वामपंथी हताशा का प्रतीक जेएनयू

देशभर में वामपंथी विचारधारा के पतन की वजह से जेएनयू का वामपंथी गैंग बौखला गया है। उनमें निराशा का भाव जाग गया है इसलिए एक बार फिर जातिवादी नारों के माध्यम से वे समाज को बांटने का प्रयास कर रहे हैं, परंतु अब समाज उनकी चालाकियां समझ चुका है।

देश और दुनिया में अपनी अकादमिक सहभागिता के लिये प्रसिद्ध एवं देश को तमाम प्रशासनिक अधिकारी एवं मंत्री देने वाला जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय वैसे तो हमेशा ही देश दुनिया में चर्चा का सबब बना रहता है। इन दिनों विश्वविद्यालय पुनः एक बार मीडिया एवं समाज में चर्चा का केंद्र बना है। हाल ही में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय परिसर के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज की दीवारों पर कुछ वामपंथी छात्र समूहों द्वारा यह लिख दिया कि ब्राह्मण भारत छोड़ो, ब्राह्मणों-बनियों हम आ रहे हैं, बदला लेंगे। वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कई शिक्षकों के दरवाजों पर जा  कर लिख दिया कि गो बैक टू शाखा, शाखा में वापस जाओ। इसमें यह बताने का मंतव्य था कि संघ से जुड़े शिक्षक शाखा ही जाएं, विश्वविद्यालय में ना पढ़ाएं। इस प्रकार के एक पक्षीय ग्रसित मानसिकता के लोग जहां एक तरफ देश की कुछ जातियों को चिन्हित कर उनसे बदला लेने की अपनी मनसा से समाज को परिचित कर रहे हैं, वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े शिक्षकों को भी टार्गेट कर उनकी शैक्षिक योग्यता पर प्रश्न खड़ा कर रहे हैं। यह नारे मुझे वामपंथी प्रभाव वाले राज्यों की राजनीति पर एक नजर डालने को मजबूर कर ही देते हैं कि जहां वामपंथी अपने विरोधी विचारों को पनपने ना देने के लिए असंख्य राजनीतिक-वैचारिक हत्या करता है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हम जानते हैं कि अपनी स्थापना के काल से ही वामपंथी विचार का एक गढ़ रहा है। वही वामपंथी विचार बनाम देश के दैशिक हिंदुत्व विचार के प्रति एक टकराव की स्थिति भी यहां सदैव रही है। वैसे तो जेएनयू में भले ही वैचारिक मतभेद बड़े कठोर हैं उसके बावजूद शायद ही कभी दैशिक बनाम वामपंथी विचार में फिजिकल संघर्ष रहा हो लेकिन इन कुछ वर्षों में वामपंथी विचार के दिनों-दिनों जेएनयू छात्रों के बीच कम होती साख ने वामपंथ को केरल, मणिपुर और बंगाल मॉडल की ओर मोड़ दिया है। जो हमारे विचार का नहीं वह हमारा दुश्मन, इस विचार के वामपंथी छात्रों के बीच लोकप्रियता ने जेएनयू जैसे प्रायः शांत विश्वविद्यालय को आज देश के लिए एक समस्या के रूप में खड़ा कर दिया है। वैसे तो जेएनयू की स्थापना 1969 में हुई थी और अब इसकी स्थापना के लगभग 50 वर्ष से अधिक हो गए हैं। अपनी स्थापना से लेकर आज तक इस विश्वविद्यालय ने ना सिर्फ एकेडमिक बल्कि राजनीतिक, सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी बड़ी उपलब्धि प्राप्त की है। तमाम विरोध के बावजूद भी आज जेएनयू विश्व भर में अपना एक अलग स्थान रखता है। जेएनयू से पढ़े विद्यार्थी आज पूरे विश्व भर में भारत का नाम आगे बढ़ा रहे हैं। चाहे उसमें नोबेल प्राइज विजेता अभिजीत बैनर्जी हो जिनको अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान के लिए नोबेल प्राइज मिला, उन्होंने भी अपना अध्ययन जेएनयू से किया। इसके अतिरिक्त भारत के वर्तमान रक्षा मंत्री एस जयशंकर, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, नेपाल के पूर्व प्रधान मंत्री बाबूराम, लीबिया के प्रधान मंत्री अली जेडान इत्यादि इसी विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र हैं। इसके अतिरिक्त यहां से अध्ययन कर रहे बड़ी संख्या में छात्र संघ लोक सेवा आयोग एवं अन्य राज्य लोक सेवा