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वनवासियों के राम

वनवासियों के राम

by प्रमोद भार्गव
in अध्यात्म, ट्रेंडींग, देश-विदेश, राम मंदिर विशेषांक जनवरी २०२४, विशेष
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महल से वन तक के सफर में भगवान राम के साथ कई मुसीबतें आइर्ं लेकिन राम ने लंका पर विजय वनवासियों के सहारे पाई। जब एक स्त्री को रावण द्वारा ले जाते हुए देखा तो जटायु ने पुष्पक विमान पर सवार रावण पर हमला बोल दिया। जटायु के बाद वनवासी महिला शबरी ने राम को सुग्रीव के पास भेजा। राम को इस वन की यात्रा में वनवासियों का साथ किस तरह मिला आपको इस आलेख में विस्तृत जानकारी मिलेगी।

प्राचीन भारतीय संस्कृत ग्रंथों में ‘रामायण’ जनमानस में सबसे ज्यादा लोकप्रिय ग्रंथ है। भारत में सामंत और वर्तमान संवैधानिक भारतीय लोकतंत्र में राम के आदर्श मूल्य और रामराज्य की परिकल्पना प्रकट अथवा अप्रकट रूप में हमेशा मौजूद रही हैं। अतएव रामायण कालीन मूल्यों ने भारतीय जन-मानस को सबसे ज्यादा उद्वेलित किया है। इस जन-समुदाय में रामकथाओं में उल्लेखित वे सब वनवासी जातियां भी शामिल हैं, जिन्हें वानर, भालू, गिद्ध, गरुड़ भील, कोल, नाग इत्यादि कहा गया है। यह सौ प्रतिशत सच है कि ये लोग वन-पशु नहीं थे। इसके उलट वन-प्रांतों में रहने वाले ऐसे विलक्षण समुदाय थे, जिनकी निर्भरता प्रकृति पर अवलंबित थी। उस कालखंड में इनमें से अधिकांश समूह वृक्षों की शाखाओं, पर्वतों की गुफाओं या फिर पर्वत शिखरों की कंदराओं में रहते थे। ये अर्धनग्न अवस्था में रहते थे और रक्षा के लिए पत्थर और लकड़ियों का प्रयोग करते थे। इसलिए इन्हें जंगली प्राणी का संबोधन कथित सभ्य समाज करने लगा। सच्चाई यह है कि राम को मिले चौदह वर्षीय वनवास के कठिन समय में ये जंगली मान लिए गए। वनवासी समूह राम-सीता एवं लक्ष्मण के जीवन में नहीं आए होते तो राम की आज जो पहचान है, वह संभव नहीं थी। राम ने लंका पर विजय इन्हीं वनवासियों के बूते पाई। जिन वन्य-प्राणियों के नाम से इन वनवासियों को रामायण काल में चिन्हित किया गया है, संभव है,  ये लोग अपने समूहों की पहचान के लिए उपरोक्त प्राणियों के मुख के मुखौटे धारण करते हों। रांगेय राघव ने अपनी पुस्तक ‘महागाथा’ में यही अवधारणा दी है।

रामायण में वनवासियों की महिमा का प्रदर्शन बालकांड से ही आरंभ हो जाता है। राजा दशरथ के साढू अंगदेश के राजा लोमपाद हैं। संतान नहीं होने पर दशरथ, पत्नी कौशल्या से जन्मी पुत्री शांता को बाल्यावस्था में ही लोमपाद को गोद दे देते हैं। अंगदेश में जब भयंकर सूखा पड़ा, तब वनवासी ऋषि ऋष्यश्रृंग को बुलाया जाता है। ऋषि विभाण्डक के पुत्र श्रृंगी अंगदेश में पहुंचकर यज्ञ के माध्यम से वर्षा के उपाय करते हैं। अंततः मूसलाधार बारिश हो जाती है। उनकी इस अनुकंपा से प्रसन्न होकर लोमपाद अपनी दत्तक पुत्री शांता का विवाह श्रृंगी से कर देते हैं। कालांतर में जब दशरथ को अपनी तीनों रानियों कोशल्या, कैकई और सुमित्रा से कोई संतान नहीं हुई, तब दशरथ चिंतित हुए। मंत्री सुमन्त्र से ज्ञात हुआ कि श्रृंगी पुत्रेष्ठि यज्ञ में दक्ष हैं। तब मुनि वशिष्ठ से सलाह के बाद श्रृंगी ऋषि को अयोध्या आमंत्रित किया। ऋष्यश्रृंग ने यज्ञ के प्रतिफल स्वरूप जो खीर तैयार की उसे तीनों रानियों को खिलाया। तत्पश्चात कौशल्या से राम, कैकई से भरत और सुमित्रा की कोख से लक्ष्मण व शत्रुघ्न का जन्म हुआ। इस प्रसंग से यह तथ्य प्रमाणित होता है कि वनवासियों में महातपस्वी ऐसे ऋषि भी थे, जो कृत्रिम वर्षा और गर्भधारण चिकित्सा विधियों के जानकार थे।

