खालिस्तान के मामले को पाकिस्तान हमेशा से उकसावा देता रहा है। शुरुआती दौर में अमेरिकी सरकार ने भी उन्हें प्रश्रय दिया। वर्तमान में खालिस्तान की अवैध गतिविधियों के लिए कनाडा प्रमुख अड्डा बना हुआ है।
सिख धर्म गुरूओं ने कभी भी हिंसा या आतंकवाद को समर्थन नहीं किया है। सिख गुरुओं की शिक्षाएं मानवता, प्रेम, सद्भाव, समरसता, शांति और धर्मानुयायी संसार के लिए समर्पित हैं। वे सिख समुदाय को सामरिक और नैतिक मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए आए थे।
बीसवीं शताब्दी के अंत में सिख समाज का आंशिक धड़ा एक राष्ट्र की मांग करने लगा जिसे खालिस्तान नाम दिया गया। खालिस्तानी आंदोलन आमतौर पर अलगाववादी सिख समूहों द्वारा पंजाब में एक अलग सिख राष्ट्र (खालिस्तान कहा जाता है) की मांग को संदर्भित करता है। खालिस्तानी अलगाववादी समूहों ने सिख धर्म की शांति, सामरिकता और सौहार्द्र के मूल तत्वों का दुरुपयोग किया। उनके गतिविधियों में शामिल होने वाले लोग धर्मिक मान्यताओं को छोड़कर अलग हो गए और अपनी विचारधारा की विशेषताओं के आधार पर उनकी कार्रवाई करते हैं। इन समूहों का मुख्य उद्देश्य राजनीतिक और अवैध माध्यमों के जरिए पृथक राष्ट्र की स्थापना करना है।
पंजाब में अलगाववाद का कारण सिख समुदाय का वह छोटा सा हिस्सा है जो अलग राष्ट्र की मांग के रूप में उभरा है, जिसे खालिस्तानी अलगाववादी के नाम से जाना जाता है। स्वतंत्र राष्ट्र की मांग करने वाला एक छोटा तबका है, जबकि बहुसंख्यक लोग इसे नकारते हैं और इसे एक विभाजनात्मक, आंदोलनीय मांग मानते हैं। सिख समुदाय का वह वर्ग जो इस अलगाववादी अभियान के विरोध में होता है वह भारतीय संविधान में विश्वास रखते हुए भारतीय राष्ट्रीय सम्प्रभुता को सुरक्षित रखने के लिए प्रतिबद्ध है।
अगर वर्तमान खालिस्तान अभियान की जड़ में जायेंगे तो यह स्पष्ट रूप से परिलक्षित होगा की यह ब्रिटिश साम्राज्यवाद की विरासत है। ब्रिटिश शासन के दौरान राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक नीतियों में बदलाव के परिणामस्वरूप, पंजाबी समाज में बड़े परिवर्तन देखे गए। उदाहरण के लिए, जमीन की मालिकी का व्यवस्थापन, अर्थव्यवस्था का परिवर्तन और ग्रामीण समाज में नौकरशाही व्यवस्था की स्थापना, जिसने पंजाबी किसानों को वृहद स्तर पर प्रभावित किया।
खालिस्तानी आंदोलन की उत्पत्ति उस युग में हुई जब साम्प्रदायिक सीमाएं हिंदुओं और सिखों के बीच अधिक विरोधी हो गईं। भारत की स्वतंत्रता के पहले ब्रिटिश शासन सदैव देश के अलग-अलग क्षेत्र में विभिन्न आस्था वाले लोगों के बीच उन्माद पैदा कर असहयोग एवं विरोध की भावना को बढ़ाने का काम करते थे। स्वतंत्रता के पश्चात भी ऐसे अवसरों का फायदा ब्रिटिश राजनीति लेती रही है। अलग राष्ट्र (खालिस्तान) की मांग की उत्पत्ति भी ऐसे ही समय पर हुई जब साम्प्रदायिक सीमाएं हिंदुओं और सिखों के बीच खाई के रूप में परिवर्तित होने लगी। 1971 में सिखों के लिए खालिस्तान आंदोलन के प्रस्तावक जगजीत सिंह चौहान ने यूनाइटेड किगंडम और पाकिस्तान में रैली की और 1977 में यूनाइटेड किगंडम में ही खालिस्तान नेशनल काउंसिल की स्थापना कर एक इमारत में खालिस्तान हाउस बनाया। खुद चौहान ने राष्ट्रपति बन मंत्रिमंडल का गठन किया और पासपोर्ट एवं मुद्रा भी जारी की। यह हास्यास्पद हो सकता है लेकिन इस अभियान से भारत और पंजाब ने तीन दशकों तक उग्रवाद और अशांति का दौर देखा है।
