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ढलती सांझ के प्रेममयी रंग…

ढलती सांझ के प्रेममयी रंग…

by हिंदी विवेक
in अप्रैल -२०२४, कहानी, विशेष, साहित्य
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देर तक विशाखा खिड़की से बाहर ढलते सूरज की लालिमा को गहराते देखती रही। देखती रही तेज गति से दौड़ती ट्रेन की खिड़की से पीछे छूटते पेड़ों को और घरों को। ट्रेन तेजी से आगे भाग रही थी और मन पीछे छूटते जा रहे पेड़ों के साथ पीछे भाग रहा था। भाग रहा था पीछे छूटे अपने शहर की ओर, उस शहर की ओर जहां उसका घर था, वह घर जिसे उसने पूरे 33 बरस सहेजा था। जिसके हर हिस्से से उसे बहुत प्यार हैं। दीवारों से, खिड़की-दरवाजों से, छोटे से आंगन से, फूलों से भरी बालकनी से। आज भी जिसे छोड़ते समय उसका मन भर आया था। मन को बहुत कड़ा करके ही वह निकल आई थी। गर्दन में जब दर्द होने लगा तब उसे ध्यान आया कि वह जब से ट्रेन में बैठी है तभी से लगातार खिड़की से बाहर ही देख रही है। वह बहुत पहले ही ट्रेन में आकर बैठ गई थी। उसके बाद कौन आया, सामने पास में कौन बैठा है उसे कुछ पता नहीं था।

विशाखा ने धीरे से गर्दन सीधी की। सामने वाली सीट पर एक वृद्ध दंपत्ति बैठे थे, बगल वाली सीट पर एक सज्जन बैठे मोबाइल में व्यस्त थे। विशाखा ने एक किताब निकाल ली और पढ़ने लगी। अभी तो 7 ही बजे थे शाम के, सोने में भी काफी समय था अभी। थोड़ी देर तक पढ़ने के बाद विशाखा पुस्तक से भी ऊब गई। सच तो यही था कि उसका मन ही नहीं लग रहा था कहीं आज। सामने बैठे वृद्ध दंपत्ति अपनी दुनिया में मगन थे। अंकल अपने मोबाइल से कुछ पढ़कर सुना रहे थे और दोनों हंसने लगे। क्षण भर भी दोनों के बीच मौन नहीं होता था। एक के बाद एक अंकल कुछ न कुछ पढ़ते जा रहे थे और अपनी पत्नी को सुना रहे थे और आंटी भी तो खुलकर प्रतिक्रिया दे रही थी। विशाखा ने पुनः पुस्तक पढ़ने में ध्यान लगाने का प्रयत्न किया लेकिन मन पुस्तक की बजाय सामने वाली सीट पर ही लगा रहा। कितनी आत्मीयता लग रही थी दोनों के बीच, एक सामंजस्य पूर्ण आत्मीयता वह भी इस उम्र में। विशाखा को आश्चर्य हुआ सत्तर के तो पार ही लग रहे हैं दोनों तब भी।

