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विपक्ष का छूटता जनाधार

विपक्ष का छूटता जनाधार

by pallavi anwekar
in फरवरी २०२४, विशेष, संपादकीय, सामाजिक
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इस वर्ष अप्रैल-मई में लोकसभा के चुनाव होना तय है। लोकसभा चुनावों के परिप्रेक्ष्य में अगर वर्तमान परिस्थिति को देखें तो नरेंद्र मोदी और भाजपा का पलड़ा ही भारी दिखाई देता है। इनका पलड़ा भारी होने के कुछ कारण इनके सुकर्म हैं और कुछ विपक्षियों के कुकर्म हैं।

पिछले 10 सालों में एक ओर नरेंद्र मोदी सरकार धारा 370 को खत्म कर रही थी। सर्जिकल स्ट्राइक करवा रही थी। अंतरिक्ष में अपने झंडे गाड़ रही थी। सेना को मजबूत करने के लिए राफेल जैसे विमान ले रही थी। यातायात को सुचारू बना रही थी। आतंकवाद पर नकेल कस रही थी। पड़ोसी देशों को सुरक्षा की गारंटी दे रही थी। कोरोना में वैक्सीन का न सिर्फ निर्माण अपितु निर्यात कर रही थी। भारत को पांच ट्रिलियन इकॉनॉमी की ओर ले जा रही थी। काला धन जप्त कर रही थी और सबसे महत्वपूर्ण कार्य, भारतीय जनमानस के हृदय में बसने वाले राम के लिए भव्य राम मंदिर का निर्माण रही थी। दूसरी ओर विपक्ष प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को अपशब्द कहने, उन पर टीका टिप्पणी करने, राष्ट्रहित में किए जा रहे सकारात्मक कार्यों में उनका स्वार्थ ढूंढ़ने, सेना की कार्यवाही के सबूत मांगने में लीन था।

किसी भी देश का नेतृत्व करने के लिए उस देश के जनमानस का दिल जीतना होता है, उसे विश्वास दिलाना होता है कि अगर नेतृत्व की कमान उनके हाथों में दी जाएगी तो वे विकास के नए आयामों को छूएंगे। यह विश्वास कोरी बातों पर नहीं होता अपितु जब उनका व्यावहारिक क्रियान्वयन होता है तब होता है। नरेंद्र मोदी की बातें अब जनता को केवल बातें नहीं लगती अपितु एक वादा, एक निश्चय लगता है। पिछले 10 सालों में उन्होंने जो कहा लगभग हर बात को पूरा किया।

इसके विपरीत विपक्ष के किसी नेता, किसी पार्टी ने इन 10 वर्षों में कोई उल्लेखनीय कार्य किया हो, ऐसा दिखाई नहीं देता। जिन राज्यों में भाजपा की सरकार नहीं थी, जरा उन राज्यों का विचार कीजिए। योगी आदित्यनाथ के पहले उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी, उसके पहले बहुजन समाजवादी पार्टी की सरकार थी। तब के उत्तर प्रदेश और आज के वर्तमान उत्तर प्रदेश की तुलना ही नहीं की जा सकती। गुंडाराज के रूप में उत्तर प्रदेश प्रसिद्ध था। भाजपा या योगी उत्तर प्रदेश में चुनाव न जीत पाएं इसके लिए अखिलेश यादव और मायावती ने धुर विरोधी होकर भी एक साथ लड़ने की इच्छा जताई परंतु पिछड़ेपन, गुंडागर्दी से जनता इतनी परेशान थी कि उन्होंने दोनों का त्याग कर योगी को चुना। ‘एक संन्यासी कैसे सरकार चलाएगा?’ इस प्रश्न का उत्तर आज कोई नहीं मांगता।