आयोगों की परीक्षाओं में सफलता प्राप्त करते हैं, यह भी इसका इतिहास एवं वर्तमान है। यहां पर तमाम पिछली सरकारों के प्रयासों, प्रोफेसरों की कुशलता, छात्रों की दिन-रात की मेहनत से यह विश्वविद्यालय आज भी पूरे भारत ही नहीं विश्व भर के बेहतरीन विश्वविद्यालयों में गिना जाता है। लेकिन इन सबके बावजूद भी जेएनयू का एक दूसरा पहलू भी है जो शायद आप सबको मालूम ना हो। जेएनयू में हमेशा से ही वामपंथी विचारधारा का दबदबा देखने को मिला है। यहां पर हमेशा वामपंथी छात्र संगठनों जिसमें ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन, ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन, स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया, डेमोक्रेटिक स्टूडेंट फ्रंट जैसे छात्र संगठन, वामपंथी विचारधारा को आगे बढ़ाते हैं। ये सभी कहने में तो प्रोग्रेसिव हैं और एक दूसरे की स्वतंत्रता का समर्थन करते हैं लेकिन वास्तव में यह देखने को मिलता है कि यह सभी संगठन सिर्फ अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाते हैं। वहीं अन्य दूसरे विचार के प्रति इनके मन में नफरत ही है जो बढ़ी ही है। इसी का कारण है कि अभी कुछ वर्षों पहले ही महिला डीन को दो दिनों तक बंधक बनाकर रखा गया। मुद्दा था होस्टल में वर्षों ना बढ़ने वाले फीस में वृद्धि। ना चर्चा, ना बहस। बस बंधक बनाना। विश्वविद्यालय के कुलपति एवं शिक्षकों पर हमले तथा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के छात्रों से झड़प करना। यदि जेएनयू के हम 50 वर्षों से अधिक के इतिहास के बारे में चर्चा करें तो हमें ऐसे बहुत से उदाहरण मिलेंगे जहां इस वामपंथी विचारधारा की वजह से जेएनयू एवं देश का अपमान देखने को मिला है। इन वामपंथी संगठनों ने जेएनयू और देश का माहौल खराब करने का भरसक प्रयास किया है। जेएनयू में वामपंथी वर्चस्व द्वारा पोषित हिंसा ने कई बार विश्वविद्यालय को बंद करने के लिए मजबूर किया। अपनी स्थापना के मात्र 11 वर्षों बाद ही 16 नवम्बर, 1980 से 3 जनवरी, 1981 के बीच 46 दिनों की अवधि के लिए इसे बंद कर दिया गया। उस समय की प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने विश्वविद्यालय में छात्रों की उग्र भीड़ और हिंसा होने के कारण इसे बंद कर दिया था। अपने में विचित्र ही रहा है कि जब देश में सभी आपातकाल के खिलाफ एकजुट हो विरोध कर रहे थे, उस समय जेएनयू वामपंथी गैंग इसका समर्थन कर रहा था। 2010 में दांतेवाड़ा छतीसगढ़ में हमारे सीआरपीएफ के 76 जवान नक्सल, माओवादी आतंकियों द्वारा किए गये हमले में वीरगति को प्राप्त हुए थे। इस सब से पूरा देश शोक में था, जबकि उसी समय जेएनयू में वामपंथी गैंग गोदावरी ढाबे पर इकट्ठा हो इस सब पर जश्न मना रहा था और डीजे पार्टी कर रहा था। इतना ही नहीं यह वामपंथी गैंग भारत की आस्था के केंद्र प्रभु राम मंदिर निर्माण का विरोध भी खूब करता है। आज भी 6 दिसम्बर को बाबरी शहादत दिवस मानता है। वर्ष 2013 में भी जेएनयू में हिंदू संस्कृति, हिंदुत्व को बदनाम करने का एक कार्यक्रम हुआ जिसमें वामपंथियों ने महिषासुर पूजन दिवस बनाया। इसमें करोड़ों भारतीयों की आराध्य देवी दुर्गा जी के बारे में गलत नारों का इस्तेमाल किया गया। साथ ही उनके बारे में अपशब्द भी कहे गए। महिषासुर को इस देश के जनजातीय समाज से जोड़, उन्हें बताने का प्रयास किया कि यह ही आपका प्रतीक है। दुर्गा तो हिंदू संस्कृति का प्रतीक है, आप तो भिन्न हैं। जनजातीय समाज, अनुसूचित समाज एवं अन्य पिछड़ा समाज तो गैर हिंदू है, इस विमर्श को पैदा करने असफल प्रयास किया गया। वर्ष 2016 में जेएनयू में हमें देश विरोधी घटनाएं देखने को मिली, जब आतंकवादी अफजल गुरु की बरसी के दिन जेएनयू के साबरमती ढाबे पर नारे लगाए गए,

