृथक भाव पैदा हो गया।
ऐसा नहीं कि सिख समाज ने विदेशी ताकतों के षड्यंत्र को पहचाना न हो या इसका जवाब न दिया हो। हिंदू और सिख समाज की एकता की जड़ें बहुत मजबूत हैं, इसलिए अलगाववाद के प्रयत्न असफल हो जाते हैं। फिर भी अनियंत्रित सोशल मीडिया के कारण नफरत फैलाने वाले कुछ ग्रुप थोड़ी देर तक जरूर अविश्वास पैदा करने में कामयाब हो जाते हैं। ऐसे समय में सिख समुदाय के जिम्मेदार लोग डटकर इसका प्रत्युत्तर देते हैं। इनमें सबसे विख्यात नाम प्रोफेसर जगबीर सिंह और प्रोफेसर कपिल कपूर के हैं जो लगातार सिख-हिंदू समाज की सनातनी एकता की बात करते रहते हैं। दोनों की भूमिका इतनी प्रबल रही है कि इनके वक्तव्य हर रोज सोशल मीडिया पर वायरल होते दिखते हैं। जहां प्रोफेसर जगबीर सिंह सिखमत के दर्शन को भारतीय ज्ञान परम्परा के अनुसार सनातनी धर्म परम्परा के वैदिक परिदृश्य के अनुरूप स्थापित करते हैं वहीं प्रोफेसर कपूर अपनी पारिवारिक सिख पृष्ठभूमि के गौरव को बयान करते हुए दसवें गुरु श्री गुरु गोविंद सिंह की ऐतिहासिक भूमिका का स्मरण करवाते हैं। दोनों विद्वान अपने आप को सनातनी सिख कहते हैं। सनातनी सिख पंजाबी हिंदू-सिख भाईचारे की मौलिक पहचान को परिभाषित करता है। अर्थात् सिख और सनातन को पृथक नहीं किया जा सकता, क्योंकि सिख से अभिप्राय है, शिष्य। जिस ने गुरु से शिक्षा ग्रहण की है। गुरु अपने शिष्य को अध्यात्म का ज्ञान प्रदान करता है। अध्यात्म का अर्थ है अपने आत्म का अध्ययन। इस प्रकार गुरु शिष्य को अपने आत्म के अध्ययन का ज्ञान प्रदान करता है। अध्यात्म भारतीय दर्शन के अनुसार कोई धार्मिक कार्य नहीं बल्कि मानव-जीवन से सम्बंधित मूलभूत प्रश्नों का उत्तर तलाश करना है। इस कार्य में किसी प्रकार के बाह्य चिह्नों या रीति रिवाजों का कोई स्थान नहीं होता। कोई आडम्बर या पाखंड नहीं होता। गुरु-शिष्य परम्परा का एक मात्र उद्देश्य ज्ञान की अभिलाषा है। ज्ञान देना और प्राप्त करना ही, मनुष्य का परम् उदेश्य होना चाहिए। ऐसी भावना के अनुसार ही उपरोक्त विद्वानजन वर्तमान् समय में समाज को जोड़ के रखने के लिए अलगाववाद के विरुद्ध डटकर कार्य कर रहे हैं।
प्रो रविन्दर सिंह