नितीश कुमार के बिहार में भी इससे अलग स्थिति नहीं है। बाहुबली नेताओं की मिलीभगत का शिकार राज्य, न अगली पीढ़ी के लिए कारखाने लगवा रहा है, न ही उद्योग धंधों के कुछ साधन खड़े कर पा रहा है। रोजी-रोटी के लिए पलायन करना वहां के युवाओं के लिए एक मात्र रास्ता बचता है।

ममता बनर्जी बंगाल में जिस कम्युनिस्ट पार्टी को हटाकर मुख्य मंत्री बनी थीं, आज उन्हीं के पदचिन्हों पर चलती दिखाई दे रही हैं। 2 टर्म से मुख्य मंत्री होने के बावजूद भी ममता ने बंगाल में कोई ऐसा अद्भुत कार्य नहीं किया। वे चाहती तो बंगाल में आमूलचूल परिवर्तन कर सकती थीं क्योंकि वे बंगाल की नब्ज पहचानने का दावा करती हैं परंतु दुर्भाग्य से ऐसा कुछ हुआ नहीं।

राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कुछ समय पूर्व तक कांग्रेस का राज था। भाजपा को नीचा दिखाने के लिए ही सही अगर कांग्रेस इन दोनों राज्यों का कायापलट कर देती तो उसे अभी हुए विधानसभा चुनावों में मुंह की न खानी पड़ती परंतु कांग्रेस के शीर्ष स्थान पर बैठे लोग राजस्थान में पायलट-गहलोत विवाद मिटाने और छत्तीगढ़ में महादेव एप को ‘अनइंस्टाल’ करने में इतना उलझे रहे कि उन्हें वहां की जनता क्या चाहती है, यह समझने का समय ही नहीं मिला।

कांग्रेस को छोड़कर बाकी सभी पार्टियां क्षेत्रीय सीमा तक ही सीमित हैं परंतु उनके प्रमुखों और प्रमुखों के चमचों को लगता है कि वे प्रधान मंत्री बन सकते हैं। इन सभी के प्रधान मंत्री बनने के बीच का सबसे बडा रोड़ा हैं वर्तमान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा। इस रोड़े को हटाने के लिए सबने मिलकर ‘इंडिया’ बनाया परंतु उसका हश्र कुछ ही दिन में दिखाई दे गया।

जिस कांग्रेस को भाजपा की प्रमुख विपक्षी पार्टी माना जाता है, उसके अगुवाओं ने तो जैसे हथियार ही डाल दिए हैं। चुनावों से पहले जनेऊ पहनकर हिंदू होने का दिखावा करने वालों ने राम मंदिर के उद्घाटन में जाने से भी मना कर दिया। क्या वे नहीं देख रहे थे कि जनता राम मंदिर को लेकर कितनी उत्साहित है? क्या वे मंदिर से जुड़ी जनभावना को नहीं समझ पा रहे थे? क्या वे वही गलती नहीं दोहरा रहे थे जो पं. जवाहरलाल नेहरू ने सोमनाथ के समय की थी? सोनिया गांधी मूलत: भारतीय नहीं हैं। उनका यहां की संस्कृति से न जुड़ पाना स्वाभाविक है, परंतु क्या कांग्रेस के अन्य नेता भी यह समझ नहीं पाए या फिर सोनिया गांधी के सामने वे इतने नतमस्तक हो गए हैं कि उन्होंने विचार करना ही बंद कर दिया है। कारण जो भी हो, देश की जनता यह देख रही है कि किस तरह विपक्ष केवल राजनैतिक ईर्ष्या के चलते राम मंदिर जैसे पवित्र और देश के स्पंदन से जुड़े आयोजन का बहिष्कार कर रहा था।

अत: अगर विपक्ष को भाजपा और नरेंद्र मोदी को वास्तव में कड़ी टक्कर देनी है तो उसे ध्यान देना होगा कि कहीं इस राजनैतिक ईर्ष्या में वे धीरे-धीरे जनाधार के सारे मुद्दे न खो दे।

 

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