अफजल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा हैं।

भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह-इंशा अल्लाह।

यह नारे उस बीमार मानसिकता को जन्म देते हैं जिसने भारत में वर्षों मजहबी हिंसा को पैदा किया और विभजन के बीज बोये। इतना ही नहीं विश्वविद्यालय की वामपंथी प्रोफेसर निवेदिता मेनन ने तो पूरे उत्तर पूर्व को भारत से भिन्न बताने की कोशिश की। इस सबने भारत समेत दुनिया में हमारी छवि को खराब किया। 5 जनवरी 2020 को भी जेएनयू में वाम छात्र संगठनों ने छात्रों के साथ हिंसा की थी। हाल ही में कुछ महीने पहले अप्रैल में रामनवमी के मौके पर जब कुछ छात्र हवन आयोजित कर रहे थे तब कावेरी हॉस्टल में रामनवमी पूजा का विरोध एवं उसे रोकने का प्रयास किया गया। जब आस्थावान छात्रों ने वामपंथी छात्रों का विरोध किया तो उनके साथ मारपीट की गई। वहां पहले से तय हवन ना हो सके उसे रोकने का प्रयास किया। यह सभी घटनाएं दर्शाती हैं कि जेएनयू के वामपंथी संगठनों ने जेएनयू एवं देश की छवि को बदनाम करने का भरसक प्रयास किया है। यही कारण है कि जेएनयू को लेकर समाज में सही धारणा नहीं है। वामपंथी विचारों के शिक्षकों एवं छात्रों द्वारा एक ही विचार, उनका अपना है बाकी सब बेकार है, की संकुचित सोच ने दूसरी विचारधाराओं को पनपने का मौका ही नहीं दिया। ऐसा सिर्फ जेएनयू में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व भर में देखने को मिलता है। वामपंथी विचारधारा सिर्फ अपने विचार का समर्थन करती है लेकिन दूसरे विचारों को खत्म कर देती है। इसके विपरीत यदि हम भारत की दैशिक परम्परा हिंदुत्व को देखें तो हम पाते हैं कि हमने तो तमाम विचारों को भी अपने विचार में समाहित किया। हमारे हिंदुत्व के विचार ने किसी को भी हेय दृष्टि से नहीं देखा। इसी का परिणाम है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जहां भी प्रभाव अथवा उसके विचार परिवार की सरकार है वहां पर सभी विचार परस्पर साथ-साथ चल रहे हैं और उन्नति को भी प्राप्त कर रहे हैं। भारत का दैशिक चिंतन समावेशी है जिसमें हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख, पारसी सभी का समायोजन देखने को मिलता है। यह सभी विचारों को अपनाता है। हिंदुत्व का एक प्रमुख प्रसिद्ध श्लोक है ‘एकम् सत् विप्रा बहुधा वदंति’ यानी कि सत्य एक है इसको बताने वालों ने बस इसे भिन्न-भिन्न तरीकों से बताया है। लेकिन यदि हम चीन, क्यूबा या फिर भूतपूर्व सोवियत संघ की बात करें तो हम पाएंगे कि हमें वहां पर सिर्फ एक ही विचार का प्रभाव देखने को मिलेगा। जब भी वामपंथी विचारधारा सत्ता में आई है उन्होंने दूसरी विचारधारा को खत्म करने का प्रयास किया है।

एक प्रसिद्ध राजनीतिक विचारक कार्ल पॉपर का प्रसिद्ध तर्क है कि वामपंथ का रास्ता हमें बंद समाज की तरफ लेकर जाता है। यह दूसरों के विचारों की आजादी को खत्म कर देता है। यह वामपंथी विचारधारा आज भारत के केरल राज्य एवं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के परिसर में बची हुई है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का एक बड़ा वर्ग इसी विचारधारा से ग्रसित है, वह दूसरे नवीन विचारों को आगे बढ़ने नहीं देता है। इतनी सारी घटनायें तो ऐसा ही कुछ बयां करती है कि जेएनयू के वामपंथी छात्र संगठन जो अपने आप को प्रोग्रेसिव होने का दावा करते हैं। वह प्रोग्रेसिव नहीं बल्कि इसके विपरीत ही हैं। वे लोकतांत्रिक स्पेस को नहीं मानते हैं, वे उस विचारधारा का समर्थन नहीं करते, जो उनके खिलाफ है। वे उन्हें राजनीतिक अछूत मानते हैं। ऐसे में जेएनयू में ब्राह्मण कैम्पस छोड़ो, गो बैक टू शाखा वाले दीवार पर लिखे नारे विश्वविद्यालय में वामपंथी गैंग की हताशा का ही परिणाम हैं।

                                                                                                                                                                                   प्रवेश कुमार 

 

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