यह वही समय था जब भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध चल रहा था जिसमें पाकिस्तान को करारी पराजय का सामना करना पड़ा था जिसके प्रतिशोध स्वरूप पाकिस्तान के तत्कालीन आर्मी जनरल मोहम्मद जिया-उल-हक और राष्ट्रपति अयूब खान ने पंजाब और कश्मीर के माध्यम से भारत को लहूलुहान करने के लिए ‘के2’ योजना बनाई थी।
लेखक और सेवानिवृत्त रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (ठअथ) अधिकारी बी. रमन अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध से पहले डॉ. जगजीत सिंह चौहान, जिन्होंने 1967 और 1969 के बीच कुछ महीनों के लिए उप सभापति के रूप में कार्य किया था, वहां वे सिख होम रूल आंदोलन में शामिल हुए। उस आंदोलन का नेतृत्व सम्भाला और फिर इसे खालिस्तान आंदोलन का नाम दिया। उनके ब्रिटेन पहुंचने से पहले ही पाकिस्तानी उच्चायोग और लंदन में अमेरिकी दूतावास सिख होम रूल मूवमेंट के कार्यकर्ताओं के सम्पर्क में था। उन्होंने चौहान के आने के बाद उनसे सम्पर्क स्थापित किया और इंदिरा गांधी को शर्मिंदा करने के लिए भारत सरकार के खिलाफ जगजीत चौहान के प्रचार को प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया। पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह जनरल याह्या खान ने उन्हें पाकिस्तान आमंत्रित किया। भारतीय सिख समुदाय के नेता के रूप में उनका गर्मजोशी से स्वागत किया गया, भले ही पंजाब के सिख समुदाय में उनका कोई वर्चस्व नहीं था। चौहान की पाकिस्तान यात्रा के दौरान, वहां के अधिकारियों ने उन्हें गुरुद्वारों में रखे कुछ सिख पवित्र अवशेष भेंट किए। चौहान उन्हें अपने साथ यूनाइटेड किंगडम ले गया और खुद को एक ऐसे नेता के रूप में पेश किया जो सिखों के धार्मिक हितों की रक्षा कर सके।
पंजाबी समुदाय में अलगाववाद को बढ़ावा देने के लिए शिक्षा, संरक्षण, संसाधन और सम्पत्ति देकर आक्रोशित करने का काम पाकिस्तान आर्मी एवं राजनीतिक संस्था कर रही थी जिसके परिणामस्वरूप धार्मिक कट्टरपंथ, आतंकवाद और अलगाववाद में बढ़ोत्तरी देखी गई।
अलगाव के इस षड्यंत्र का अंतरराष्ट्रीय जाल है, जिसमें पाकिस्तान और इसकी इंटेलिजेंस एजेंसी इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस मोहरा है। हालांकि इसमें उनका हित भी जुड़ा है। 03 मार्च, 1986 को पाकिस्तान में भारत के राजदूत रहे शीलेंद्र कुमार सिंह ने भारत सरकार को दी एक ब्रीफिंग में कहा कि, ‘खालिस्तान की अवधारणा भारत के एक रणनीतिक सीमा क्षेत्र को अस्थिर करना है। यह हमारे सिखों के बीच असंतुष्टों, उग्रवादियों, कट्टरपंथियों और चरमपंथियों के लिए भारत को रक्षात्मक रखने की एक साजिश है।’ पाकिस्तान वर्षों से पश्चिमी सहायता का एक वाहक होने के साथ-साथ समर्थन, बैकअप और प्रशिक्षण का स्रोत भी रहा है।
