मां, माटी और मानुष की हत्या

बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी के मुस्लिम तुष्टिकरण का दुष्परिणाम वहां के मूलनिवासियों को भुगतना पड़ रहा हैं। वही बांग्लादेशी-रोहिंग्या घुसपैठ से वहां की डेमोग्राफी चेंज होने लगी है। संदेशखाली में हुई अमानवीय वारदातें ममता की निर्ममता का प्रमाण हैं।

ममता का मतलब होता है प्रेम, स्नेह, दया और आत्मीयता। ममता हर मां के हृदय में होती है। बहन के प्यार में होती है और ममता बेटी के दुलार में होती है, लेकिन ये ममता नहीं ये तो क्रूरता है। जहां अपनी ही बहन बेटियों की लाज को सरेआम नीलाम किया जा रहा है। लेकिन जब सूबे की मुख्यमंत्री आंख मूंदकर तमाशबीन बन जाए तो फिर उस राज्य की स्थिति को  समझा जा सकता है।

एक वक्त था जब ममता बनर्जी ने कहा कि मां, माटी और मानुष लोकतंत्र की सम्पदा है, लेकिन दुर्भाग्य देखिए उनके शासनकाल में ही सबकुछ उसके विपरीत हो रहा है। आज पश्चिम बंगाल में ‘मां’ रो रही है, ‘माटी’ रक्तरंजित है और ‘मानुष’ की लगातार हत्या हो रही है। इसके बावजूद ममता बनर्जी की सरकार है, जो सिर्फ बड़े-बड़े उद्बबोधन देने और विपक्ष को बदनाम करने को ही अपनी जिम्मेदारी समझ बैठी है। राजनीतिक हिंसा, पश्चिम बंगाल का घिनौना सच है, तो दूसरी ओर अब बहन-बेटियां और आम नागरिक भी इससे अछूते नहीं हैं। सत्तारूढ़ ममता सरकार अपनी मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के चलते किसी भी हद तक जाने को तैयार है और उसकी कीमत कहीं न कहीं वहां की जनता को चुकानी पड़ रही है।

अभी हाल ही में संदेशखाली में महिलाओं के साथ जिस तरह से अमानवीय व्यवहार हुआ, उसने पश्चिम बंगाल की राजनीति को कलंकित करने का काम किया है। उत्तरी 24 परगना जिले के गांव संदेशखाली में पुलिस किलेबंदी के बाद से चुप्पी छाई हुई है। इस गांव में राज्य की सरकार ने बीजेपी कार्यकर्ताओं की एंट्री को बंद कर दिया, जिससे कि गांव की वास्तविक स्थिति बाहर न आ सके। यहां तक कि मीडियाकर्मियों को भी गांव जाने से रोका गया। कुछ मीडिया रिपोर्टस की मानें तो संदेशखाली में महिलाओं का शारीरिक उत्पीड़न और रेप की कई वारदातें हुईं। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की रिपोर्ट में भी जमीन पर अवैध अधिकार और महिलाओं के साथ उत्पीड़न की चर्चा की गई है। संदेशखाली में 2011 से महिलाओं का शोषण किया जा रहा है। जब ये पीड़ा असहनीय हो गई तो कुछ महिलाओं ने इसके विरुद्ध आवाज उठानी चाही, लेकिन राज्य की एक महिला के मुख्य मंत्री होते हुए भी पीड़ित महिलाओं की आवाज को दबाने की ओछी राजनीति की जा रही है। कुछ राजनीतिक संगठनों ने महिलाओं के दर्द को जानने की कोशिश की तो उन्हें पुलिस प्रशासन द्वारा रोका गया। स्थिति ये हो गई कि अपने ही राज्य की बहन- बेटियों का दर्द जानने के लिए कोर्ट से अनुमति मांगनी पड़ी। तब जाकर उन महिलाओं का दर्द समाज के सामने आ सका। कोर्ट ने भी इस घटना पर दुःख व्यक्त किया है।

