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खालिस्तान षड्यंत्र का तियां पांचा

खालिस्तान षड्यंत्र का तियां पांचा

by धर्मेन्द्र पाण्डेय
in ट्रेंडींग, विशेष, सामाजिक, सितम्बर २०२३
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वर्तमान परिदृश्य में, जबकि 1984 में कांग्रेस द्वारा किए गए नरसंहार को हिंदुओं द्वारा सिखों के विरुद्ध किए गए दंगे की संज्ञा दी जाती है, रॉ के विशेष सचिव पद से सेवानिवृत्त जी.बी.एस. सिद्धू की पुस्तक ‘खालिस्तान षड्यंत्र की इनसाइड स्टोरी’ उन परिस्थितियों एवं कांग्रेस की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं पर सरलता से प्रकाश डालती है।

अस्सी के दशक में दिल्ली से लेकर पंजाब तक हुई वीभत्स घटनाएं आज भी भारतीय समाज के हृदय में जीवित हैं। सिखों के लिए तो वे घटनाएं पीढ़ी दर पीढ़ी याद की जाने वाली भयावह स्मृतियां बनकर परेशान करती रहेंगी। सड़क पर जलती लाशें, स्वर्ण मंदिर का टूटा बुर्ज और दहशत के माहौल में जीते युवा, एक कतार में खड़ा करके गोली मार दिए जाते जत्थे के जत्थे। इन सारी घटनाओं के पीछे का कारण साफ था। खालिस्तानी उग्रवादी जनरैल सिंह भिंडरावाले को मारकर सरकार ने कथित तौर पर देश का एक और विभाजन होने से बचा लिया था और इसका बदला लेने के लिए देेश की लोकप्रिय और सशक्त प्रधान मंत्री की उन्हीं के दो सिख बाडीगार्ड्स ने नई दिल्ली स्थित उनके आवास में हत्या कर दी थी। एक बड़ा बरगद का पेड़ ढह चुका था। उसकी वजह से दिल्ली और आसपास की जमीन हिल उठी और समूचा सिख समाज आतंकवादी घोषित कर दिया गया। खुली जीप में घूमते कांग्रेसी नेता-कार्यकर्ता ‘सिख शिकार’ पर निकल पड़े थे।

चार दशक बाद भी देश के अधिकांश लोग जानना चाहते हैं कि उस रक्तिम धुंध के पीछे वास्तव में क्या हुआ था? आखिर 1 अकबर रोड ग्रुप पंजाब/खालिस्तान समस्या का क्या अंतिम समाधान चाहता था? अकाली दल के उदार नेताओं से बातचीत कर समझौते तक पहुंचने की सम्भावना को मई 1984 के आखिर तक क्यों अधर में रखा गया, जब ऑपरेशन ब्लू स्टार में कुछ ही दिन रह गए थे? आखिर कैसे, जिस रॉ के लिए सिख उग्रवाद और खालिस्तान 1979 के आखिर तक कोई मुद्दा नहीं था, वही 1980 के अंत में अचानक उससे निपटने में शामिल हो गया? आखिर क्यों स्वर्ण मंदिर परिसर से भिंडरावाले को पकड़ने के लिए सुझाए गए कम नुकसानदेह उपायों को ठुकरा दिया गया? भारत की खुफिया एजेंसी, रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के विशेष सचिव के पद से सेवानिवृत्त हुए जीबीएस सिद्धू द्वारा लिखित नई पुस्तक ‘खालिस्तान षड्यंत्र की इनसाइड स्टोरी’ इन सभी मुद्दों पर ठोस चर्चा करने का प्रयास करती है। पुस्तक में लेखक ने यह साबित करने की कोशिश की है कि इंदिरा गांधी ने सिखों को निशाना बनाने और पंजाब की राजनीति को अपनी राजनीतिक आवश्यकताओं के अनुरूप मोड़ने के लिए संदिग्ध योजनाएं तैयार करने के लिए एक ‘तीसरी एजेंसी’ बनाई थी। यह कवायद गंदी वोट-बैंक की राजनीति को उजागर करती है, जिसे राजनीतिक दल सत्ता के गलियारों तक पहुंचने की कोशिश में आधुनिक भारतीय राष्ट्र-राज्य में खुलेआम अपनाते हैं। सिद्धू खालिस्तान आंदोलन, ऑपरेशन ब्लू स्टार, 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या और उसके बाद हुई सिख-विरोधी हिंसा जैसी आपस में जुड़ी घटनाओं की समीक्षा करते हैं। 1984 से सात साल पहले से लेकर उसके एक दशक बाद के घटनाक्रम का जिक्र करती यह पुस्तक उन महत्त्वपूर्ण सवालों के जवाब देने की कोशिश करती है जो आज भी बरकरार हैं।

