2019 से शुरू हुए नाटक का पटाक्षेप

जनादेश को अनदेखा कर जनभावनाओं का अनादर करने के कारण उध्दव ठाकरे के बाद अब शरद पवार को भी इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है और महाराष्ट्र में इन दोनों क्षेत्रीय पार्टीयों का पतन यही दर्शाता हैं कि यदि अब भी इससे सीख लेकर परिवारवादी पार्टियों ने लोकतंत्र का सम्मान नहीं किया तो उनका भी पतन होना निश्चित है।

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और शिवसेना ने 2019 का विधानसभा चुनाव गठबंधन करके लड़ा था। यदि चुनाव परिणाम आने के बाद भी गठबंधन धर्म का पालन किया गया होता, तो पिछले साढ़े तीन वर्ष से महाराष्ट्र जिस प्रकार की अनिश्चितता और अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है, वह स्थिति कतई पैदा नही होती। लेकिन उस समय चुनाव परिणाम आते ही शिवसेना ने अप्रत्याशित रूप से जिस प्रकार पलटी मारी, उसने महाराष्ट्र को विकास के मोर्चे पर तो वर्षों पीछे ढकेला ही, यहां के राजनीतिक परिदृश्य में भी ऐसी कटुता पैदा कर दी, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।

कौन कल्पना कर सकता था कि हिंदू हृदय सम्राट बालासाहेब ठाकरे की स्थापित शिवसेना में इतनी बड़ी फूट पड़ेगी कि उनके पुत्र के हाथ से शिवसेना का नाम और चुनाव चिह्न भी जाता रहेगा। कौन कल्पना कर सकता था कि मराठा छत्रप शरद पवार का जो भतीजा 40 साल से उनकी उंगली पकड़कर राजनीति का ककहरा सीखता आ रहा था, वह अचानक अपने काका को ही जमीन दिखाकर उनकी पूरी पार्टी ले उड़ेगा। कौन कल्पना कर सकता था कि महाराष्ट्र में भाजपा, शिवसेना एवं राकांपा की मिलीजुली सरकार भी बन सकती है। लेकिन यह सब हो रहा है क्योंकि 2019 में चुनावपूर्व गठबंधन का सम्मान नहीं किया गया। उस समय जनादेश भाजपा-शिवसेना को मिला था, लेकिन सरकार बनी शिवसेना-कांग्रेस-राकांपा की और बड़ी बेशर्मी से यह भी कहा जाता रहा कि भाजपा को सरकार बनाने का जनादेश नहीं था।

2019 में हुई यह धोखाधड़ी दरअसल किसी दल के साथ नहीं, बल्कि महाराष्ट्र की उस जनता के साथ हुई थी, जिसने राज्य में भाजपा के नेतृत्व में एवं शिवसेना के सहयोग से नई सरकार बनाने का स्पष्ट जनादेश दिया था। कांग्रेस-राकांपा का दामन थामकर उद्धव ठाकरे द्वारा न सिर्फ इस जनादेश का अपमान किया गया, बल्कि बार-बार यह कहा जाता रहा कि भाजपा नेता अमित शाह ने उनके साथ किया गया वायदा नहीं निभाया, इसलिए उन्हें कांग्रेस-राकांपा के साथ मिलकर महाविकास आघाड़ी का गठन करना पड़ा।

2019 के चुनाव परिणाम आने के बाद शिवसेना की ओर से की गई वायदाखिलाफी न सिर्फ भाजपा कार्यकर्ताओं एवं उसके समर्थक मतदाताओं को खली बल्कि शिवसेना के भी उन लाखों कार्यकर्ताओं, नेताओं एवं जनप्रतिनिधियों को भी खली, जो प्रधानमंत्री मोदी में आस्था रखते थे। उनके नाम पर वोट दिया, या उनके नाम पर चुनकर आए। शिवसेना के टिकट पर चुनकर आए विधायक भी अपने नेता उद्धव ठाकरे के इस फैसले से हक्का-बक्का रह गए थे।

चुनाव विधानसभा का हो या लोकसभा का। 2014 के बाद से ‘मोदी फैक्टर’ पूरे देश में बड़ी भूमिका निभाता आ रहा है। उद्धव ठाकरे यही महत्त्वपूर्ण बात भूल गए। 2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार शिवसेना की सीटें 18 तक पहुंच गई। लेकिन इसी उछाल ने उद्धव परिवार का दिमाग सातवें आसमान पर पहुंचा दिया। वह मानने लगे कि यह करिश्मा उनके और शिवसेना के नाम पर हुआ है। इसके बाद से उनकी तरफ से भाजपा के केंद्रीय नेताओं के विरुद्ध बदजुबानी होने लगी और 2014 के विधानसभा चुनाव में भाजपा-शिवसेना का गठबंधन टूट गया। दोनों पार्टियां अलग-अलग चुनाव लड़ीं और शिवसेना अपने वास्तविक धरातल पर आ गई।