ट्रेन की गति कम होते हुए वह रुक गई। सीहोर आया था। मैं कचोरी ले आता हूं, तुम्हें पसंद है ना यहां की कचोरी। काफी समय से खाई भी तो नहीं, बुजुर्ग अंकल उठते हुए बोले। ट्रेन यहां अधिक समय तक रुकती नहीं, मत उतरिए नीचे, आंटी ने मना किया। नहीं चढ़ पाया तो तुम चेन खींच लेना, अंकल परिहास करते हुए नीचे उतर गए। विशाखा ने देखा आंटी के चेहरे पर एक नवोढ़ा की तरह सलज्ज मुस्कान खिल उठी। उसकी नजरें आंटी से मिली तो वह मुस्कुरा दी। प्रत्युत्तर में वह भी मुस्कुरा दी। कहां तक जा रही हो? आंटी ने पूछा। जी अहमदाबाद, उसने उत्तर दिया। काम से जा रही हो? नहीं मेरे भैया रहते हैं उन्हीं के पास जा रही हूं, विशाखा बोली। हम तो सोमनाथ जा रहे हैं घूमने। हर कुछ महीनों बाद कहीं ना कहीं निकल जाते हैं हम दोनों। दोनों बेटे-बहु, पोते-पोती साथ ही रहते हैं ना तो परिवार के बीच एक-दूसरे के लिए समय ही नहीं मिलता, तो हम साल में दो-तीन बार सप्ताह भर के लिए बाहर निकल जाते हैं और एक दूसरे के साथ जी लेते हैं। आंटी ने बड़ी सहज आत्मीयता से अपने बारे में बता दिया। आनंद से उनका चेहरा दमक रहा था। सुनकर विशाखा को घोर आश्चर्य हुआ, इस आयु में भी एक दूसरे के साथ की, एकांत की इतनी इच्छा। मगर प्रकट में वह बस मुस्कुरा दी। अभी तक आए नहीं, कहा था मत उतरो, अब आंटी के चेहरे पर हल्की सी चिंता उतर आई थी। विशाखा सोच ही रही थी कि वह उठकर दरवाजे तक देख आए कि तभी अंकल हाथ में कचौरी के दोने लिए आ गए। आंटी प्रसन्न हो गई। यह लो तुम्हारी कचोरियां। एक दोना आंटी को थमाने के बाद एक उन्होंने विशाखा की ओर बढ़ा दिया। अरे नहीं रहने दीजिए आप लीजिए ना, विशाखा संकोच से भर कर बोली। ले लो बेटी एक तुम्हारे लिए भी लाया हूं, अंकल ने स्नेह से कहा। बेटी सुनते ही मन के भीतर कुछ पिघल गया। जबसे मां-पिताजी गए कोई बेटी कहने वाला ही नहीं रहा। ससुराल में वह सबसे बड़ी है तो विवाह के दूसरे दिन से ही सब की मां बन कर रही। पहले ननद-देवरों की फिर अपने बच्चों की। अब बहुओं की भी और अब तो तीन-तीन पोते पोतियां भी हैं उसकी। जाने कब वह पत्नी से मां और फिर दादी बन गई। कचोरी सच में बहुत स्वादिष्ट थी। वह तो प्राय: इस रास्ते से जाती है पर कभी यहां की कचोरी नहीं खाई। ध्यान फिर अंकल आंटी की ओर चला गया। दोनों कचोरी के स्वाद के साथ कोई पुराना किस्सा याद करके हंस रहे थे। विशाखा को अजीब भी लग रहा था और अच्छा भी लग रहा था। बरबस होठों पर एक आत्मीय मुस्कान आ जाती। उनका बोलना बतियाना, एकदूसरे की ओर झुकना, मोबाइल में कुछ दिखाने या कहने के बहाने कंधे से सट जाना। आंटी का चुपचाप कोहनी मारना या अंकल के पैर पर हौले से चपत मार देना सब कुछ कितना स्वाभाविक था, एक अंतरंग प्रेम को अभिव्यक्त कर रहा था उन दोनों के बीच।

