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मोबाइल से दूरी क्यों है जरूरी!

मोबाइल से दूरी क्यों है जरूरी!

by डॉ. नीतू गोस्वामी
in जीवन, ट्रेंडींग, तकनीक, फरवरी-२०१४, विशेष, सामाजिक
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अधिकतर शहरों में हर माता-पिता की यह शिकायत रहती है कि उनके बच्चें ज्यादा समय मोबाइल से ही चिपके पड़े रहते हैं। वे हमसे बात तक नहीं करते, अपनी अलग ही दुनिया में खोए रहते हैं। यदि आपकी भी कुछ ऐसी ही समस्या है तो यह लेख आपके लिए ही है –

वर्तमान युग गैजेट्स का युग है। आज हमारी दुनिया तमाम गैजेट से भरी पड़ी है, फिर चाहे वह उनका उपयोग कार्य करने के लिए करें अथवा मनोरंजन करने के लिए। इन इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स ने दुनिया की जीवन शैली, कार्य करने के तौर तरीकों, मनोरंजन की शैलियों को बदलकर रख दिया है। आज का अधिकांश युवा वर्ग एवं बच्चे प्रतिदिन औसतन 6 घंटे किसी न किसी प्रकार के इलेक्ट्रॉनिक गैजेट से जुड़े रहते हैं। कोरोना के बाद से तो इस स्थिति में और भी बढ़ोत्तरी हुई है। इन गैजेट्स के जहां फायदे हैं, वहीं नुकसान भी हैं और युवा वर्ग व बच्चों के हितों कि यदि बात करें तो इसके नुकसान ज्यादा हैं।

बच्चों में मानसिक दबाव का बढ़ना, स्मृति शक्ति का क्षीण होना, सामाजिक सरोकार कम होना, चिड़चिड़ापन होना, निर्णय क्षमता में कमी, इम्युनिटी पावर कम होना, संवादहीनता, दृष्टि विकार होना आदि दुष्परिणाम हम सहज रूप से देख सकते हैं।

आज के बच्चों ने शायद पुराने समय के खेलों के नाम भी ना सुने होंगे। पहले जब बच्चे मिलकर चोर सिपाही, आंख मिचौनी, दुबका-दुबकी, कील-कील कांटी, चूहा भाग बिल्ली आई, कबड्डी जैसे खेलों को खेलते थे तब न केवल उनका तन स्वस्थ रहता था वरन मन भी प्रसन्न और स्वस्थ रहता था। इन खेलों में लोक भावना जुड़ी रहती थी। बच्चों के साथ उनकी माताओं में भी परस्पर संवाद और मित्रता पनपती थी किंतु आज ऐसा देखने को नहीं मिलता।

आज माताएं छोटा बालक यदि किसी कारणवश रोता है तो उसे चुप कराने या व्यस्त करने के भाव से स्मार्टफोन उनके हाथों में थमा देती है, बिना यह सोचे समझे कि यह उस बालक के लिए हितकर नहीं है। बालक एक बार रोया या जिद की तो उसे गैजेट थमा दिया गया। तब वह बार-बार यही प्रतिक्रिया दोहराता है और माता-पिता भी वहीं प्रतिक्रिया दोहराते हैं। परिणाम स्वरुप बालक धीरे-धीरे गैजेट्स का आदि हो चुका होता है, जिसके कारण उसमें एकाकी प्रवृत्ति पनपने लगती है। वह समाज से कटने लगता है। उसकी मानसिक क्षमता दुर्बल होने लगती है और कई बार तो वह कुछ असंगत गतिविधियों में लिप्त हो जाता है, जिसके कारण अवसाद ग्रस्त होने लगता है। इस अवसाद से उसके भविष्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

समाज में युवा पीढ़ी या कम उम्र के बच्चों के जीवन को अवसाद मुक्त रखना भी आज के लिए एक चुनौती पूर्ण कार्य हो चुका है। अधिकांश यह देखा जा रहा है कि अन्य बीमारियों की तुलना में डिप्रेशन, एंजायटी जैसी समस्याओं से लोग अत्यधिक ग्रसित हैं। यूनिसेफ के मुताबिक गैजेट्स का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल बच्चों में कई तरह की बीमारियों को जन्म देता है। इससे बच्चों के कंधे और गर्दन में दर्द, मांसपेशियों में सूजन हो सकती है।

