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किसान आंदोलन का नक्सली एंगल

किसान आंदोलन का नक्सली एंगल

by आशीष अंशू
in अप्रैल -२०२४, विशेष, सामाजिक
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किसान आंदोलन को लेकर उसके नेतृत्वकर्ताओं पर कई तरह के आरोप लगते रहे हैं, लेकिन अब खालिस्तानी अलगाववादी, मिशनरी, जिहादी गठजोड़ के बाद नक्सली एंगल भी सामने आया है। यह राष्ट्रविरोधी गतिविधि देश को हिंसा और अराजकता की आग में झोंकना चाहती है।

उस समय यह भय और अधिक बढ़ जाता है जब आप नक्सली दस्तावेज मस्ट्रेटजी एंड टेक्टिक्स आफ इंडियन रिवल्यूशन के पृष्ठ 95 पर मिलिट्री टास्क आफ द अर्बन मूवमेंट नाम के अध्याय में पढ़ते हैं कि कैसे लंबी तैयारी के बाद गांव से लेकर शहरों तक जनसंघर्ष के लिए लोगों को तैयार करना हैं।

किसानों के बीच उपद्रवी

एक ओर शांतिपूर्ण प्रदर्शन करते किसान जिद पर अड़े हैं कि वे दिल्ली जाएंगे। दूसरी ओर हरियाणा सरकार कह रही है कि उनके पास इस बात की सूचना है कि प्रदर्शनकारियों के बीच कुछ उपद्रवी भी मौजूद हैं जो हथियारों से लैस हैं। यदि इन्हें दिल्ली की ओर जाने दिया गया तो यह दिल्ली बॉर्डर पर डेरा डाल कर प्रदेश में व्यवस्था को बिगाड़ सकते हैं। यह मामला जब न्यायालय पहुंचा। पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय में सुनवाई हुई। किसान आंदोलन पर न्यायालय ने प्रदर्शनकारियों को फटकार लगाते हुए कहा कि विरोध प्रदर्शन में ट्रैक्टर  व ट्रालियों का इस्तेमाल क्यों किया जा रहा है? यदि किसानों को शांतिपूर्वक प्रदर्शन करना है तो वे अन्य साधनों का उपयोग कर सकते हैं।

किसान आंदोलन

अब आते हैं किसान आंदोलन पर। इसके शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर कई तरह के आरोप हैं, जिसका उत्तर नेतृत्व दे रहे किसान नेताओं की ओर से भी नहीं आ रहा। प्रश्न आंदोलन की पारदर्शिता से लेकर, छिपे हुए उद्देश्य तक पर है। जिस आंदोलन को किसानों का आंदोलन कहा जा रहा है, उसके नेतृत्व करने वालों में 90 प्रतिशत देशभर के 02 एकड़ से कम वाले किसानों का प्रतिनिधित्व दिखाई नहीं पड़ता। आंदोलन पर खर्च हो रहे करोड़ों रुपए कहां से आ रहे हैं? जिस आंदोलन की ब्रांडिंग शांतिपूर्ण प्रदर्शन के नाम से दुनिया भर में की गई है, उसकी प्रकृति शांतिपूर्ण क्यों नहीं है? एक प्रश्न और जो प्रासंगिक भी है, आंदोलन को देश के किसानों का आंदोलन कह कर प्रचारित और प्रसारित किया जा रहा है लेकिन इस पूरे आंदोलनों में जो प्रदर्शनकारी दिखाए जा रहे हैं, वे सिर्फ एक प्रांत से आते हैं। जहां के किसानों की खुशहाली के किस्से मीडिया दिखाता रहता हैं। वहां आंदोलन चल रहा है और इसमें राजस्थान, बिहार, जम्मू कश्मीर, लद्दाख के किसान शामिल नहीं हैं।

पंजाब को लग रहा दीमक

पंजाब को पिछले दशकों में नशे ने दीमक की तरह खाया है। एक ओर कीटनाशक की भारी मात्रा फसल की नस्ल खराब कर रही थी, वहीं ड्रग्स ने पंजाब की इंसानी नस्लों को खराब किया है। जब भारत का गृह मंत्रालय भारत की नक्सली और अलगाववादी ताकतों की पहचान करके, दुनिया भर में उन्हें शांत कर रहा था, उसी दौरान पंजाब के अंदर खालिस्तान, कन्वर्जन और नक्सल जैसे गिरोह अपनी जमीन को मजबूत करने में लगे हुए थे। पंजाब में नशे पर, खालिस्तानियों की सक्रियता पर और कन्वर्जन गिरोह से जुड़ी हुई ढेर सारी प्रामाणिक जानकारी इंटरनेट पर उपलब्ध है। इस सम्बंध में बोला और लिखा जाता रहा है।