लेखक के विभागीय स्थानांतरण के माध्यम से कहानी पंजाब से कनाडा, अमेरिका, यूरोप और दिल्ली तक घूमती है तथा राजनीतिक भ्रमजालों एवं अवसरवाद के बीच से सच को बाहर लाने की कोशिश करती है। हजारों बेकसूर लोगों की जिंदगी को निगल जानेवाली हृदय-विदारक हिंसा और सत्ताधारी दल की ओर से कथित तौर पर निभाई गई भूमिका की छानबीन करती है। शुरुआत में लेखक स्वयं इंदिरा गांधी द्वारा प्रधान मंत्री निवास पर स्थापित एक उच्च-शक्ति समूह के सदस्य थे, पुस्तक में लेखक ने जिसका उल्लेख ‘1 अकबर रोड ग्रुप’ के रूप में किया गया है। मूल रूप से अपनी मां इंदिरा गांधी के पीछे प्रेरक शक्ति संजय गांधी द्वारा बनाए गए इस समूह का उद्देश्य एक कट्टरपंथी संत को उनके खिलाफ खड़ा करके उदारवादी अकाली दल नेतृत्व को कमजोर करना था। साथ ही पंजाबी हिंदुओं के बीच डर पैदा करने के लिए खालिस्तान का हौवा खड़ा करना, ताकि जब हिंदू असुरक्षित महसूस करें तो वे पार्टी से राजनीतिक सुरक्षा की मांग करते हुए एक समेकित वोट-बैंक के रूप में कांग्रेस के इर्द-गिर्द इकट्ठा हो जाएं। जबकि भिंडरावाले की खालिस्तान वाली मांग का कोई प्रामाणिक आधार नहीं है। पृष्ठ संख्या 94 पर सिद्धू कहते हैं कि, इंदिरा गांधी के तीसरी बार समझौते से पीछे हटने के दौरान मार्क टली ने गुरुनानक निवास में भिंडरावाले से प्रश्न किया कि, “आप स्वतंत्र सिख राज्य के रूप में खालिस्तान की मांग का समर्थन करते हैं या नहीं?” इस पर भिंडरावाले  का जवाब था, “मैं न इसके पक्ष में हूं और न ही विपक्ष में। अगर सरकार देती है तो हम इनकार नहीं करेंगे।”

लेखक के अनुसार सत्ता में बने रहने के लिए आपातकाल के असफल प्रयोग पर अपमान झेलने के बाद इंदिरा गांधी प्रतिशोध की भावना से 1980 की शुरुआत में सत्ता में लौट आईं। वह अकालियों से चिढ़ती थी, जिन्होंने उनके सत्तावादी कदम को चुनौती दी थी और उसके खिलाफ मोर्चा चलाया था। लेखक कहते हैं, इंदिरा गांधी ने गम्भीर हिंदू-सिख विभाजन पैदा करने और बहुसंख्यक समुदाय के मन में डर पैदा करने के लिए भिंडरावाले की सेवाओं का उपयोग करके 1985 में होने वाले अगले आम चुनाव को जीतने का निर्णय लिया था। ऑपरेशन-1 और ऑपरेशन-2 नामक पंजाब-केंद्रित गुप्त परियोजना को जून 1984 में ब्लू स्टार के ऑपरेशन के अंतिम झटके तक जारी रखने के लिए समय-निर्धारित किया गया था, ताकि जिस राक्षस को स्वयं बनाया, उसी को मारकर इंदिरा गांधी एक मजबूत नेता के तौर पर उभरें। उस समूह में कुछ वरिष्ठ रॉ अधिकारी भी शामिल थे। संजय गांधी की मृत्यु के बाद उनके बड़े भाई राजीव गांधी को समूह में शामिल किया गया। साथ ही, उसमें माखन लाल फोतेदार, अरुण नेहरू, अरुण सिंह और कमलनाथ भी शामिल थे।

समूह के साथ जुड़ने से पहले लेखक ने आधिकारिक तौर पर 1975 में एक गुप्त और परिष्कृत ऑपरेशन का नेतृत्व किया था। गुप्त ऑपरेशन चलाने की इतनी गहरी जानकारी के कारण उन्हें तुरंत एहसास हो गया था कि 1, अकबर रोड ग्रुप पंजाब में अशांति और हिंसा पैदा करके सिखों को एक समुदाय के रूप में निशाना बनाएगा और उन्हें बदनाम करेगा। यह उनके लिए एक अलार्म था। लेखक के शब्दों में,

