वीर संभाजी महाराज

हिंदुस्थान में हिंदवी स्वराज्य की स्थापना करने वाले छत्रपति शिवाजी महाराज के बेटे छत्रपति संभाजी महाराज के जीवन को यदि चार पंक्तियों में सजाना हो तो यही कहा जा सकता है कि

   ‘‘देश धरम पर मिटने वाला, शेर शिवा का छावा था।
      महापराक्रमी परम प्रतापी, एक ही शंभू राजा था॥

संभाजी महाराज का जीवन एवं उनकी वीरता ऐसी थी कि उनका नाम लेते ही औरंगजेब साथ तमाम मुगल सेना थर्राने लगती थी। संभाजी के घोडे की टाप सुनते ही मुगल सैनिकों के हाथों से अस्त्र शस्त्र छूटकर गिरने लगते थे। यही कारण था कि छत्रपति शिवाजी महाराज की मृत्यु के बाद भी संभाजी महाराज ने हिंदवी स्वराज्य को अक्षुण्ण बनाए रखा था। वैसे शूरता-वीरता के साथ निडरता का वरदान भी संभाजी को अपने पिता शिवाजी महाराज से मिला था। राजपूत वीर राजा जयसिंह के कहने पर, उस पर भरोसा रखते हुए जब छत्रपति शिवाजी औरंगजेब से मिलने आगरा पहुंचे थे तो दूरदृष्टि रखते हुए वे अपने पुत्र संभाजी को भी साथ लेकर गये थे। कपट के चलते औरंगजेब ने शिवाजी को कैद कर लिया था और दोनों पिता पुत्र को तहखाने में बंद कर लिया। फिर भी शिवाजी महाराज ने कूटनिति के चलते औरंगजेब से अपनी रिहाई करवा ली, उस समय संभाजी अपने पिता के साथ रिहाई के साथी बने थे।

इस प्रकार संभाजी महाराज का औरंगजेब की छल-कपट की नीति से बचपन में जो वास्ता पडा, वह उनके जीवन के अंत तक बना रहा और यही इतिहास बन गया। छत्रपति शिवाजी की रक्षा नीति के अनुसार उनके राज्य का एक किला जीतने की लडाई लडने के लिए मुगलों को कम से कम एक वर्ष तक अवश्य जूझना पडता। औरंगजेब जानता था की इस हिसाब से तो उसे सभी किले जीतने ३६० वर्ष लग जाएंगे। शिवाजी महाराज के बाद संभाजी महाराज की वीरता भी औरंगजेब के लिये अत्याधिक अचरज का कारण बनी रही। इसके अलावा संभाजी महाराज ने औरंगजेब के कब्जे वाले औरंगाबाद से लेकर विदर्भ तक के सभी सूबों से लगान वसूलने की शुरुआत कर दी जिससे औरंगजेब इस कदर बौखला गया कि संभाजी महाराज से मुकाबला करने के लिये स्वयं दख्खन में दाखिल हो गया।

उस ने संभाजी महाराज से मुकाबला करने के लए अपने पुत्र शाहजादे आजम को भेजा। आजम ने कोल्हापुर संभाग में संभाजी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। उनकी तरफ से आजम का मुकाबला करने के लिये सेनापति हंवीरराव मोहिते को भेजा गया। उन्होंने आजम की सेना को बुरी तरह से परास्त कर दिया। युद्ध में हार का मुंह देखने पर औरंगजेब इतना हताश हो गया कि बारह हजार घुडसवारों के बल पर अपने साम्राज्य की रक्षा करने का दावा उसे खारीज करना पडा। संभाजी महाराज पर नियंत्रण के लिये उसने तीन लाख घुडसवार चार चार लाख पैदल सैनिकों की फौज लगा दी। बावजूद इसके मराठा वीरों के गुरिल्ला युद्ध के कारण मुगल सेना हमेशा विफल ही होती रही।

