रामराज्य की संकल्पना

‘दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज नहिं काहुहि ब्यापा’ श्रीराम आदर्श पुरुष थे। राम राज्य में न कोई अल्पायु था और न वहां की प्रजा दरिद्र ही थी। सभी प्राणियों में संतोष का भाव था। एक सुंदर और नीतिगत जीवन, आदर्श व्यवहार, धर्म की रक्षा, राजा और प्रजा दोनों करते थे।

सनातन धर्म की मूलभूत मानवीय अवधारणाओं पर एक विहंगम दृष्टि डालने पर यह तथ्य सहज ही समझ में आता है कि धर्म के पालन में चरित्र ही मोक्ष के मार्ग का प्रमुख स्तम्भ है जो समस्त प्राणियों के अंतिम लक्ष्य का निर्धारण करता है। इस आधार पर ही सभी मनुष्यों के उत्कर्ष की परिसीमा निश्चित है। लोककल्याण तथा लोक आराधना पर समर्पित राज्यकर्ता ही रामराज्य के परिपोषक हैं।

यह नियमबद्धता प्रकृति, ॠषियों, देवताओं, राजाओं, मनुष्यों व अन्य प्राणियों पर पर भी समभाव से प्रभावी प्रतीत होती है तथा इसमें निहित कसौटी ही आदर्श व्यवहार के मूलमंत्र तथा विश्व शांति की प्रथम परिभाषा है। देवभूमि भारत में अनेक शासकों ने सचरित्रता़ का सम्मान कर धर्म की रक्षा की है। धर्मराज युधिष्ठिर, राजा भरत, वैवस्वत मनु, राजा हरिश्चंद्र, कुरु के राज्य में सामाजिक उत्थान जैसे एक प्रकल्प था। सभी प्राणियों में संतोष का भाव ही इसकी पराकाष्ठा है। भारतीय प्रशासन तत्समय वर्तमान पाकिस्तान, उज्बेकिस्तान,ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान तक विस्तृत था। राजा दशरथ के पुत्र श्रीराम के राज्य में आदर्श व्यवस्था के आयाम अपने चारों चरणों, सत्य, शौच, दया तथा ज्ञान में परिपूर्ण थे। रामराज्य में दंड केवल संन्यासियों के हाथ में थे।तत्समय के प्रबंधन के बारे में तुलसीदास कहते हैं।

‘देहिक दैविक भौतिक तापा,

रामराज नहीं कहुई व्यापा’

राजा के चरित्र का प्रभाव प्रकृति पर भी पड़ता है, जैसे रामराज्य में कोई भी न तो अल्पायु था और ना ही वहां कोई दरिद्र था। स्त्री-पुरुष अपने दाम्पत्य व्यवहार के साथ अपने सामजिक तथा व्यक्तिगत व्यवहार को मनवचन से निभाते थे। समुद्र भी किनारे तक स्वयं मोतियों को बिखेरते थे। प्रत्येक कालखंड में ऐसे ही जीवन का स्वप्न राजा तथा प्रजा दोनों को था।

रामराज्य की संकल्पना में शासकों का निष्काम तथा अनासक्त होना एक महती आवश्यकता है, उनकी कर्त्तव्य परायणता पर प्रश्न चिन्ह लगना ही दोष है। तुलसीदास द्वारा रचित रामायण के अनुरूप ‘रमानाथ जह राजा सौ पुर बरनी की जाई, अनिमादिक सुख संपदा रही अवध छाही’॥

रामराज्य में राजा राम में अधिनायक छवि छायामात्र भी नहीं थी। निस्वार्थ, आदर्श न्याय व्यवस्था के साथ लोकहित के आधार पर प्रजा की सेवा करना ही प्रमुख धर्म था। इसकी प्रतिछाया भारत के अलावा सुदूर रुस तथा तिब्बत तक थी। रशियन भाषाविद् अस्लेई ब्रनिकोव भी इसे अपने आलेखों में प्रमाणित करते हैं।