विशाखा को याद ही नहीं कि वह और रोहित कभी इस तरह से पास बैठकर इतने आत्मीय हुए होंगे। परिवार के उत्तरदायित्व के बीच कभी समय ही नहीं मिला और अब जब समय हैं तो वह उम्र बहुत पीछे छूट गई सी लगती है विशाखा को। पुनः उन गलियों की ओर मुड़ना हास्यास्पद चेष्टा लगती है। असमय ही विशाखा प्रौढ़ता का ही नहीं वरन जैसे वृद्धावस्था का परिपक्व और गंभीर चोला ओढ़ कर बैठ गई। यह निकटता, यह अंतरंगता सब बीस-तीस की उम्र को शोभा देता है। जीवन भर सबने इतना आदर दिया, मान दिया कि अनायास मन खुद को बुजुर्ग मान बैठा और वैसा ही आदर्श आचरण करने लगा। लेकिन आज क्यों यह आवरण झूठा सा, बेवजह सा प्रतीत हो रहा है, बाहर सांझ गहराने लगी थी। नारंगी लाल नीले बैंगनी रंग आसमान में छा रहे थे जिन पर रात अपना आंचल लहराने के लिए उतरने की तैयारी में थी। सांझ भी कितनी सुंदर होती है और ना जाने क्यों आज तो ये सांझ उसे और प्यारी लग रही थी। 8:30 बजे विशाखा और अंकल आंटी ने अपना लाया खाना मिल बांटकर खाया। थोड़ी देर बाद अंकल ने दवाइयां निकाली और खुद भी ली व आंटी को भी दी। कितनी परवाह कर रहे थे वे आंटी की जैसे एक प्राण हो दोनों। अब आप आराम करिए आज दोपहर को भी आपने जरा आराम नहीं किया सफर की तैयारी में ही लगे रहे, आंटी ने कहा। अच्छा लाओ तुम्हारा बिस्तर लगा दूं। अंकल ने कहा। अरे मैं लगा लूंगी, आंटी ने कहा लेकिन तब तक अंकल पैकेट से चादर निकाल कर फटाफट नीचे की बर्थ पर बिछाने लगे। तकिया रखकर उन्होंने एक चादर कंबल के अंदर लगाकर  रख दी। तुम्हारा भी बिस्तर लगा दूं बेटी। अंकल अब विशाखा से बोले। नहीं, नहीं अंकल मैं लगा लूंगी, विशाखा संकोच से भर कर बोली। मदद तो उसे उनकी करनी चाहिए थी लेकिन पिता शायद ऐसे ही होते हैं। अंकल अपनी बर्थ पर भी चादर लगाकर ऊपर जाकर लेट गए। आंटी भी तकिए पर सर रख कर लेट गई। ऊपर से अंकल की तांक-झांक जारी थी।

कूलिंग ज्यादा तो नहीं लग रही, कम करने को कहूं क्या अटेंडेंट को, चादर ओढ़ लो। कंबल ठीक से ओढ़ा दूं क्या? और आंटी खीजकर कहती अरे मैं कोई बच्ची हूं, ओढ़ लूंगी जब ठंड लगेगी, आप आराम करो। फिर विशाखा से बोली चैन नहीं है जरा भी, यह नहीं कि थोड़ा आराम कर लें। उनका चेहरा प्रसन्नता से तृप्त संतुष्ट दमक रहा था जीवन भर तो हम परिवार के उत्तरदायित्वों को पूरा करने में ही जुटे रहे। सास-ससुर, चचिया सास-ससुर, ददिया सास-ससुर के साथ ननद-देवरों की भी यह बड़ी फौज थी घर में। सतरह लोग थे घर में। पल भर को समय नहीं मिलता था पर तुम्हारे अंकल दो पल तो आते-जाते साध ही लेते ठिठोली के तब भी और अब हम भरपूर साथ रहते हैं। जीवन भर संकोच में रहे लेकिन अब भी अगर संकोच किए तो रिश्तो की भीड़ में पति ही को खो देंगे। आंटी सपनीले स्वर में विशाखा को बताते हुए मानो खुद में ही खो गई थी अब तो हम दोनों आंगन में झूले पर बैठ अकेले चाय पीते हैं। दोपहर भर बतियाते हैं। शाम को साथ में सैर करने जाते हैं। कभी कभार दोपहर में सिनेमा भी देख आते हैं। जीवन भर की दूरी को मिटा लिया है। उम्र भर तो सभी को आपकी जरूरत होती है लेकिन इस उम्र में ही आकर फुर्सत मिलती हैं एक दूसरे के साथ समय बिताने की। सो हम तो पूरा आनंद लेते हैं इस समय का। अब हम ही तो सच्चे साथी हैं सुख-दुख के फिर तो पता नहीं कब बुलावा आ जाए। आंटी सरल मन से अपने दिल की बात कहते हुए अपनी कहानी कह रही थी लेकिन विशाखा को लग रहा था जैसे आंटी उसे समझा रही हैं जबकि वह तो उसके बारे में कुछ भी नहीं जानती। रोहित भी तो विशाखा से यही चाहता है, थोड़ी चुहल, थोड़ा साथ, थोड़ी रूमानी छेड़छाड़, थोड़ा क्वालिटी टाइम। कभी कंधे पर सर रखकर कोई चुलबुली सी फिल्म देखना। हाथ थाम कर आत्मीय बातें करना। अपनापन, थोड़ी परवाह, थोड़ा स्नेह, लेकिन विशाखा को यही सब बचकानापन लगता। छप्पन साल की उम्र में ही उसका मन बैरागी होता जा रहा है। वह रोहित की ऐसी चेष्टा पर उसे उम्र का हवाला देकर झिड़क देती। यह सब उसे कम उम्र के चोंचले लगते। इन सबके पीछे की आत्मीयता के धागे वह कभी देख ही नहीं पाई। रोहित उसके साथ समय बिताने के उद्देश्य से बाहर घूमने को कहता तो वह या तो मना कर देती या बेटे-बहु को या पोता-पोती को साथ ले लेती। रोहित उसका साथ चाहता है। हम उम्र जीवनसाथी की उसे इस उम्र में जरूरत है, यह कभी उसके मन मैं आया ही नहीं। लेकिन अब अंकल आंटी को देख कर उसे अहसास हो रहा था कि वह कितनी गलत है। अभी भी तो रोहित उसके द्वारा एकदम से झिड़क दिए जाने पर कितना आहत हो उठा था कि दोनों के बीच संवाद ही बंद हो गया। एक घुटन सी छाई रहती जो असह्य हो चली तो वह उससे दूर ही चली आई। दस बज गए तुम्हारी दवाई का समय हो गया ना, मैं देता हूं, ठीक दस बजे बिना अलार्म के भी अंकल जाग गए।