राम को वनगमन के बाद पहला साथ निषादराज गुह का मिलता है। इलाहाबाद के पास स्थित श्रृंगवेरपुर से निषाद राज्य की सीमा शुरू होती है। निषाद को जब राम के आगमन की खबर मिलती है तो वे स्वयं राम की अगवानी के लिए पहुंचते हैं। हालांकि निषाद वनवासी नहीं है, लेकिन वे शूद्र माने जाने वाली जातियों के समूह में हैं, जिन्हें ढीमर, ढीबर, मछुआरा और बाथम कहा गया है। निषाद लोग शिल्पकार थे। उत्कृष्ट नावों और जहाजों के निर्माण में ये निपुण थे। निषाद के पास पांच सौ नौकाओं का बेड़ा उपलब्ध होने के साथ यथेष्ठ सैन्य-शक्ति भी मौजूद थी। जब राम को वापस अयोध्या ले जाने की भरत की इच्छा पर संदेह होता है तो निषाद राम-लक्ष्मण की रक्षा का भरोसा अपनी सेना के बूते जताते हैं। किंतु राम अपने भ्राता पर अटूट विश्वास करते हुए कुशंकाओं का पटाक्षेप कर देते हैं। भरत-मिलन के बाद निषाद ही अपनी नौका पर राम, लक्ष्मण और सीता को बिठाकर गंगा पार कराते हैं। शूद्रों में निषाद राज गुह ऐसे पहले व्यक्ति थे, जो राम को कौशल राज्य की सीमाओं के बाहर सुरक्षा का भरोसा देते हैं।

हालांकि राम के आगे बढ़ते जाने के साथ उनसे अत्रि, वाल्मीकि, भारद्वाज, अगस्त्य, शरभंग, सुतीक्ष्ण, माण्डकणि और मतंग ऋषि मिले। निसंदेह वनवासियों के बीच वन-खंडों में रहने वाले इन ऋषियों ने ही राम का मार्ग प्रशस्त किया। ऋषियों की जो वेधशालाएं, अग्निशालाएं और आश्रम थे, उन पर राक्षस तो आक्रमण करते हैं, लेकिन वनवासियों ने किसी ऋषि को कष्ट पहुंचाया हो, ऐसा वाल्मीकि रामायण में ही नहीं, अन्य रामायणों में भी उल्लेख नहीं मिलता। यहां प्रश्न खड़ा होता है कि ऋषि जब वन-खंडों में अपनी गतिविधियों को संचालित रखे हुए थे, तो उनका संरक्षण और सहयोग कौन कर रहे थे? उनकी वेधशालाओं में अस्त्र-शस्त्रों के शोध व निर्माण में सहयोगी कौन थे? वे उन आश्रमों में किसे शिक्षित कर रहे थे? जबकि उन आश्रमों के आस-पास ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य जातियां रह ही नहीं रही थीं? स्पष्ट है, ऋषि अनार्यों अर्थात राक्षसों से लुक-छिपकर एक तो वनवासियों के एकत्रीकरण में लगे थे, दूसरे वनवासियों को ही शिक्षित व दीक्षित कर रहे थे।

राम से पहले दक्षिण के वनांचलों में धूल छान रहे ऋषियों का वनवासियों से संघर्ष नहीं है, इससे यह संदेश स्पष्ट है कि ऋषि इन जंगलों में इन जातियों के बीच रहकर उन्हें सनातन हिंदू धर्म के सूत्र में पिरोने और उनके कल्याण में संलग्न थे। यह दृष्टिकोण इसलिए भी समीचीन है, क्योंकि इस ओर लंकाधीश रावण की निगाहें थीं और वह इन जातियों को शूर्पनखा, खर व दूषण के माध्यम से रक्ष अर्थात अनार्य संस्कृति में ढालने में लगा था। राम अनार्य संस्कृति के विस्तार में बाधा बनें, इस दृष्टि से ही अगस्त्य राम को पंचवटी में भेजते हैं और पर्ण-कुटी बनाकर वहीं रहने की सलाह देते हैं। यहीं से राम वनगमन में ऐतिहासिक मोड़ आता है। राम को जब पता चलता है कि  शूर्पनखा का पुत्र शंबूक ‘सूर्यहास-खंग‘ नामक विध्वंशक शस्त्र का निर्माण कर रहा है तो ऋषि राम लक्ष्मण को भेजकर शंबूक को मरवा देते हैं। शंबूक को इसलिए दानव या वनवासी कहा गया है, क्योंकि शूर्पनखा का विवाह दानव कालिका के पुत्र विद्युतजिव्ह से हुआ था। रावण जब दिग्विजय पर निकला था, तब उसने कालकेय दानवों के राजा अश्मनार पर हमला बोला था। विद्युतजिव्ह कालकेयों के पक्ष में लड़ा। रावण ने रणोन्मत्त होकर कालकेयों को तो परास्त किया साथ ही विद्युतजिव्ह का भी वध कर दिया।