औरंगजेब के मन में व्याप्त भय का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जब बीजापुर के कुछ चुनिंदा मौलवी औरंगजेब के पास इस्लाम और मजहबी पैगाम के आधार पर सुलह करने पहुंचे तो उसने स्पष्ट कह दिया कि वह कुरान के आधार पर बीजापूर के आदिलशाह से कभी भी सुलह कर सकता है, लेकिन उसकी दख्खन में सबसे बडी चिंता संभाजी महाराज है, जिनका वर्चस्व लगातार बढ़ता जा रहा है। औरंगजेब ने लगातार एवं बार-बार पराजय के बाद भी संभाजी महाराज से युद्ध जारी रखा। इसी दौरान कोकण संभाग में संगमेश्वर के निकट संभाजी महाराज के ४०० सैनिकों को मुकर्रबखान के ३००० सैनिकों ने घेर लिया और उन के बीच भीषण युद्ध छिड गया।
इस युद्ध के बाद राजधानी रायगड में जाने के इरादे से संभाजी महाराज अपने जांबाज सैनिकों को लेकर बडी संख्या में मुगल सेना पर टूट पडे। मुगल सेना द्वारा घेरे जाने पर भी संभाजी महाराज ने बडी वीरता के साथ उनका घेरा तोडकर वहां से निकलने में सफलता हासिल की। इसके बाद उन्होंने रायगढ जाने के बजाय निकट इलाके में ही ठहरने का निर्णय लिया। मुकर्रबखान इसी सोच और हताशा में था कि संभाजी इस बार भी उनकी पकड से निकल कर रायगढ पहुंचने में सफल हो गए, लेकिन उसी दौरान बडी गडबड हो गई कि एक मुखबिर ने मुगलों को सूचित कर दिया कि संभाजी रायगढ के बजाय एक हवेली में ठहरे हुए है। यह बात आग की तरह औरंगजेब और उसके पुत्रों तक पहुंच गई कि संभाजी एक हवेली में ठहरे हुए है। जो काम औरंगजेब एवं उसकी शक्तिशाली सेना भी न कर सकी वह काम एक मुखबीर ने कर दिखाया।

इस के बाद भारी संख्या में मुगल सेना ने हवेली की ओर कूच कर उसे चारो तरफ से घेर लिया तथा संभाजी महाराज को हिरासत में लिया गया। १५ फरवरी १६८९ का यह काला दिन इतिहास के पन्नों पर अंकित हो गया। संभाजी की हुई अचानक गिरफ्तारी से औरंगजेब तथा सारी मुगल सेना हैरान थी। उनके लिये संभाजी का भय इस हद तक था की पकडे जाने के बाद भी उन्हें लोहे की जंजीरों से बांधा गया। बेडियों से जकड कर ही उन्हें औरंगजेब के पास ले जाया गया।

संभाजी महाराज को जब ‘दिवान-ए-खास‘ में औरंगजेब के सामने पेश किया गया तो उस समय भी वे अडिग थे और उन के चेहरे पर किसी भी प्रकार कानहीं था। उन्होंने जब औरंगजेब को झुक कर सलाम करने के लिए कहा गया तो उन्होंने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया और निडरता के साथ उसे घूरते रहे। परिणामत: संभाजी के ऐसा करने पर खुद औरंगजेब अपने सिंहासन से उतर कर उन के समक्ष पहुंच गया। इस पर संभाजी महाराज के साथ बंदी बनाए गए कवि कलश ने बडी सहजता से कहा, ‘हे राजन, तनु तप तेज निहार त्यजों अवरंग।‘
यह सुनते ही गुस्सा हुए औरंगजेब ने तुरंत कवि कलश की जुबान काटने का हुक्म दिया। साथ ही उस ने संभाजी राजा को प्रलोभन दिया कि यदि वे इस्लाम कबूल करते हैं तो उन्हें छोड दिया जाएगा और उनके सभी गुनाह माफ कर दिये जाएंगे। संभाजी महाराज द्वारा सभी प्रलोभन ठुकराने से क्रोधित होकर औरंगजेब ने उनकी आंखो में लोहे की गरम सलाखें डाल कर उनकी आंखे निकलवा दी। फिर भी संभाजी अपनी धर्म निष्ठा पर अडिग रहे और उन्होंने किसी भी सूरत में हिंदू धर्म का त्याग कर इस्लाम को कबूल करना स्वीकार नहीं किया।

