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सनातन और विदेशी विचारों के बीच संघर्ष

सनातन और विदेशी विचारों के बीच संघर्ष

by रमेश पतंगे
in अवांतर, जनवरी- २०२३, ट्रेंडींग, विशेष, सामाजिक
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विदेशी भूमि पर उपजे ईस्लामिक, ईसाई, मार्क्सवादी संस्कृति- सभ्यता, एवं विचारधारा में सहअस्तित्व की कल्पना नहीं है, मान्यता नहीं है। सर्वसमावेशक, विविधतापूर्ण समाज वह चाहते ही नहीं है इसलिए वे सदैव असहिष्णु रहते हैं और अपने विरोधियों से संघर्ष करते रहते हैं जबकि भारत की सनातन विचारधारा सहिष्णुता, विविधता, सर्वसमावेशकता एवं समरसता में विश्वास रखती है।

युद्ध क्षेत्र का विचार करते समय पहले अपना मन पक्का करना होता है, कि इस युद्ध में विजय हमारी ही होगी, यह आत्मविश्वास नहीं, स्वत: का बखान करना नहीं, आत्म गौरव नहीं, यह आने वाले कल की सच्ची वास्तविकता है। यह विजय क्यों होनी है, इसका उत्तर भगवान श्री कृष्ण ने भगवत गीता में दिया है। भगवान ने कहा है, यतो धर्म: ततो जय:। जहां धर्म होगा, वहीं विजय होगी। संघ की विचार सृष्टि का कार्य यह धर्म कार्य है। धर्म कार्य को विजयी बनाना परमेश्वर का कार्य है। वह लड़े बिना विजय नहीं देता। आराम से बैठना और सिर्फ मुंह से कहना यतो धर्म: ततो जय:, तो हम हमेशा करते ही रहेंगे।

यहां धर्म यानी क्या, यह भी हमें समझ में आना चाहिए। धर्म यानी व्रत, उपवास, तीर्थ यात्रा, देवता की पूजा, ग्रंथ पठन, ग्रंथों का पारायण, यज्ञ याग इत्यादि नहीं है। हमारे ऋषियों ने धर्म का यह अर्थ नहीं बताया है, यह सब उपासना पद्धति है। जिसे जो उपासना पद्धति पसंद है, वह करे और यदि किसी को पसंद नहीं हो तो वह ना करे। धर्म यानी कर्तव्य — राजधर्म, पुत्र धर्म, पत्नी धर्म, पति धर्म इस अर्थ में हम धर्म शब्द का प्रयोग करते हैं। एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से सम्बंध आता हैं वहीं से धर्म का प्रारम्भ होता है। एक दूसरे से कैसे व्यवहार करना, इसके सिद्धांत बताने पड़ते हैं। हमारा धर्म कहता है कि जिस बात को करने में मुझे कष्ट होता है वैसे ही दूसरों को भी होता होगा। मेरा जीवन सुखी हो, उसी तरह दूसरे को भी सुखी होना चाहिए ऐसा हमें लगता है। हमारा जीवन सुखी हो इसी बात से दूसरों को भी सुख मिले। हमारा जीवन सुखी हो, हमें शारीरिक या मानसिक कष्ट ना हो ऐसा प्रत्येक व्यक्ति को लगता है। इसलिए दूसरों को पीड़ा हो ऐसा हमारा व्यवहार नहीं होना चाहिए, इसे धर्म या धर्म के अनुसार जीवन यापन करना कहते हैं। हमारा कार्य धर्म कार्य है, ऐसा यानी मनुष्य का मनुष्य से, प्राणी जीवन से, सृष्टि से कैसा लगाव हो, यह स्पष्ट दिखना चाहिए। इस कारण हमारा कोई शत्रु नहीं है, सभी हमारे अपने ही हैं। यह हमारी पहली भावना होती है।

