इंडी गठबंधन की काट निकालने के लिए भाजपा-राजग ने भी अपना विस्तार किया, लेकिन गठबंधन धर्म का पालन करने और विवादित उम्मीदवारों को लेकर जो चुनौतियां सामने आई हैं, उसका संज्ञान लेना भी आवश्यक है, ताकि अगले चुनावों में इसका नकारात्मक परिणाम न आए।
लोकसभा चुनाव के दौरान कई ऐसे पहलू हमारे सामने लगातार आए जिन पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है। चुनाव आरम्भ होने के पहले ऐसा लगता था कि भाजपा के लिए कोई चुनौती नहीं है। यह बात सही है कि पूरा वातावरण उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम भाजपा के पक्ष में था। अयोध्या में 22 जनवरी को रामलाल की प्राणप्रतिष्ठा के साथ सम्पूर्ण भारत में 9 लाख से ज्यादा कार्यक्रम हुए और अद्भुत दृश्य बना हुआ था। निश्चित रूप से यह चुनाव की दृष्टि से भाजपा के लिए बिल्कुल अनुकूल स्थितियां पैदा करने वाली थी, किंतु हमने देखा जैसे मतदान प्रक्रिया आरम्भ हुई, भाजपा के समक्ष चुनौतियां उत्पन्न होने लगीं। ऐसा नहीं था कि आम जनता प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी या उनकी सरकार से बहुत ज्यादा असंतुष्ट और नाराज थी। यह भी नहीं था कि लोग भाजपा की जगह विपक्ष को ज्यादा योग्य एवं शासन के उपयुक्त मानते थे। भाजपा के समक्ष जो चुनौतियां उत्पन्न हुई उनमें दो ऐसे महत्वपूर्ण कारक थे, जिन पर निष्पक्षता से विचार करके ही भविष्य के लिए सीख ली जा सकती है। इनमें पहला था गठबंधन। गठबंधन दलों को लेकर लोगों में भाजपा की तरह सकारात्मक भावना नहीं थी। दूसरे, उम्मीदवारों को लेकर सबसे ज्यादा समस्याएं आई। स्वयं भाजपा के कार्यकर्ता, स्थानीय नेता और उनके घनघोर समर्थक ही टिप्पणी करने लगे थे कि ऐसा लगता है कि उम्मीदवारों के चयन में बहुत ज्यादा विचार विमर्श हुआ ही नहीं। इसी तरह कुछ गठबंधन के बारे में भी उनके अपने ही लोगों की प्रतिक्रिया होती थी कि हमको इसकी आवश्यकता न थी, न है।
अगर पूरे चुनाव अभियान की गहराई से विश्लेषण किया जाए तो कुछ बातें बिल्कुल साफ दिखाई दे रही थी। उदाहरण के लिए कुछ राज्यों को छोड़ दें तो भाजपा को ज्यादातर जगह गठबंधन करने की आवश्यकता नहीं थी। भाजपा को तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में गठबंधन की आवश्यकता थी। पंजाब में अनुकूल गठबंधन सहयोगी हो सकता था, लेकिन नहीं हो पाया। कुछ गठबंधन अनावश्यक थे और भाजपा के लिए बोझ साबित हुए। बिहार में जब तक नीतीश कुमार और जदयू राष्ट्रीय जनता दल के साथ था, पूरे प्रदेश में भाजपा के कार्यकर्ताओं-समर्थकों में उत्साह तथा उन्हें पराजित करने का जज्बा दिखता था। जैसे ही नीतीश कुमार लौटकर भाजपा के साथ आए माहौल ठंडा पड़ गया। नीतीश कुमार के पाला बदल और राजनीति से प्रदेश के विवेकशील वर्ग के अंदर गुस्से का भाव था। हालांकि उनके साथ आने के पीछे कुछ लोगों ने यह तर्क दिया कि इससे नीतीश कुमार के दो प्रमुख जनाधार कुर्मी और कोयरी जातियों का वोट बीजेपी से जुड़ेगा और गठबंधन 2019 के चुनाव की तरह प्रदेश से विपक्ष को साफ करने वाला परिणाम लाएगा। हुआ क्या? भाजपा के नेताओं-कार्यकर्ताओं के लिए इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन हो गया कि बार-बार नीतीश कुमार द्वारा विश्वासघात करने के बावजूद आपने उन्हें साथ क्यों लिया? नीतीश कुमार ने भाजपा से गठबंधन तोड़ने के बाद जिस