…बाद में काम करते हुए मुझे इस पूरी कूट-रचना की तह में जाकर अंदर की बात जानने का मौका मिला तो मुझे आभास हुआ कि मुझे एक राजनीतिक पार्टी, एक व्यक्ति और किसी एक परिवार के हितों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, न कि पूरे देश के व्यापक हित के लिए।(पृष्ठ 13)

1980 के दशक की शुरुआत में, पंजाब में किए गए एक उच्च-स्तरीय आधिकारिक सर्वेक्षण से पता चला कि उस समय तक वहां खालिस्तान का कोई समर्थक नहीं था और सिख खालिस्तान के शुरुआती प्रस्तावक जगजीत सिंह के नाटकीय कदमों का मजाक उड़ाते थे। जीबीएस सिद्धू ने स्वयं उस सर्वेक्षण का एक गोपनीय नोट इंदिरा गांधी के प्रधान सूचना अधिकारी एचवाई शारदा प्रसाद को सौंपा। चौथे अध्याय में सिद्धू लिखते हैं कि,

10 अगस्त 1981 को इंदिरा गांधी ने नई दिल्ली में आयोजित एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा, “खालिस्तान का अस्तित्व सिर्फ कनाडा में है और शायद अमेरिका में भी; लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि हम सतर्कता नहीं बरतेंगे या किसी तरह की ढील देंगे।”

एक वरिष्ठ रॉ अधिकारी और कनाडा में भारतीय उच्चायोग के एक पद पर आसीन होने के नाते सिद्धू को पता था कि उस परियोजना के तहत सिख प्रवासियों के बीच एक विदेशी ‘खालिस्तान की अवधारणा’ को विकसित करने के लिए कनाडा में सात नए रॉ कार्यालय खोले गए थे। सिख उग्रवाद को पाकिस्तान की आईएसआई द्वारा प्रायोजित और वित्त पोषित किए जाने की अवधारणा को प्रचारित करने के लिए एक विदेशी नेटवर्क भी स्थापित किया गया था। संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय देशों में कुछ अन्य कट्टरपंथी सिखों को भी लूप में लिया गया।

वर्तमान में सिख नरसंहार को लेकर एक अफवाह चरम पर है कि, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली समेत तमाम नगरों में की गई सिख हत्याएं वास्तव में हिंदुओं द्वारा किया गया होलोकॉस्ट था। जबकि कभी किसी बड़े लेखक, यहां तक कि सिख भी, ने समूचे हिंदू समाज पर ऐसा आक्षेप नहीं लगाया। खालिस्तानी विचारधारा के वर्तमान पोषक जिन सामान्य सिखों को हिंदुओं के विरुद्ध बरगलाकर अपना उल्लू सीधा करने का उद्योग करते रहते हैं, उन्हें एक बार यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए।

1991 में उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में सिख श्रद्धालुओं से भरी बस से दस पुरुषों को पुलिस ने जंगल में ले जाकर गोली मारकर हत्या कर दी थी। उस दुखद घटना का विश्लेषण करते हुए सिद्धू लिखते हैं कि,

यूपी पुलिस के लोगों ने देखा या सुना होगा कि किस प्रकार पंजाब पुलिस के लोग ‘आतंकवादियों’ को मारकर बड़े-बड़े पुरस्कार और पदोन्नति प्राप्त कर रहे हैं।

बाद में उन सभी पुलिस वालों पर मुकदमा चला और लखनऊ की सीबीआई कोर्ट ने 20 जनवरी 2003 को आरोप तय किया और अंततः 4 अप्रैल 2016 को 47 पुलिसकर्मियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। यह फर्जी मुठभेड़ और बाद में उत्तर प्रदेश प्रशासन द्वारा की गई कार्रवाई यह साबित करती है कि 1, अकबर रोड के तात्कालिक प्रभाव वाले क्षेत्रों में कांग्रेसियों ने सिखों के प्रति दुर्भावना को बढ़ावा देकर नरसंहार करवाया। जबकि देश के अन्य भागों में हिंदू और सिखों के बीच भाईचारा यथावत बना रहा। वर्तमान परिवेश में, जबकि एक बार फिर हिंदू-सिख के बीच की खांई बढ़ रही है, इस तरह की पुस्तकें आवश्यक हो जाती हैं जो यह बताने में पूर्ण सफल होती हैं कि सामान्य हिंदू और सिख एक दूसरे के प्रति वही सद्भावना रखते हैं जो उनके बीच हमेशा से रहती आयी है। लेकिन समाज के अराजक तत्व और पश्चिमी खुराफात के पोषक उसे बर्दाश्त नहीं कर पाते।