इस समय शूर्पनखा गर्भवती थी। रावण को अपने किए पर पश्चाताप होता है। शूर्पनखा भी उसे भला-बुरा कहती है। अंततोगत्वा रावण शूर्पनखा को त्रिशिरा के साथ भेजकर दण्डकवन की अधिष्ठात्री बना देता है। इस क्षेत्र में खर और दूषण पहले से ही तैनात थे। इसी दण्डकवन क्षेत्र में राम ने पंचवटी का निर्माण किया था। पंचवटी के निर्माण पर शूर्पनखा को आपत्ति थी। इसी विरोध का परिणाम शंबूक-वध और शूर्पनखा के अंग-भंग के रूप में सामने आया। बाद में जब रावण को इन घटनाओं की खबर लगी तो वह छद्म-भेष में सीता का हरण कर ले जाता है। जटायु ने जब एक स्त्री को बलात रावण द्वारा ले जाते हुए देखा तो उसने पुष्पक विमान पर सवार रावण पर हमला बोल दिया। हालांकि जटायु मारा गया। लेकिन जटायु ऐसा पहला वनवासी था, जिसने अनभिज्ञ स्त्री सीता की प्राण रक्षा के लिए अपना बलिदान दिया था। संभवत यह पहला अवसर था, जहां से राम और वनवासी जातियों के बीच परस्पर रक्षा में आहुति देने का व्यवहार पनपा।

जटायु के बाद वनवासी महिला शबरी ने राम को सुग्रीव के पास भेजा। यहीं राम शबरी की भावना का आदर करते हुए उसके जूठे बेर भी प्रेम से खाते हैं। इस मुलाकत के दौरान वह राम को विभीषण का एक संदेश भी देती है। इस संदेश से सीता के लंका में होने की पुष्टि होती है। इन घटनाक्रमों के बाद राम और सुग्रीव की वह मित्रता है, जो राम को रावण से युद्ध का धरातल देती है। सुग्रीव वनवासियों की उपप्रजाति वानर से है। बाली सुग्रीव का सगा भाई है, जो किष्किंधा राज्य का सम्राट है। बाली ने सुग्रीव को किष्किंधा से निष्कासित कर उसकी पत्नी रूमा को भी अपनी सहचारिणी बना लिया है। बालि इतना शक्तिशाली है कि रावण भी उससे पराजित हो चुका है। इसके बाद दोनों में मित्रता कायम हुई और एक-दूसरे के सहयोगी बन गए। राम बाली की ताकत से परिचित थे। तत्पश्चात भी उन्होंने अपेक्षाकृत कमजोर सुग्रीव से मित्रता की, क्योंकि बाली शक्ति का भय दिखाकर शासन चला रहा था। इस कारण अनेक वानर किष्किंधा से पलायन कर गए थे। राम ने उदारता दिखाते हुए पहले बाली को मारा और फिर सुग्रीव को किष्किंधा के राज-सिंहासन पर बिठाया। तत्पश्चात अपने हित यानी सीता की खोज में जुट जाने की बात कही। बाली की मृत्यु और राम व सुग्रीव की मित्रता की जानकारी फैलने के बाद वे वानर किष्किंधा लौट आए, जो बाली के भय से भाग गए थे। यहीं से राम को जामवंत, हनुमान, नल, नील, अंगद, तार और सुषेण का साथ मिला। इनमें हनुमान तीक्ष्ण बुद्धि होने के साथ दुभाषिए भी थे। सीता की खोज में वानरों की मदद स्वयंप्रभा नाम की एक वनवासी तपस्विनी और गंधमादन पर्वत पर रहने वाले संपाती और उसका पुत्र सुपार्श्व भी करते हैं।

राम ने लंका पर विजय प्राप्त की। सीता को मुक्त कराया। वनवास की यात्रा पूरी होने के बाद आखिरकार राम अयोध्या लौटे। महल से वन तक की उनकी चौदह सालों की लम्बी यात्रा वनवासियों के बिना अधूरी थी।

 

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