 

इस घटना के बाद से ही संभाजी महाराज ने अन्न और पानी त्याग कर दिया। उस के बाद सतारा जिले के तुलापुर में भीमा- इंद्रायणी नदी के किनारे संभाजी महाराज को लाकर उन्हें लगातार प्रताडित किया जाता रहा और बार बार उन पर इस्लाम कबूल करने के लिए दबाव डाला जाता रहा। आखिर उनके नहीं मानने पर संभाजी का वध करने का निर्णय लिया गया। इसके लिये ११ मार्च १६८९ का दिन तय किया गया क्योंकि उसके ठीक दूसरे दिन वर्ष प्रतिपदा थी। औरंगजेब चाहता था कि संभाजी महाराज की मृत्यू के कारण हिंदू जनता वर्ष प्रतिपदा के अवसर पर अपने राजा की मौत का शोक मनाए।

उसी दिन सुबह दस बजे संभाजी महाराज और कवि कलश को एक साथ चौपाल पर ले जाया गया। पहले कवि कलश की गर्दन काटी गई। उस के बाद संभाजी के हाथ- पांव तोडे गए उनकी गर्दन काट उसे पूरे बाजार में जुलूस की तरह धुमाया गया।
इस पूरे इतिहास में यह बात तो स्पष्ट हो गई कि जो काम औरंगजेब तथा उसकी सेना आठ वर्षों तक नही कर सकी, वह काम अपने ही एक मुखबिर ने कर दिखाया। औरंगजेब ने अत्यधिक छल से संभाजी महाराज का वध तो कर दिया, लेकिन वह चाहकर भी उन्हें पराजित नहीं कर सका। संभाजी महाराज अपने पूरे जीवन में एक भी युद्ध नहीं हारे। उन्होंने अपने प्राणों पर खेलकर हिंदू धर्म की रक्षा की और अपने साहस व शौर्य का परिचय दिया। उन्होंने राष्ट्र एवं धर्म के लिये मृत्यु को गले लगाते हुए औरंगजेब को सदा के लिये पराजित अवश्य किया।

तुलापुर स्थित संभाजी महाराज की समाधि आज भी उनकी जीत और अंहकारी व कपटी औरंगजेब की हार को किस तरह बयान करती है इसका कवि योगेश ने इस प्रकार अपने शब्दों में वर्णन किया है-

‘देश धरम पर मिटने वाला, शेर शिवा का छावा था।
महा पराक्रमी परम प्रतापी, एक ही शंभू राजा था॥
तेजपुंज तेजस्वी आंखे, निकल गयी पर झुका नहीं।
दृष्टि गयी पर राष्ट्रोन्नति का दिव्य स्वप्न तो मिटा नहीं॥
दोनों पैर कटे शंभू के, ध्येय मार्ग से हटा नहीं।
हाथ कटे तो क्या हुआ, सत्कर्म कभी तो छूटा नहीं॥
जिव्हा कटी खून बहाया, धरम का सौदा किया नहीं।
शिवाजी का ही बेटा था वह, गलत राह पर चला नहीं॥
वर्ष तीन सौ बीत गये अब, शंभू के बलिदान को।
कौन जीता कौन हरा, पूछ तो संसार को॥
मातृभूमि के चरण कमल पर, जीवन पुष्प चढ़ाया था।
है राजा दुनिया में कोई, जैसा शंभू राजा था।

This Post Has One Comment

  1. Pranay

    छञपती संभाजी महाराज ❤?

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