रेफरेंडम 2020

2019 से प्रतिबंधित संगठन सिख फार जस्टिस भारत से पंजाब को अलग निकालने के लिए तरह-तरह के षडयंत्र करता रहा है। ऐसे ही एक षडयंत्र का नाम था रेफरेंडम 2020 है। प्रतिबंधित संगठन सिखों के बीच ऐसा माहौल बनाना चाहता है, जिससे उन्हें लगे कि भारत की सरकार उनके ऊपर बहुत अत्याचार कर रही हैं। पंजाब के साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा है। जब किसान आंदोलन 2.0 के साथ किसान ट्रैक्टर लेकर दिल्ली की ओर निकले, तब यूट्यूब पर उनके साक्षात्कारों से स्पष्ट था कि वे समझौता की चाहत से नहीं बल्कि संघर्ष के इरादे से दिल्ली की ओर बढ़ रहे हैं। किसानों के एक बड़े नेता ने साफ-साफ ही कह दिया कि वे देश के 140 करोड़ की जनता के बीच मोदी की बनी हुई साख गिराने के लिए मैदान में उतरे हैं।

नक्सली दस्तावेज

आंदोलन को एक अध्येता की नजर से देखने पर लगता है कि वह बातें दुहराई जा रही हैं जो पहले ही मस्ट्रेटजी एंड टेक्टिक्स आफ इंडियन रिवल्यूशन शीर्षक वाले नक्सली दस्तावेज में दर्ज की जा चुकी हैं। पंजाब में नक्सलियों के प्रवेश की बात पर उनका आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक है, जो पंजाब का इतिहास नहीं जानते। पंजाब के पूर्व मुख्य मंत्री अमरिंदर सिंह ने 2013 में दावा किया कि पंजाब के सभी 22 जिलों में नक्सलियों की मौजूदगी है। पंजाब में नक्सलियों का इतिहास बहुत पुराना है। वहां नक्सलवादियों के कई गुट सक्रिय रहे हैं, जिनमें नागारैड्डी ग्रुप, चारू मजूमदार, सीता रमैया के गुट प्रमुख रहे हैं।

किसान आंदोलन को जिस तरह हिंसा के रास्ते पर ले जाने का प्रयास किया जा रहा है, वह आंदोलन का रास्ता नहीं है, वह विद्रोह का रास्ता है, जहां शांतिपूर्ण चल रहे प्रदर्शन को हिंसा के रास्ते पर ले जाने की चालें होंगी। भय की बात यही है कि कहीं नक्सलियों के अर्बन आउटफिट की भूमिका आंदोलन के निर्णयों को प्रभावित करने की शक्ति तो नहीं प्राप्त कर चुकी है!

यह आशंका उस समय बढ़ जाती है जब आप नक्सली दस्तावेज में पढ़ते हैं कि कैसे लंबी तैयारी के बाद गांव से लेकर शहरों तक जनसंघर्ष के लिए लोगों को तैयार करना है। आप पढ़ते हैं कि इसके लिए आवश्यक है कि मिलिट्री, पारा मिलिट्री, पुलिस और प्रशासन में माओ की हत्यारी विचारधारा में विश्वास करने वाले लोग ऊंचे पदों पर बैठे हों। आप पढ़ते हैं कि कैसे यह दस्तावेज केंद्र की सरकार को दुश्मन लिखता है और वह दुश्मन की तैयारी की सही जानकारी रखने की बात भी करता है। इतनी तैयारी पूरी हो जाने के बाद प्रदर्शन को विद्रोह में बदल देने के निर्णय की बात भी दस्तावेज में लिख रखी है। दस्तावेज में ऐसी डिफेंस आर्मी बनाने की बात लिखी गई है, जिसे सरकार द्वारा की जा रही सभी प्रकार की कार्रवाइयों के विरोध में खड़ा किया जा सके।

 

आशीष अंशू

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