वैचारिक युद्ध में जो हमारे विरोध में खड़े हैं उन्हें शत्रु का दर्जा देना या विरोधी का? हमारे समाज का अंग होने के कारण वे हमारे शत्रु नहीं हैं, वे हमारे विरोधी हैं। विरोध की यह मानसिकता अभारतीय है। भारतीय मानसिकता सहिष्णुता की है, किसी भी विचार का अंधा विरोध करने की नहीं। यह सब विरोधी भारतीय होते हुए भी उनकी मानसिकता ऐसी क्यों निर्मित हुई? इसका उत्तर है, जैसा हम अन्न खाते हैं वैसे हमारे शरीर और मन पर संस्कार होते हैं। यह जैसा अन्न शास्त्र का सिद्धांत है वैसे ही विचार शास्त्र का भी है। कुरान का विचार स्वीकार करने से उसे स्वीकार करने वाला मनुष्य असहिष्णु ही होना चाहिए। मार्क्सवादी विचारों को स्वीकार करने से उसका स्वीकार करने वाला और असहिष्णु और द्वेष करने वाला ही होना चाहिए। व्यक्तिवादी विचारों को स्वीकार करने वाला अहंकारी होना चाहिए। जहां से विचार आते हैं वहां से संस्कार भी आते हैं। विचार कभी भी अकेले नहीं आते, वे अपने साथ जहां उनका जन्म हुआ है वहां की संस्कृति लेकर आते हैं, यह शाश्वत सिद्धांत है। वामपंथी विचारों को मानने वाले विदेशी विचारों पर चलते हैं और इसीलिए वे असहिष्णु, गजब की ईर्ष्या रखने वाले और आवश्यक हो तो दूसरों के जीने के अधिकार को भी नकारने वाले, दूसरों के अस्तित्व को शून्य मानने वाले बनते हैं। यह उनका दोष न होकर उनकी विचारधारा का दोष है। इस विचारधारा के आधार पर वे आइडिया ऑफ इंडिया को समाज में प्रस्तुत करते रहते हैं। आइडिया ऑफ इंडिया का विचार मूलतः असत्य पर आधारित होने के कारण समाज में टिका नहीं रह सकता।

हमारा विचार सनातन भारत का विचार है। 1947 में भारत का निर्माण हुआ, यह गलत है। भारत का निर्माण कब हुआ यह इतिहास भी नहीं बता सकता, इतने हम प्राचीन हैं। भारत वैदिक काल में ऋषियों की देन है। भगवान गौतम बुद्ध और उनके शिष्य संप्रदाय ने बनाया, जैन मुनियों ने बनाया, रामायण- महाभारत ने निर्माण किया, महादेव, कृष्ण, भगवान गौतम बुद्ध, वर्धमान महावीर, यह सभी नाम भारत के निर्माण के शिल्पकार हैं। उन्हें अलग कर भारत की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए जिस किसी के भेजे (दिमाग) में यह कल्पना आई हो कि भारत का उदय 1947 के बाद हुआ वे मूर्खों के नंदनवन में ना रहते हुए अज्ञान के जंगल में रहते हैं, ऐसा कहना चाहिए।

सनातन भारत यानी क्या? सनातन यानी जो नित्य नूतन है, वह सनातन! 1947 में भारत निर्माण हुआ, यह झूठ है। सनातन यानी भारत का भूतकाल नहीं। हजारों सालों से भारत के इतिहास में बदलाव होता आ रहा है। वेद काल में हम, जिन देवी देवताओं की पूजा करते हैं थे वे देवता आज नहीं है। मूर्ति पूजा में आज हम जिन मूर्तियों को पूजते हैं, वे भी नहीं थी। तब यज्ञ-याग होते थे। यज्ञ के मंत्र थे। भगवान गौतम ने यज्ञ, पशु बलि का विरोध किया। व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के साथ कैसे व्यवहार करना, यह सीख दी। यह सीख जो धर्म सिखाता है, वह बौद्ध धर्म कहलाता है। भगवान महावीर ने भी अहिंसा का उपदेश दिया। मनुष्य तो क्या वे तो प्राणी हिंसा के भी विरोधी थे। बाद के काल में भगवान बुद्ध की मूर्तियां बनने लगी। उनकी गुफाएं बनने लगी। और फिर अलग-अलग देवताओं की मूर्तियां बनने लगी और हम मूर्तिपूजक हो गए।