सनातन हिन्दू संस्कृति के अनुरूप अयोध्या नरेश श्रीरामचंद्र द्वारा किया गया आदर्श शासन रामराज्य के नाम से विश्व में प्रचलित है। वर्तमान संदर्भो में इसका प्रयोग एक आदर्श शासन तथा लोकतंत्र का परिमार्जित रूप होना चाहिए।

‘वसुधैव कुटुंम्बकम’ में निहित विश्वमंगल की धारणा ही इसका वर्तमान आदर्श रूप हो सकता है। कुछ विद्वानों के अनुसार सुशासन की परिकल्पना ही उसके शास्त्र के अनुरूप होने से है, लेकिन यह व्यवहारिक तथा सामयिक भी होना चाहिए। इस सम्बन्ध में संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों हेतु आदर्श नागरिक संहिता के सन्दर्भ 41 तथा 54 के अनुसार कुछ सामाजिक नियमों का विवेचन संदर्भित है। जिसमें विधि का शासन, सामाजिक सद्भाव, हिस्सेदारी, पारदर्शिता, संवेदनशीलता, सामाजिक तथा व्यक्तिगत जिम्मेदारी, बहुमत तथा प्रभावशीलता है। अतःइसके  समकक्ष व्यवस्था को हम भारतीय संदर्भो में राम राज्य ही कह सकते है। बल्देवप्रसाद मिश्रा के रामराज्य के आलेख भी यही समझाते हैं। सामंतवाद के पतन और विदेशी आक्रमणों ने सनातन प्रबंध व्यवस्था छिन्नभिन्न करने का एक प्रयोग भी निरंतर क्रियाशील है, लेकिन इस कार्य प्रणाली को तुलसीदास ने अक्षम्य पाप की श्रेणी में रखा है-

‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी सोई नृप आवसी नरक अधिकारी’ ऋषि वाल्मीकि ने भी बालकाण्ड में  ब्रम्हर्षि नारद से  संवाद में कहा है

‘निरामाया विशोकाश्च रमे राज्यं

प्रशासति सर्वे मुदित मेवासित’

ऐसे आलेख से रामराज्य की परिकल्पना को सर्वसम्मत  कर आधुनिक युग के लिए भी निर्देश दिए हैं।

रामराज्य एक प्रजातंत्रात्मक व्यवस्था है। जिसमें किसी भी प्रकार के शोषण आधारित अत्याचार हेतु कोई स्थान नहीं है और यह स्वान्तःसुखाय न होकर परम लोकहित की अवधारणा पर आधारित है। वर्तमान समय में रामराज्य में निहित नीतियों की गहन आवश्यकता है जो ऐतिहासिक न होकर वर्तमान की तथा विश्व के सूदूर उज्वल भविष्य का आधार हो सकता है। वर्तमान परिदृश्य में युद्ध, आयुध विक्रेता हेतु आयोजित युद्ध तथा विदेशी भूमि अधिग्रहण की नीतियां तथा अनैतिक व्यवहार अपने चरम पर हैं तथा केवल भारत ही एक मात्र देश है जो इसके विरुद्ध विश्वबंधुत्व भाव से समर्पित है। इसमें सब को साथ लेकर चलने की आदर्श प्रतिबद्धता के साथ अन्य देशों को भी प्रभावी संतुलन के साथ क्रियाशील करने की आवश्यकता है तभी सम्पूर्ण विश्व में रामराज्य स्थापित होकर आमजन शान्ति से रह सकेंगे तथा नैतिक उत्कर्ष के नए आयाम छूएंगे।

रामराज्य में देवी अहिल्या की मुक्ति, माता शबरी के सम्मान के साथ अयोध्या से धनुषकोटी के रास्ते में अनेकों का कल्याण कर गिलहरी से लेकर मारीच तथा शूर्पनखा तक को भी न्याय प्रदान किया गया जो पवित्रता, मर्यादा, नैतिकता, धर्म तथा आदर्श व्यवहार की अविस्मरणीय गाथा है। वर्तमान विश्व के परिदृश में भी रामराज्य की परिकल्पना व्यवहारिक होकर विश्व शांति का एकमात्र मार्ग है।

                                                                                                                                                                                        श्यामकांत देशपांडे

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