तरह के आक्रामक वक्तव्य दिए, जो एजेंडा चलाने के लिए कदम उठाए और स्वयं भाजपा के नेताओं ने जिस तरह उनकी आलोचना की, उसके बाद फिर से उनके हाथ में हाथ लेने को तार्किक सिद्ध करना मुश्किल था। यह भी देखा गया कि भाजपा के उम्मीदवारों के लिए तो थोड़े बहुत असंतुष्ट होते हुए भी लोग काम करने को तैयार थे, लेकिन जनता दल यू या दूसरे कई घटकों के लिए उस ढंग से काम नहीं करना चाहते थे। कोई विकल्प न होने के कारण विवशता में लोगों ने काम किया। कारण साफ था, इनमें से ज्यादातर ने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय भाजपा नेतृत्व और बिहार भाजपा के विरुद्ध अशोभनीय बयान दिए थे। अग्निवीर योजना के बाद बिहार में भयानक हिंसा व तोड़फोड़ हुई थी और उनमें भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के घरों पर हमले हुए, उनमें आग लगाई गई थे। उसके बाद फिर से साथ लेने का नकारात्मक असर होना ही था।
महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे और संजय राउत की जोड़ी ने 2019 के जनादेश को नकारते हुए विरोधियों से हाथ मिलाकर सरकार बनाई और हिंदुत्व विरोधी एजेंडा पर अतिवादी दिशा में काम करने के कारण भाजपा के साथ-साथ शिवसेना के परम्परागत नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों के लिए उसे सहन करना मुश्किल था। उसमें एकनाथ शिंदे के विद्रोह को समर्थन देने में कोई हर्ज नहीं था। दोनों की मिली-जुली सरकार चल रही थी। अजित पवार के नेतृत्व में राकांपा के बड़े भाग को साथ लाने के कारण भाजपा के नेताओं-कार्यकर्ताओं को उन मुद्दों पर रक्षात्मक होना पड़ा, जिन पर वह आक्रमण करती थी। हालांकि भाजपा शिवसेना के बड़े वर्ग के अंदर यह भाव था कि शरद पवार बार-बार समर्थन देकर सार्वजनिक रूप से उसके विरुद्ध जाने का विश्वासघात करते रहे तो उनको सबक सिखाना जरूरी है। इसके बावजूद जिस सरकार के विरुद्ध भ्रष्टाचार की लम्बी लड़ाई लड़ी गई हो, उनके लोगों के साथ सरकार चलाने की तार्किकता भ्रष्टाचार को खत्म करने के आह्वान के साथ साबित नहीं होती।
गठबंधन की राजनीति का सबसे दुखद पहलू होता है, उम्मीदवारों का चयन। निर्वाचन क्षेत्र के चयन में भी समस्याएं आती हैं और कई बार गठबंधन धर्म निभाने के लिए उन क्षेत्रों को भी साथियों के हवाले करना पड़ता है जहां से आपकी पार्टी मजबूत होती है और वहां पहले से चुनाव लड़ने के दावेदार भी होते हैं। इससे पार्टी के अंदर निराशा फैलती है। दूसरे, गठबंधन के दल किसे उम्मीदवार बनाएंगे, यह आपके नियंत्रण में नहीं होता। कई बार वैसे उम्मीदवार होते हैं जिनके विरुद्ध आपके कार्यकर्ताओं ने संघर्ष किया हो या वक्तव्य दिया हो, या फिर जो उन पैमानों के विपरीत होते हैं जो स्वयं राजनीति में आपने स्थापित किया है। मसलन वंशवाद, भ्रष्टाचार के आरोपी आदि। लगभग यही स्थिति दूसरी पार्टी से आए लोगों को समायोजित करने में होती है। जितनी भारी संख्या में भाजपा में दूसरी पार्टी के लोगों को लिया गया, वह देशव्यापी स्तर पर भाजपा के कार्यकर्ताओं और नेताओं के अंदर असंतोष का कारण बना। उनमें से अनेक उम्मीदवार बनाए गए और उनके लिए इस रूप में काम करने की प्रेरणा नहीं हो सकती थी, जिस रूप में अपनी विचारधारा और लम्बे समय से पार्टी या संगठन में काम करने वाले लोगों के लिए। चुनाव के समय ऐसे लोगों को लेने और अचानक उम्मीदवार बनाने से स्थानीय स्तर पर लोगों को समझाने का समय भी कम था।