स्वतंत्रता के आंदोलन में भारत माता की संकल्पना आई। भारत माता की मूर्ति बनने लगी। मंदिर बनने लगे। अट्ठारहवी तथा उन्नीसवी सदी में पूरे देश में अनेक सिद्ध पुरुष हुए। उनके सम्प्रदाय बने। उनकी भी मूर्तियां बनने लगी। फिर मूर्तियों के लिए मंदिर बनने लगे। उनकी उपासना प्रारम्भ हुई। इस प्रकार से उपासना पंथ का विचार किया गया। कोई भी स्थिति 500 से 600 वर्षों के कार्यकाल से ज्यादा नहीं रही, बदलाव होते रहे। ऐसा होते हुए भी समाज को बनाए रखने के लिए जो शाश्वत मूल्य थे उन्हें टिकाए रखा गया। उनमें बदलाव नहीं हुआ। वे जैसी थी, वैसी ही उन्हें बनाए रखा गया।

सर्वसमावेश एक शाश्वत मूल्य है। सभी उपासना पद्धतियां हमारी हैं। जिसकी जैसी रूचि वैसा मार्ग चुने, किसी पर भी किसी प्रकार की जबरदस्ती नहीं है। हम अस्तित्ववादी रहे। अस्तित्ववाद हमारा दूसरा जीवन मूल्य है। कुछ लोग उसे आत्मा कहते हैं, कोई ब्रह्म कहता है, कोई शून्य कहता है, कोई उसे आदिशक्ति मानता है। भौतिकवादी लोगों या वामपंथियों का शब्द दोहराना हो तो हम ऐहिकवादी कभी नहीं थे, आज भी नहीं हैं, और कल होने की सम्भावना बिल्कुल नहीं थी।

अस्तित्ववादी होने के कारण विश्व यह एक शाश्वत, नित्य, चेतना का भंडार है ऐसा हम मानते हैं। सभी जीव सृष्टि में निरंतरता है। नदी का प्रवाह अखंड रूप से बहता रहता है। इस प्रवाह की ओर जब हम देखते हैं तब थोड़ी देर बाद यदि कोई हमसे पूछता है कि कुछ देर पूर्व तुम जो पानी देख रहे थे वह पानी क्या अब भी वहीं है? हमारे द्वारा देखा हुआ पानी बहकर आगे चला गया होता है, परंतु प्रवाह में खंड नहीं पड़ता। पानी का अस्तित्व कायम रहता है। मानव की पीढ़ी आती जाती रहती है। नए पेड़ दिखने लगते हैं, बढ़ते हैं और कालांतर से सूख जाते हैं, नई पीढ़ी की जगह लेने के लिए दूसरी पीढ़ी आ जाती है। एक पेड़ अनेक पेड़ों को जन्म देता है। यह अस्तित्व की निरंतरता है। यह निरंतरता जो जीता है वह भारत है। भारत यानी सनातन और नित्य नूतन भारत है।

यह सनातन नित्य नूतन भारत, सर्व सृष्टि का टुकड़ों में विचार नहीं करता। मनुष्य अलग, चतु:ष्पाद प्राणी अलग, जलचर अलग, वनस्पति अलग, इस प्रकार का ‘अलगाववाद’ उसके चिंतन में नहीं होता। वह समग्र रूप से पूरी सृष्टि की ओर देखता है। फिर उसके ध्यान में आता है कि पूरी सृष्टि में मैं एक अकेला प्राणी नहीं, मेरे अस्तित्व के कारण मैं अनेकों से जुड़ा हुआ हूं। वनस्पति के कारण मुझे अनाज मिलता है। जलचर भी मेरा अन्न होते हैं। पृथ्वी के भ्रमण के कारण ऋतु निर्माण होते हैं और इन ऋतुओं के कारण मौसम में ठंडक आती है, बरसात होती है। नदियां जमीन की उत्पादकता बढ़ाती हैं और सचेतन सृष्टि को पानी पहुंचाती हैं। ऊंचे पर्वत बादलों को रोकते हैं और उसके कारण भरपूर बरसात होती है। उस पानी का उपयोग बिजली बनाने के लिए, खेती के लिए और उद्योग के लिए किया जाता है। सृष्टि में कुछ भी एकाकी नहीं है। एकात्मिक दृष्टि यानी सनातन भारत। वह 1947 में निर्मित नहीं हुई। उसका किसने निर्माण किया यह बताना सम्भव नहीं है। वह हमारे खून और हाड़-मांस में होती है। वसीयत के हक से हमें प्राप्त होती है।

