जहां सुमति तहं सम्पति नाना…

“राधा बहू, दीवाली के पूजन की तैयारी हो गयी क्या?” अस्सी वर्षीय विनोदी लाल जी ने उत्साह से पूछा।

राधा ने उत्तर दिया “जी पिताजी! लगभग सब हो गई है।”

“बहू, तुमने मां लक्ष्मी के स्वागत में रंगोली तो बहुत ही सुंदर बनाई है। आज लक्ष्मी जी के भोग के लिए क्या बनाया है?” विनोदी लाल जी ने पूछा।

राधा बड़े प्रेम से बोली “पिताजी! गुजिया, पपड़ी, मठरी, लड्डू और नारियल की बर्फी बनाई है।”

“वाह बहू! तुम तो बहुत ही चतुर हो। मेरी बहूरानी में तो साक्षात लक्ष्मी, सरस्वती और अन्नपूर्णा का वास है। ऐसा करते हैं, पहले दीयों की पूजा कर लेते हैं।”

राधा ने थालियों में दीपक सजाए। उनमें बाती और तेल डाला। खील, बताशे, रोली-चावल आदि एक थाल में रखकर उसने अपने पति मोहन और पिताजी को दीप-पूजन के लिए बुलाया। सबने मिलकर बड़ी श्रद्धा से दीयों की पूजा की। पूजा के बाद जलते दीयों को तुलसी के पास, दरवाजों के सामने और मुंडेरों पर सजा दिया। पूरा घर बिजली की झालर और दीयों की रोशनी से जगमगा उठा था। पटाखों की आवाज से पूरा वातावरण गूंज रहा था।

इसके बाद पूरे परिवार ने अत्यंत श्रद्धा, विश्वास और विधि-विधान के साथ लक्ष्मी-गणेश का पूजन किया। दीपावली के दिन सबके मन में एक अलग ही उमंग का भाव था। पूजा के बाद राधा और मोहन ने पिताजी के चरण स्पर्श किये। पिताजी ने उन दोनों को आशीर्वाद दिया और बोले, मोहन और राधा, आज मां लक्ष्मी तुम पर बहुत दयालु हैं। मां ने मेरे कान में आकर मुझे आदेश दिया है, ‘बेटा विनोदी लाल! अपना यह घर अब अपने बहू बेटे के नाम कर दो।’

मोहन ने कहा, “इसकी क्या जरूरत है पिताजी? हम सब साथ ही तो रह रहे हैं।”

विनोदी लाल जी ने दृढ़ता से कहा “ऐसा नहीं है। इसकी बहुत जरूरत है। बेटा, उम्र के इस पड़ाव पर न जाने मुझे कब क्या हो जाए। तुम्हारी मां तो पहले ही सिधार चुकी है।”

मोहन ने कहा “पिताजी क्या जल्दी है? श्याम भैया और दोनों दीदी से पहले आप सलाह तो कर लीजिए।”

विनोदी लाल बोले “नहीं, मुझे किसी से सलाह नहीं करनी। यह मेरा मकान है और मेरा निर्णय है। श्याम को मैं उसकी पढ़ाई तथा उसके अमेरिका भेजने में बहुत खर्च कर चुका हूं। रीना और मीना को भी उनकी शादियों में मैं उनका हिस्सा दे दिया गया है। बेटा, तुमने हमारी इतनी सेवा की है तो इस घर पर बस तुम्हारा ही अधिकार है।”

मोहन ने कहा “पिताजी! आप जैसा उचित समझें।” दोनों ने पुनः पिताजी के चरण स्पर्श किये और हृदय से आभार प्रदर्शित किया। आप जब कहेंगे, तब हम कोर्ट चलेंगे।

राधा ने कहा “चलिए भोजन तैयार है।” उसने बड़े ही आदर और प्रेम से भोजन परोसा। विनोदी लाल जी ने एक-एक व्यंजन की तारीफ़ करते हुए भोजन किया। मोहन और राधा भी भोजन का स्वाद ले रहे थे। भोजन के बाद भी तीनों बहुत देर तक बात करते रहे। उस दिन विनोदी लाल जी को अपने बड़े पुत्र श्याम और रीना, मीना बेटियों की बहुत याद आ रही थी। कहने लगे, पहले सब एक साथ मिलकर दीवाली मनाते थे, तब कितना आनंद आता था। सब बच्चों के साथ तुम्हारी मां भी थी।