गठबंधन के साथियों के उम्मीदवारों की दृष्टि से एक उदाहरण चिराग पासवान का लिया जा सकता है। बिहार में चिराग पासवान ने अपने अलावा बहनोई को टिकट दिया तथा समस्तीपुर से बिहार सरकार की एक मंत्री की 26 वर्षीया बेटी को। भाजपा एवं भाजपा के कारण राजग का समर्थक बने लोग उनके लिए काम करने को अंतर्मन से तैयार नहीं हो सकते थे। जद यू ने भी ऐसे कई उम्मीदवार दिए। महाराष्ट्र में भी आप देखेंगे तो शिवसेना शिंदे और अजित पवार राकांपा की ओर से कुछ ऐसे उम्मीदवार थे, जो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के लिए बनाई गई कसौटियों पर खरे नहीं उतरते थे। उत्तर प्रदेश भाजपा के नेताओं-कार्यकर्ताओं में एक बड़े समूह का मानना था कि अपना दल से चल रहा गठबंधन ही प्रर्याप्त था। इसके अलावा किसी के साथ गठबंधन की हमको आवश्यकता नहीं थी। साथी दल होने के कारण उनके लिए प्रचार करना आपकी मजबूरी थी। इसका संदेश केवल राज्यों तक सीमित नहीं होता, पूरे देश में जाता है। उनके विरुद्ध विपक्षियों के हमले का उत्तर देना कठिन होता है। इसमें आपको एक-एक सीट जीतने के लिए कड़े संघर्ष करने पड़े। दुर्भाग्य से इस बार भाजपा की ओर से भी अलग-अलग राज्यों में अनेक ऐसे उम्मीदवार मैदान में थे जिनको राज्य, स्थानीय पार्टी और कार्यकर्ता आसानी से स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। अगर उम्मीदवार लोगों को काम करने के लिए प्रेरित नहीं कर सकते तो फिर चुनाव में विरोधियों के हमले, उनकी आलोचना, उनकी रणनीति का सामूहिक प्रखरता से आक्रामक होकर भाजपा के नेता और कार्यकर्ता मुकाबला नहीं कर सकते थे। इसका असर आपको अलग-अलग राज्यों के अनेक क्षेत्रों में दिखाई देगा। अगर अयोध्या में रामलला की प्राणप्रतिष्ठा यानी राम मंदिर चुनाव का मुद्दा है, हिंदुत्व है, नागरिकता संशोधन कानून है, देश की सुरक्षा है, प्रखर विदेश नीति है और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट मिलना है तो उम्मीदवार भी किसी न किसी तरह इन सबका प्रतीक या प्रतिरूप दिखना चाहिए। इसमें कमी होने के कारण जगह-जगह कठिनाइयां उत्पन्न हुईं। इस चुनाव में जगह-जगह भाजपा के कार्यकर्ता और नेता यह प्रश्न उठाते थे कि जिन लोगों को पार्टी में शामिल किया गया है वो पहले हमारे कदमों का विरोध करते हुए हमें साम्प्रदायिक और देश विरोधी तक करार देते थे।
यानी जिन्हें उम्मीदवार नहीं बनाया गया वह भी भाजपा कार्यकर्ताओं और समर्थकों के लिए मन में नकारात्मक भाव उत्पन्न करने का कारण बन रहे थे। आप देखेंगे ऐसे क्षेत्रों में मतदान भी काफी कम हुआ। लाख कोशिशों के बावजूद पहले से भाजपा या राजग के लिए काम करने को तैयार बैठे सभी लोग उन उम्मीदवारों के पक्ष में काम करने या मत देने के लिए प्रेरित नहीं हुए। ऐसा नहीं होता तो निश्चित रूप से भाजपा के लिए यह 2024 एवं 2019 से भी आसान चुनाव होता। प्रश्न है कि क्या इस चुनाव से सीख लेकर भविष्य की दृष्टि से आवश्यक सुधार किया जाएगा? अगर पार्टी और संगठन परिवार के अंदर असंतुष्ट तथा नाराज लोगों की संख्या ज्यादा रही तो भविष्य में सरकार की योजनाओं को जमीन पर उतारने, विरोधियों के नैरेटिव का मुकाबला करने, संघर्ष करने तथा भावी एजेंडा को सफलतापूर्वक सरकार के द्वारा पूरा करने में समस्याएं और बाधाएं आएंगी।