वेलेंटाइन डे का केवल विरोध करने से बात नही बनेगी। हमें युवाओं के समक्ष कुछ बेहतरीन विकल्प भी देने होंगे और इसका तर्कसंगत अर्थ व महत्व भी बताना होगा तब जाकर युवा जागृत होंगे और समाज में सकारात्मक बदलाव आएगा।
14फरवरी को बसंत पंचमी है। इस दिन विद्या की देवी मां सरस्वती का पूजन किया जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन बसंत ऋतु का प्रारंभ होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में कहा है- मैं ऋतुओं में बसंत हूं। बसंत ऋतु के आगमन पर वृक्षों से पुराने पत्ते झड़ जाते हैं और नए पत्ते आने प्रारंभ होते हैं। ये नवजीवन का संदेश देता है। ऐसी मान्यता है कि बसंत पंचमी के दिन ही भगवान रामचंद्र माता शबरी के आश्रम में गए थे जबकि वेलेंटाइन का ऐसा कोई धार्मिक आध्यात्मिक महत्व नहीं है।
विडंबना देखिए कि जिस देश में राधा और मीरा का कान्हा के प्रति निर्मल प्रेम और समर्पण हो। भक्ति की ऐसी पवित्र कथा जिस देश के कण-कण में समाहित हो। आज उस देश में प्रेम की अभिव्यक्ति तोहफों और बाजारवाद की मोहताज हो कर रह गई है। उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि एक समाज के रूप में पश्चिमी अंधानुकरण के चलते हम विषय की गहराई में उतर कर चीजों को भारतीय परिप्रेक्ष्य में उसकी उपयोगिता नहीं देखते। सामाजिक परिपक्वता दिखाने के बजाए कथित आधुनिकता के नाम पर बाजारवाद का शिकार होकर अपनी सदियों पुरानी संस्कृति को धूमिल कर अपनी मानसिक गुलामी को ही प्रदर्शित करते हैं। आज के युवा को यह समझना होगा कि वह वैलेंटाइन डे को आखिर क्यों मनाएं?
आज भारत जैसे देश में बसंतोत्सव की जगह वैलेंटाइन डे ने ले ली है, यह काफी दुःखद है। यह तो हमें ही समझना होगा कि हम केवल बसंतोत्सव से नहीं प्रकृति से भी दूर हो गए। जिसके गम्भीर परिणाम आए दिन देखने को मिलते हैं। हम केवल प्रकृति ही नहीं अपनी संस्कृति से भी दूर हो रहे हैं। हमने केवल वैलेंटाइन डे नहीं अपनाया है, बल्कि बाजारवाद और उपभोगतावाद भी अपना लिया। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हम मल्टीनेशनल कंपनियों के हाथों की कठपुतली बन कर खुद अपनी संस्कृति के विनाशक बन रहे है। जब हम अपने देश के त्योहारों को छोड़कर प्यार जताने के लिए वैलेंटाइन डे जैसे दिन को मनाते हैं, जबकि प्रकृति ने हमें ऐसे अनगिनत उपहार दिए हैं, जिनके माध्यम से हम अपना प्रेम प्रदर्शित कर सकते हैं।
पश्चिमी संस्कृति और भौतिकतावाद के बढ़ते चलन में हम अपनी पुरातन संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। इसी का परिणाम है कि इस देश के युवा वर्ग महान भारतीय संस्कृति को भूलकर वैलेंटाइन्स डे जैसी पाश्चात्य संस्कृति की तरफ आकर्षित हो चले हैं। पश्चिमी संस्कृति के बढ़ते मोह के चलते वैदिक परंपराएं भी विलुप्त होने की कगार पर हैं लेकिन अब भारत सरकार देश के नागरिकों से एक नई पहल की शुरुआत करने को कह रही है। जिसके तहत भारत सरकार के मत्स्य, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय के पशु कल्याण बोर्ड की ओर से एक अपील की गई है कि इस वेलेंटाइन डे को गाय के साथ बिताएं।
देश के सरकारी पशु कल्याण विभाग ने भारत की परंपराओं को एक नया उत्सव ‘काउ हग डे’ के रूप में 14 फरवरी को देशवासियों से मनाने की अपील की है। यूं तो हम सब जानते हैं कि गाय भारतीय संस्कृति और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। गाय को हम माता की तरह पूजनीय मानते हैं। गाय पशुधन और जैव विविधता का प्रतिनिधित्व करती है। गाय में मां के समान पोषक प्रकृति होती है इसीलिए इसे कामधेनु और गौमाता के नाम से जाना जाता है। हिंदू धर्म में गाय को पवित्र ओर पूजनीय माना जाता है। इतना ही नहीं पशु कल्याण विभाग मवेशियों को भारतीय संस्कृति की रीढ़ मानता है। गाय को गले लगाने से भावनात्मक समृद्धि आएगी और हमारी व्यक्तिगत और सामूहिक खुशी बढ़ेगी।
देखा जाए तो ‘वैलेंटाइन डे’ पश्चिमी संस्कृति के प्रचार-प्रसार और अमर्यादित व्यवहार के प्रति युवाओं को प्रेरित करता है। अब ये रीति-रिवाज भारत में भी अपनी जड़ें जमा रहा है। उपभोक्तावादी प्रकृति ने इसे बढ़ावा देने का काम किया है जबकि भारत में हर त्योहार के पीछे वैज्ञानिक महत्व होता है। प्रत्येक ऋतु में तीज त्योहार का प्रकृति के साथ जुड़ाव होता है। हमारे ऋषि-मुनियों ने शास्त्रों में लिखा है कि प्रत्येक पर्व को कैसे मनाया जाए एवं इसके शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक लाभ क्या हैं? वैलेंटाइन डे पश्चिमी सभ्यता की देन है, जो आज के युवाओं को भटकाने का काम कर रहा है।
सोनम लववंशी