पुरानी यादों की बात करते-करते विनोदी लाल जी को नींद आ गई।  सुबह जब उठे तब उनकी तबीयत ठीक नहीं लग रही थी। मोहन उन्हें तुरंत ही अस्पताल लेकर गया किंतु अस्पताल पहुंचने से पहले ही उनका निधन हो गया। राधा और मोहन हतप्रभ थे। रात को तो पिताजी बिल्कुल स्वस्थ थे। अचानक उन्हें यह क्या हो गया। वे पिताजी से बहुत अधिक प्रेम करते थे। मोहन तो पिता के बिना दीन-हीन सा हो गया था। पड़ोसी आ गए थे। मोहन ने अपनी बहन रीना और मीना को तथा बड़े भैया श्याम को फोन किया। रीना और मीना अंतिम संस्कार से पहले ही पहुंच गई थीं। सारे घर में अवसाद छाया हुआ था। श्याम और उनकी पत्नी मंजुला उठावनी के दिन पहुंच पाए थे क्योंकि वे लोग अमेरिका में रहते थे और अमेरिका से आने में उन्हें समय लगा था।

सब भाई-बहन पिता की मृत्यु से अत्यंत दुखी थे। पिताजी की एक-एक वस्तु को देखकर उनके मन में यादों का सागर उमड़ रहा था। वे पिता की आत्मा की शांति हेतु सभी रीति-रिवाजों को निभा रहे थे। तीसरे दिन शाम चार बजे उठावनी का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। सभी लोगों ने श्रद्धा सुमन अर्पित किए। समाज में विनोदी लाल जी का बड़ा प्रतिष्ठित स्थान था।

उठावनी के बाद जब सब मेहमान चले गए, तब मोहन ने कहा,  भैया, यह पिताजी की अलमारी की चाबी है आप ही इसे खोल कर देख लीजिए यदि आपके उपयोग की कोई वस्तु हो तो आप ले लीजिए। श्याम की पत्नी मंजुला ने कहा ‘भैया! चाबी मुझे दीजिए ना।’

 

राधा सबके लिए चाय बना लाई। सभी चाय पीते हुए बातें कर रहे थे। तभी अचानक मंजुला बोली, भैया हम अमेरिका से बार-बार तो आ नहीं सकेंगे तो इस घर का हमारा आधा हिस्सा भी हमें दे दीजिए या तो आप मकान बेच दीजिए या फिर हमारे हिस्से की कीमत हमें दे दीजिए।

मंजुला की बात सुनकर सब आश्चर्यचकित रह गए। अभी पिताजी की मृत्यु के चार दिन भी नहीं हुए कि पिताजी के घर पर अपना हक जमाना शुरू हो गया। पिताजी की मृत्यु से दुखी रीना और मीना अवाक सी उसका मुंह देख रही थीं। मोहन को तो समझ ही नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे। अगर मकान बिक गया, तो वह बेघर हो जाएगा उसके पास इतने रुपए भी नहीं कि वह आधे मकान की कीमत दे सके। रीना श्याम से बोली “भैया! भाभी को समझाओ ना।” श्याम ने पलटकर उत्तर दिया “क्या समझाऊं उसे। ठीक ही तो कह रही है। अपना हिस्सा तो हमें लेना ही चाहिए।”

श्याम की बात सुनकर रीना और मीना ने आपस में कुछ बात की फिर बोली, “श्याम भैया यदि आप हिस्सा लेंगे तो हमें भी हमारा हिस्सा चाहिए। हम मकान बिकने नहीं देंगे। इस मकान में तीन सोने के कमरे हैं, किचन है, बैठक है, उसके अतिरिक्त लॉन है। तो आप लॉन ले लीजिए। इस तरह हम सब मकान का उपयोग कर सकेंगे। लॉन की जमीन में आप जो करना चाहें कर लीजिए।”