बच्चे सबसे ज्यादा स्क्रीन वाले गेजेट्स जैसे टीवी, मोबाइल, लैपटॉप, टैबलेट आदि के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। यही वजह है कि बच्चे बहुत कम उम्र में ही कई तरह की शारीरिक और मानसिक समस्याओं से घिरने लगे हैं। ऐसे में बच्चों के साथ भावात्मक रिश्तों को मजबूत करना परम आवश्यक हो गया है क्योंकि बच्चों को गैजेट की नहीं आपकी जरूरत है।

इस धरती पर जीवन के लिए प्रकृति तत्वों के अतिरिक्त कुछ और आवश्यक है तो वह प्रेम है। हम बिना प्रेम के जीवन की कल्पना नहीं कर सकते और यह जीवन के प्रत्येक चरण तो क्या प्रत्येक पल के लिए आवश्यक है। उदाहरण के लिए छोटा बच्चा अचानक से यदि किसी कारणवश गिर जाए तो मां उस वस्तु को डांटती है जिसके कारण बालक गिरा और बालक से प्रेम करती है, उसे पुचकारती है, दुलारती है। बालक उस भावना को समझते हुए अपनी चोट भूल कर शांत हो जाता है क्योंकि उसे प्रेम और सहानुभूति प्राप्त हो जाती है। यही स्थिति किशोरावस्था में भी होती है। वह उस समय भी चाहता है कि कोई उसे प्यार करें, उसके साथ सहानुभूति रखें, उसका ख्याल रखें, आत्मीयता को प्रकट करें और ऐसे में जब माता-पिता अपने-अपने कार्यों में व्यस्त हो जाते हैं तो उनका इस ओर ध्यान नहीं जा पाता कि बालक मन स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहा है। धीरे-धीरे माता-पिता के साथ बालक एक दूरी अनुभव करते हुए आधुनिक उपकरणों के साथ अपना समय बीताता है। यह समय बिताना ही उसके लिए इसका आदी हो जाना है, जो उसके लिए किसी भी स्थिति में हितकर नहीं होता। हमें आधुनिकता तो अपनानी चाहिए, उसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन मानवीय संवेदनाओं से दूर हो जाना कतई ठीक नहीं है।

वर्तमान प्रौद्योगिकी युग में यह इलेक्ट्रॉनिक यंत्र मनुष्य को मानवीय संवेदनाओं से रहित करते जा रहे हैं। हम संवेदनहीनता की कितनी ही कहानी पढ़ते हैं जो वर्तमान युग की सच्चाई है, पर इसको बदलने की कोशिश नहीं करते। जरूरत है तकनीकी उपकरणों का प्रयोग और मानवीय संवेदनाओं के बीच उचित तालमेल बिठाकर आगे बढ़ने की। बच्चों के लिए भूख, प्यास, प्रेम और सहानुभूति की पूर्ति को प्राथमिकता देना माता-पिता का प्रथम कर्तव्य है और उचित शिक्षा संस्कार देकर समाज योग्य बनाना दूसरा। इसके लिए आधुनिक माता-पिता को अपने बुजुर्गों से यह अवश्य सीखना चाहिए की संतान को प्रेमबद्ध करके कैसे संस्कारवान बनाया जाए। उन्हें इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि बच्चों को आपकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है। आप यदि बालक के साथ सहानुभूति पूर्ण मित्रवत व्यवहार करें तो वह आपके साथ सहज होकर अच्छा व्यवहार व आचरण करता है। तब आप उसका उचित मार्गदर्शन कर सकते है लेकिन अगर बच्चा आपसे डरा सहमा रहेगा या स्वयं को अलग-थलग अनुभव करेगा तो नि:संदेह वह आपसे दूरी बना लेगा, जिसके कारण उसका जीवन अनेक संकटों से ग्रसित हो सकता है। बाल मन को कोरा कागज कहा गया है। उस पर आप जैसा चाहे वैसा अंकित कर सकते हैं। निर्णय आपका है आप बालक को प्यार देंगे, दुलार देंगे, संस्कार देंगे या गैजेट देकर एकाकीपन, अवसाद युक्त जीवन प्रदान करेंगे।

 

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