महाराष्ट्र में भाजपा को अपने कंधों पर बैठाकर शिखर पर पहुंचाने का दावा करनेवाली शिवसेना को 2014 के विधानसभा चुनाव में राज्य की 282 सीटों पर चुनाव लड़कर सिर्फ 63 सीटें हासिल हुई यानी उसकी जीत का प्रतिशत सिर्फ 22.34 प्रतिशत रहा, जबकि भाजपा को 260 सीटें लड़कर 122 सीटें हासिल हुई, उसकी जीत का प्रतिशत 46.92 प्रतिशत रहा। लिहाजा शिवसेना को झक मारकर एक महीने बाद ही भाजपानीत सरकार में शामिल होने के घोषणा करनी पड़ी। लेकिन शिवसेना खुद को मिली सीटों को अपनी असली ताकत समझकर उसे बढ़ाने के लिए मेहनत करने के बजाय भाजपा द्वारा खींच दी गई लंबी लकीर को छोटा करने का मौका तलाशने लगी।

पूरे पांच साल भाजपा के साथ सत्ता में रहने के बावजूद उसके नेता मौखिक बयानों या अपने मुखपत्र ‘सामना’ के लेखों के जरिए भाजपा के शीर्ष नेताओं को अपमानित करते रहे। 2019 के चुनाव परिणामों के बाद जो कुछ भी हुआ, संभवतः शिवसेना ने उसकी भूमिका 2014 में सरकार में शामिल होने बाद ही रच ली थी। जबकि भाजपा अपने 25 साल के साथ को और आगे ले जाने का गुमान पाले बैठी रही। इसी गलतफहमी में 2017 में जब राकांपा ने शिवसेना को हटाकर उसके साथ गठबंधन करने का प्रस्ताव रखा था तो भाजपा ने यह कहकर ठुकरा दिया कि हम अपनी 25 साल पुरानी साथी शिवसेना का साथ नहीं छोड़ सकते। जबकि राकांपा तब शिवसेना के सरकार में रहते खुद सरकार का हिस्सा नहीं बनना चाहती थी। ये सारे तथ्य हाल ही में राकांपा के टूटने के बाद खुद राकांपा के ही कई नेताओं ने उजागर किए हैं।

राकांपा के नेताओं ने यह भी बताया है कि भाजपा के साथ उसके सरकार बनाने की बातें 2014 से अब तक पांच बार हो चुकी हैं। ये सारी बातें उसके सर्वोच्च नेता शरद पवार की जानकारी में ही होती रही हैं। शरद पवार का भी दोहरा चरित्र स्वयं उनके भतीजे अजीत पवार ने बयान किया है कि कैसे उन्होंने 2017 में शिवसेना के रहते भाजपा सरकार में शामिल होने से इंकार किया और फिर 2019 में उसी ‘सांप्रदायिक’ शिवसेना के साथ महाविकास आघाड़ी का गठन कर सरकार बना डाली।

राकांपा टूटने के बाद अब उद्धव और शरद पवार दोनों के दोहरे चरित्र उन्हीं की पार्टियों के नेताओं द्वारा महाराष्ट्र की जनता के सामने लाए जा रहे हैं। अपने इसी दोहरे चरित्र का खामियाजा उन्हें अपनी पार्टी की टूट से चुकाना पड़ा है। इन दोनों नेताओं के पास अब मुश्किल से एक तिहाई पार्टी ही शेष बची है। सक्रिय और मजबूत नेताओं व कार्यकर्ताओं के अभाव में वे अब इसे फिर से खड़ा कर पाएंगे, इसमें संदेह ही नजर आता है। रही बात भाजपा के साथ आई शिवसेना (शिंदे गुट) एवं राकांपा (अजीत गुट) की, तो देवेंद्र फडणवीस स्वीकार कर चुके हैं कि शिवसेना के साथ उनका संबंध ‘भावनात्मक’ है, जबकि राकांपा के साथ अभी ‘राजनीतिक’ है। इसे भावनात्मक होने में 10-15 साल लगेंगे। लेकिन एक बात तय है कि भाजपा-शिवसेना-राकांपा का ताजा बना गठबंधन फिलहाल लोकसभा चुनाव तक तो कहीं हिलनेवाला नहीं है क्योंकि शिवसेना (शिंदे) और राकांपा (अजीत) भी औपचारिक रूप से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा बन चुके हैं। यदि ये तीनों दल लोकसभा चुनाव में सीटों का बंटवारा बुद्धिमत्ता पूर्वक करने में सफल रहे, तो राज्य की 48 में से 45 से अधिक सीटें इसी गठबंधन के हिस्से में आएंगी।

                                                                                                                                                                                              विमलेश तिवारी 

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