मंजुला बोली “नहीं! ऐसे नहीं चलेगा, हमें किसी वकील को बुला लेना चाहिए या फिर कुछ रिश्तेदारों को बुलाकर ठीक से बंटवारा करना चाहिए।”

मोहन और राधा आश्चर्य चकित से सबका मुंह देख रहे थे। उन्हें दीवाली पूजन के बाद पिताजी द्वारा कहा गया एक-एक शब्द याद आ रहा था। उनकी आंखों से आंसू की झड़ी लग गयी थी। वे पिताजी द्वारा कही गई उनकी इच्छा को सबके सामने व्यक्त भी नहीं कर पा रहे थे। बिना प्रमाण के उनकी बात का कौन यकीन करेगा? उन्होंने सब कुछ भगवान के हाथ में सौंप दिया था। मोहन ने कहा “भैया! इस शहर में पिताजी की बहुत इज्जत है। बंटवारे की बात इस तरह बाहर जाएगी तो बहुत बदनामी होगी।”

तभी श्याम ने अपनी पत्नी मंजुला को शांत करते हुए कहा “मंजुला रुको। थोड़ा सोचने दो। मोहन की बात ठीक है, घर की बात घर में ही सुलझ जाए तो अच्छा है। मुझे तो यह विचार ठीक ही लग रहा है। हम लोग यहां नहीं रहते, तो हम लॉन बेचकर रुपये ले लेंगे।”

जब सब इस निर्णय पर राजी हो गए, तब रीना और मीना आपस में बात करने लगीं, फिर बड़े आत्मविश्वास से बोलीं ‘श्याम भैया! और मंजुला भाभी, यह घर पिताजी ने बड़ी मेहनत और प्रेम से बनाया था। इस मकान में हम सबका बचपन बीता है। इस घर में माता-पिता का प्रेम है, संस्कार हैं। जिन्हें आज हम और आप भूल रहे हैं। आज हम दोनों बहनों ने एक निर्णय लिया है।”

श्याम ने कहा “बोलो, क्या चाहती हो?”

“भैया! क्योंकि पिताजी का मन था कि इस घर पर मोहन भैया एवं राधा भाभी का ही अधिकार हो। उन्होंने ही पिताजी और माताजी की आजीवन सेवा की थी। हम सब तो पिताजी से दूर ही थे। भैया-भाभी ने ही उनके भोजन, उनकी बीमारी उनकी हर बात का खयाल रखा था। भैया-भाभी से ही तो पिताजी के संसार में खुशियां थीं। हमारी शादी में भी पिताजी ने हमें बहुत कुछ दिया था। माताजी ने गहने पहले ही हम सबको दे दिए थे। आज हम दोनों यह घोषणा करते हैं कि हम अपना हिस्सा मोहन भैया को देंगे, अब इस मकान पर से हम अपना अधिकार हटाते हैं।”

“श्याम भैया! आपको भी अच्छी तरह याद होगा कि आपकी पढ़ाई के लिए भी पिताजी ने लोन लिया था, जिसे वे बहुत दिन तक चुकाते रहे थे। आपको अमेरिका भेजने में भी उनका बहुत खर्चा हुआ था। इसलिए मकान पर सच मानिए तो आपका भी कोई अधिकार नहीं है, फिर भी आप मकान में से अपना हिस्सा लेना चाहते हैं तो आप लॉन का हिस्सा ले लीजिए। पर सोचिए क्या पिताजी आपके इस निर्णय से खुश होंगे?”

बहनों का निस्वार्थ भाव देखकर श्याम का मन भी बदल गया था। उसने कुछ सोचते हुए कहा “पिताजी की इच्छा को ध्यान में रखते हुए मैं भी अपना हिस्सा मोहन को ही देना ठीक समझता हूं। मंजुला तुम्हारी क्या राय है? इस पर मंजुला ने भी अपनी सहमति दे दी।” कुबुद्धि की विनाश लीला समाप्त हो गई थी और सुबुद्धि से खुशियों का संसार जगमगा उठा था। तुलसी बाबा ठीक ही कह गए हैं- जहां सुमति तहं संपति नाना।

 

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