आप मत उतरिए मैं लेती हूं आंटी ने कहा लेकिन तब तक तो अंकल नीचे आकर बैग में से दवाई निकाल चुके थे। फिर बॉटल से गिलास में पानी निकालकर आंटी को दिया। यह भी तो प्रेम का ही रूप है। शुद्ध भावनात्मक प्रेम। कितना सुखद है इस तरह से साथ होना और एक वह है जो इस साथ से रोहित को अब तक वंचित रखे हुए है। आज पहली बार रोहित के साथ की आवश्यकता महसूस हुई उसे। कौन कहता है जीवन में बस भोर की लालिमा ही सुखद दिन लेकर आती है, ढलती सांझ भी तो अनगिनत रंग बिखेर देती है जीवन के आकाश में। देख रही थी विशाखा ढलती सांझ के यह प्रेम मयी रंग जो जीवन के सारे पड़ाव में सबसे सुंदर हैं, आत्मीय है।

उज्जैन स्टेशन पर ट्रेन रुकी तो बहुत मना करने पर भी अंकल प्लेटफार्म पर उतर गए, यहां दूध बहुत बढ़िया मिलता है औटाया हुआ मिट्टी के कुल्हड़ में।

विशाखा भी चली गई उनके साथ ताकि एक साथ ही तीनों कुल्हड़ ला सके। मिट्टी के कुल्हड़ में दूध के सौंधे स्वाद के साथ तीनों फिर बातों में रंग गए। कोई बड़ा साथ हो तो अपना आप उम्र में खुद ही कम लगने लगता है। आज विशाखा को लग रहा था वह पुनः युवा हो गई है। वह खुल कर हंस रही थी, बनावटी प्रौढ़ता का आवरण खुद ही पता नहीं कब उतर गया। उस रात उसे देर तक रोहित की याद आती रही। मन कह रहा था उसके पास जाकर उसका हाथ थाम कर कंधे पर सर रखकर ढेर सारी बातें करे उससे।

सुबह फिर अंकल आंटी के साथ चाय नाश्ता और बातें करते कब अहमदाबाद का स्टेशन आ गया पता नहीं चला। मन भर आया। अंकल आंटी को प्रणाम करने झुकी तो आंटी ने गले लगा लिया। अंकल ने सर पर हाथ रखा तो आंखें भीग गई उन सभी की। लगा जैसे अपने माता-पिता से ही दूर हो रही है। उनका फोन नंबर लेकर वह नीचे उतर गई। अंकल दरवाजे पर खड़े ओझल होने तक हाथ हिलाते रहे।

सूटकेस उठाए वह पहले टिकट वापसी का, टिकट बुक करने टिकट खिड़की की ओर बढ़ गई। अब उसे भी रात आने से पहले अपने जीवन के आकाश में रोहित के साथ ढलती सांझ के प्रेम में ही रंग भरने थे।

                                                                                                                                                                                विनीता राहुरीकर 

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