यह सनातन नित्य नूतन भारत सर्व समावेशक है। इस भारत ने भूतकाल में कभी ऐसा नहीं कहा कि इस भूमि पर गोरे वर्ण के लोग ही रहेंगे, वह एक ही उपासना पद्धति का अवलम्बन करेंगे, एक ही प्रकार के मंदिर होंगे, सबका ग्रंथ एक ही होगा, सबकी विवाह पद्धति एक ही होगी, एक ही प्रकार के त्योहार सब जगह मनाए जाएंगे, उस में समानता होगी, एक ही भाषा सब को बोलनी पड़ेगी, यह भारत का विचार नहीं है। सनातन भारत का तो बिल्कुल भी नहीं। आइडिया ऑफ इंडिया जिनका विचार है उस के जन्मदाता यूरोप के देश हैं। इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, रशिया जैसे देशों में एक ही उपासना है! वह यानी ईसाई। एक ही ग्रंथ होता है, वह यानी बाइबल। क्रिसमस का त्यौहार सभी जगह एक जैसे ही मनाया जाता है। हमारी दिवाली प्रत्येक राज्य में अलग-अलग प्रकार से मनाई जाती है। पोशाक अलग, खाद्य पदार्थ अलग। महाराष्ट्र की करंजी, चकली, कड़बोले, केरल में नहीं चलते। उनके दिवाली के पदार्थ उनके खास होते हैं। यह हमारी विविधता है। विविधता हमारे सनातन भारत का प्रमुख लक्षण है।

हम सभी सर्वसमावेशक हैं, सभी को राज्य में समाहित करना ही हमारा स्वभाव है। हमारा स्वभाव किसी भी प्रकार के अंतिम सिरे तक विचार करनेवाला नहीं है। यही चलेगा दूसरा नहीं चलेगा, मैं कहता हूं वही सच है तुम्हारा कहना झूठ है। मैं जो मार्ग बताता हूं वही सच्चा मार्ग है। तुम्हारा मार्ग गलत है। मैं जो व्यवस्था बताता हूं वही सच्ची है, तुम्हारा मार्ग गलत है। यह सनातन भारत का विचार नहीं। यह आईडिया ऑफ इंडिया का विचार है। अर्थशास्त्री रघुराम राजन हमेशा उपदेशक की भूमिका में रहते हैं। मैं बताता हूं वही सच है। मनमोहन की भूमिका इससे अलग नहीं है। सीताराम येचुरी और प्रकाश करात भी इसी मार्ग के सेनानी हैं।

हम कहते हैं वही सच, आपको कुछ समझ नहीं है। देश की अर्थव्यवस्था आप रसातल में ले जा रहे हैं, जैसे उनके प्रवचन सतत चालू रहते हैं।

यह एकांगी विचार हमारा नहीं, यानी सनातन भारत का नहीं। सनातन भारत कैसा है कि संसदीय लोकतंत्र में कुछ बातें अच्छी हैं, राष्ट्रपति प्रणाली के लोकतंत्र में कुछ बातें अच्छी हैं, इसलिए इन दोनों का मिश्रण कर हम हमारा संविधान बनाएं। हमारे संविधान निर्माताओं ने वह किया। उन्होंने संसदीय पद्धति का मंत्रीमंडल दिया और अमेरिकन पद्धति का राष्ट्राध्यक्ष दिया। दोनों जगहों की अच्छी बातें लेकर हम आगे बढ़ें, ऐसा हमारा स्वभाव है। यह सब हमारे शक्ति स्थल हैं। युद्ध भूमि में हमें अपने शक्ति स्थल के साथ खड़े रहना चाहिए। इन शक्ति स्थलों का अधिक विचार अगले लेख में करेंगे।

रमेश पतंगे

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