यहां पर सिद्धू ने खालिस्तान के उदय और उसमें प्रशासन के रोल को बखूबी दर्शाया है। जाहिर सी बात है कि देश के खूफिया संगठन का प्रमुख सदस्य और सरदार स्वर्ण सिंह का दामाद होने के कारण उन्हें बहुत सारी अंदरूनी जानकारियों से रूबरू होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। शुरुआत में,  सिद्धू ने सिखों के इतिहास की एक संक्षिप्त रूपरेखा देकर शुरुआत की। उन्होंने बताया कि कनाडा कैसे सिखों का केंद्र बन गया। इसके बाद उन्होंने 1970 के दशक में पंजाब के राजनीतिक परिदृश्य की नब्ज और बाद के वर्षों में खालिस्तान के उदय की पृष्ठभूमि पर भी व्यापक प्रकाश डाला है। संकट का बीज तब बोया गया जब दमदमी टकसाल के जत्थेदार जरनैल सिंह भिंडरावाले अपनी व्यापक राजनीतिक अपील और कुख्यात सिख-निरंकारी संघर्ष (1978) में भूमिका के कारण प्रमुखता में आए।

अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा और ऑपरेशन-1 को विस्तार देने के लिए कांग्रेसी नेता ज्ञानी जैल सिंह ने भिंडरावाले को प्रोत्साहित करना शुरू किया। पुस्तक की पृष्ठ संख्या 50 पर सिद्धू ने जैल सिंह के कुचक्रों एवं कमलनाथ द्वारा भिंडरावाले को धन का सहयोग दिए जाने की कवायदों को तथ्यात्मक प्रमाणों के साथ विस्तार से स्थान दिया है। आगे पृष्ठ संख्या 53 पर लेखक लिखते हैं कि,

13 अप्रैल, 1978 को निरंकारी समागम पर हमले की घटना के बाद इस मकसद के लिए जो कट्टरवादी सिख संगठन तैयार किया गया, उसका नाम रखा गया-‘दल खालसा’। इसकी पहली बैठक चंडीगढ़ के होटल एरोमा में हुई, जिसके लिए 600 रुपए के बिल का भुगतान जैल सिंह द्वारा किया गया था।

दरबारा सिंह की जगह स्वयं को मुख्य मंत्री के पद पर देखने की लालसा में जैल सिंह 1, अकबर रोेड के कुचक्रों को सफल बनाने के लिए भिंडरावाले की महत्त्वाकांक्षा को हवा दे रहे थे। सिद्धू वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर की आत्मकथा ‘बियांड द लाइन्स, एन ऑटोबायोग्राफी’ का हवाला देते हुए कहते हैं,

नैयर आगे लिखते हैं-“उस समय उन्हें यह नहीं पता था कि वे एक फ्रैंकेंस्टीन तैयार कर रहे हैं। ज्ञानी जैल सिंह स्वयं भिंडरावाले से सम्पर्क कायम रखे हुए थे; हालांकि, राष्ट्रपति बनने के बाद वह इससे इनकार करने लगे।”

1982 में भिंडरावाले ने अकाली दल के साथ मिलकर धर्म युद्ध मोर्चा की शुरुआत की। मोर्चा का मुख्य उद्देश्य आनंदपुर साहिब प्रस्ताव को लागू करना और पंजाब को कुछ आर्थिक विकास प्रदान करना था। जब आंदोलन अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में विफल रहा, तो अकाली दल के नेताओं ने प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी से मिलने का फैसला किया। हालांकि, वार्ता विफल रही और अकाली दल के नेताओं ने आंदोलन जारी रखने का फैसला किया। उन्हें यह भी डर था कि यदि उन्होंने बिना किसी ठोस लाभ के आंदोलन वापस ले लिया, तो भिंडरावाले उनके खिलाफ हो सकते हैं और उन्हें गम्भीर राजनीतिक परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।