अतीत से लेकर वर्तमान तक भारत की अशांति हेतु दुनिया के कई देशों ने अपनी सक्रिय भूमिका निभाई है। अगर खालिस्तानी अलगाववाद की ही बात की जाए तो यूनाइटेड किंगडम ने जहां इसे आश्रय देकर पोषित करने का कार्य किया है तो वहीं पाकिस्तान ने संसाधन एवं प्रशिक्षण देकर लड़ने के लिए तैयार किया है। अमेरिकी दूतावास जहां सिख होम रूल (खालिस्तानी अभियान) के सम्पर्क में था तो वहीं यह देश वर्तमान में कई खालिस्तानी संगठनों और व्यक्तियों का घर बना हुआ है।
सितम्बर 2021 में अमेरिकी थिंक टैंक हड्सन इंस्टीट्यूट ने पाकिस्तान की अस्थिरता की प्लेबुक की एक रिपोर्ट जारी की: अमेरिका के भीतर खालिस्तान अलगाववादी सक्रियता। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्तरी अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम और यूरोप में खालिस्तानी और कश्मीरी समूहों के बीच सहयोग स्पष्टरूप से वर्णित होता है। कश्मीरी और खालिस्तानी अलगाववादी अक्सर मिलकर काम करते देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, अगस्त 2020 में, खालिस्तानी और कश्मीरी कार्यकर्ताओं ने भारत के खिलाफ न्यूयॉर्क में एक प्रदर्शन किया और सितम्बर 2019 में कार्यकर्ताओं ने ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन से कल्पना और नारों को अपनाया, जिसका उद्देश्य संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रणालीगत और संरचनात्मक श्वेत वर्चस्व का निवारण करना है। वाशिंगटन डीसी, ह्यूस्टन, ओटावा, लंदन, ब्रुसेल्स, जिनेवा और अन्य यूरोपीय राजधानियों में खालिस्तानी और कश्मीरी अलगाववादियों के संयुक्त विरोध प्रदर्शन देखे गए।
वहीं सितम्बर 2020 में कनाडा स्थित थिंक टैंक मैकडोनाल्ड-लॉरियर संस्थान के द्वारा प्रकाशित एवं टेरी मिलेव्स्की द्वारा लिखित ‘खालिस्तान: ए प्रोजेक्ट ऑफ पाकिस्तान’ रिपोर्ट जारी की। रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से बताया गया कि कैसे पाकिस्तान ने भारत-पाक 1971 के युद्ध में अपनी हार का बदला लेने के लिए भारत के पंजाब में भारतीय सिखों का इस्तेमाल किया और खालिस्तान विद्रोह की शुरुआत की, जो आज न केवल भारत बल्कि कनाडा की सुरक्षा के लिए भी एक बड़ा खतरा बन गया है।
वर्तमान में कनाडा खालिस्तानी अलगाववादियों का केंद्र है जहां से भारतीय राज्य पंजाब में हत्या, हथियार, हिंसा और वैश्विक विमर्श एवं षड्यंत्र का संचालन करते हैं। भारत सरकार के द्वारा खालिस्तानी गतिविधियों के सम्बंध में समय-समय पर कनाडा सरकार को आगाह किया गया है लेकिन कनाडा सरकार के प्रधानमंत्री की सम्बंधित मुद्दे पर अकर्मण्यता देखकर लगता है कि सभी गतिविधियों के पीछे उनकी मौन सहमति है।
रोहन गिरि