पश्चिम बंगाल में आए दिन हिंसा होती रहती है। बांग्लादेशी-रोहिंग्या घुसपैठियों ने पश्चिम बंगाल की माटी पर अधिकार जमा लिया है और संदेशखाली में जो महिलाओं के साथ अन्याय हो रहा है, उसने ममता सरकार की खोखली नीतियों और उनकी मां, माटी और मानुष के प्रति नियत की कलई खोलकर रख दी है। ममता बनर्जी की सरकार में हिंसा की सूची बहुत लंबी है, लेकिन लोकतंत्र और संविधान की दुहाई सिर्फ बयानों तक सीमित है। हिंसा की आग में राज्य को झोंककर ममता बनर्जी अपना राजनीतिक हित टटोल रहीं हैं। ऐसा कहना कतई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ममता राज अब निर्ममता का राज बन चुका है। जहां न तो संवैधानिक मूल्यों का कोई औचित्य बचा है और न ही लोकतांत्रिक व्यवस्था जैसी कोई चीज ही। बस कुछ शेष है तो वह ममता की निर्मम बनकर सत्ता में बने रहने की जिद। जिसकी वजह से राज्य में वर्ग विशेष पर लगातार अत्याचार हो रहा है और ममता बनर्जी की सरकार मूकदर्शक बन कर खेल देख रही है।

रक्तरंजित राजनीतिक इतिहास पश्चिम बंगाल का काला सच है, तो वहीं बांग्लादेशी-रोहिंग्या मुसलमान का अवैध घुसपैठ राज्य की आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ा संकट बनता जा रहा है। दूसरी ओर सत्तालोलुप ममता सरकार है, जो मूल लोगों के अधिकारों से खिलवाड़ कर रही है।

एक रिपोर्ट की मानें तो पश्चिम बंगाल में करीबन 2 करोड़ अवैध रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठी हैं। जिसकी वजह से राज्य की डेमोग्राफी बदल गई है। घुसपैठिए, सिर्फ पश्चिम बंगाल में घुसपैठ नहीं कर रहें हैं, बल्कि उन अधिकारों को छीन रहे हैं जो एक संवैधानिक राज्य के निवासी का अधिकार होता है। लेकिन ममता बनर्जी की सरकार में खुला खेल फरुखाबादी चल रहा है। जिसकी वजह से मां, माटी और मानुष सभी परेशान हैं। पश्चिम बंगाल में हाल यह है कि ‘हर साख पर उल्लू बैठा’ वाली कहावत चरितार्थ हो रही है।

अब जरा सोचिए, जिस राज्य में अल्पसंख्यक वर्ग के अधिकार पर घुसपैठियों का अधिकार हो। हिंसात्मक घटनाएं जिसके अतीत और वर्तमान दोनों का अहम हिस्सा बन गईं हों। वह राज्य और वहां के मूल निवासी कैसे सुरक्षित और सुखी जीवनयापन कर सकते हैं? ऐसे में कहीं न कहीं ममता सरकार को इस बात का एहसास होना चाहिए कि सत्ता आती और जाती रहेगी, लेकिन इसके चक्कर में आम नागरिकों के अधिकार प्रभावित नहीं होने चाहिए। वैसे उस सूबे की मुख्यमंत्री से क्या ही उम्मीद की जा सकती है? जिसकी राजनीति ही मुस्लिम तुष्टिकरण पर टिकी हो। अभी हालिया घटनाक्रम संदेशखाली का है। जहां से गहरे संदेश निकलकर आए हैं और यहां से उठी आवाज चीख-चीखकर यह संदेश दे रही है कि लोकतंत्र और लोकलाज को ताक पर रखकर पश्चिम बंगाल की सरकार चलाई जा रही है। ममता सरकार के निर्मम और निष्ठुर हो जाने की गवाही अनगिनत घटनाएं देती हैं, लेकिन एक महिला के मुख्यमंत्री रहते हुए अगर सूबे में मातृशक्ति ही सुरक्षित और अपनी अस्मिता को बरकरार न रख सकें! तो प्रश्न कई हैं? इन प्रश्नों को ताक पर रखकर सरकार चलाई जा सकती है, लेकिन महिलाओं के दुःख से एक महिला मुख्य मंत्री का मन द्रवित न हो, तो यह अपने आप में बहुत कुछ कहता है। संदेशखाली की घटना को हाई कोर्ट विचलित करने वाला बता रहा है, लेकिन ममतामयी होने का दावा करने वाली टीएमसी सरकार अपने सियासतदानों के समक्ष इस तरह नतमस्तक है कि उसे महिलाओं के दुःख-दर्द महसूस ही नहीं हो रहे। कुल मिलाकर देखा जाए तो पश्चिम बंगाल नरक बनता जा रहा है और कहीं न कहीं मां-माटी और मानुष की वेदना पर राजनीति भारी पड़ रही है।

                                                                                                                                                                                                सोनम लववंशी

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