आगे की कहानी सर्वज्ञात है कि किस प्रकार ऑपरेशन ब्लू स्टार का क्रियान्वयन किया गया, श्रीमती गांधी की हत्या हुई और उसके परिणामस्वरूप दिल्ली और उसके आसपास का इलाका सिख होलोकॉस्ट का साक्षी बना। कुछ नेताओं ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा और चाटुकारिता के चक्कर में इसे खुलेआम प्रश्रय दिया। जगदीश टाइटलर जैसे कुछ लोगों को बाद में सजा हुई, परंतु क्या ये पर्याप्त था? जवाब नकारात्मक ही होगा। जितने भी आयोग बने, पर्याप्त निष्कर्ष तक नहीं पहुंच सके। सिख एक निर्भीक और जुझारू कौम है इसलिए उन्होंने एक बार फिर समय के साथ ताल मिलाया और  कलेजे में दबी उस नरसंहार की आग पर रेत डालकर ढंक दिया। लेकिन पिछले कुछ समय से कुछ नए उचित-अनुचित प्रश्नों के माध्यम से उस दबी हुई आग के ऊपर से रेत हटाकर हवा देने का प्रयास किया जा रहा है। जैसे कि, ऑपरेशन ब्लू स्टार तक भिंडरावाले पर कोई एफआइआर नहीं दर्ज थी, फिर कैसे इतना बड़ा और दुर्दांत ऑपरेशन किया गया? लाला जगतनारायण की हत्या के बाद भिंडरावाले को पंजाब पुलिस ने 20 सितम्बर 1981 को गिरफ्तार करके नजरबंद रखा तथा 15 अक्टूबर को रिहा कर दिया। जाहिर सी बात है, यह गिरफ्तारी बिना एफआइआर के नहीं हुई होगी। साथ ही, यदि सरकार किसी को समाज के लिए खतरा महसूस करती है और उसके विरुद्ध ऑपरेशन ब्लू स्टार जैसी योजना क्रियान्वित करती है, तो क्या उससे पहले एफआइआर किया जाना आवश्यक है? जब यह कांग्रेसी नेताओं की करतूत थी तो वर्तमान में उसे हिंदू बनाम सिख किया जाना कितना सार्थक है?

ऐसे ही कुछ प्रश्न हैं, जिनपर लेखक मौन हैं अथवा उनकी कलम ने काफी नरमी बरतने का प्रयास किया है। सिख नरसंहार के साढ़े तीन दशक से भी ज्यादा समय बाद लिखी जाने वाली प्रामाणिक पुस्तक से ऐसी अपेक्षा अवश्य की जाती है कि लेखक इन मुद्दों पर अपनी मजबूत राय रखना आवश्यक था। एक पंजाबी होने और राजनीति को नजदीक से देखने के कारण लेखक ने इस तथ्य को बखूबी चित्रित किया है कि, किस प्रकार एक राजनेता अपनी बढ़ती राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए किसी साधारण संत के इर्दगिर्द इस तरह के जाल बुनता है कि उसमें फंसकर वह हिंदुओं के खिलाफ जहर उगलना शुरू कर देता है, जिसकी परिणति ऑपरेशन ब्लू स्टार, प्रधान मंत्री की हत्या, 3350 सिखों की निर्मम हत्या(सरकारी आंकड़ा) के चार दशक बाद दोनों समुदायों के बीच दिन ब दिन बढ़ती खांई के रूप में हम सब के सामने है।

इसीलिए अंत में लेखक ने पाठकों से यह समझने की अपील की है कि धर्मनिरपेक्ष भारत में लोगों को एक-दूसरे के प्रति दया दिखानी चाहिए और अन्य धर्मों के लोगों के प्रति दुर्भावना को दूर करना चाहिए। वह एक मजबूत और एकजुट भारत लाने के लिए शांति का आह्वान करते हैं। इस प्रकार, यह पुस्तक अपने पाठकों से अपील करती है कि वे धर्म की संकीर्ण अपीलों का शिकार न बनें, बदले में सभी धर्मों के लोगों को उन लोगों को खत्म करने के लिए मिलकर काम करना चाहिए जो धर्म के नाम पर अपना घोंसला बनाना चाहते हैं। साथ ही, इस पुस्तक के माध्यम से लेखक ने सुझाव दिया है कि एक स्वस्थ भारतीय लोकतंत्र बनाने के लिए संसद के एक अधिनियम द्वारा ‘सच्चाई एवं समाधान कमीशन’ का गठन किया जाना चाहिए ताकि यह पता लगाया जा सके कि पंजाब में क्या हुआ और किसने सिख विरोधी नरसंहार का आयोजन किया। अतीत के घावों पर मरहम लगाने तथा दोनों समुदायों के बीच एक बार फिर सुलगती अविश्वास की आग को शांत करने के लिए, उन्होंने सुझाव दिया कि कॉमागाटा मारू में हुई घटना के लिए प्रधान मंत्री जस्टिन ट्रूडो और विपक्षी दलों द्वारा कनाडाई हाउस ऑफ कॉमन्स में मांगी गई माफी की तर्ज पर भारतीय संसद के संयुक्त सत्र में एक सर्वदलीय माफी मांगी जानी चाहिए। अर्थात् देर से ही सही परंतु इस दिशा में ठोस, त्वरित एवं निर्णायक कदम उठाया जाना अत्यावश्यक है।

 

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