इस बार के लोकसभा चुनाव के दौरान कुछ ऐसे मुद्दों पर बदजुबानी चली और झूठे नैरेटिव गढ़े गए, जिसने चुनाव में ध्रुवीकरण करने में अहम भूमिका निभाई। आइए जानते हैं किन-किन मुद्दों के आधार पर राजनीतिक शतरंज की चालें चली गई।
अठारहवीं लोकसभा का स्वरूप कैसा रहेगा, यह तो चार जून को पता चलेगा ही, लेकिन यह चुनाव आरोपों-प्रत्यारोपों के साथ ही गिरते बयानों के लिए विशेष रूप से याद किया जाएगा। यह चुनाव विपक्षी दलों के प्रमुख नेताओं की बदजुबानी और गलत नैरेटिव फैलाने के लिए खास तौर पर इतिहास में जगह बनाएगा। यह चुनाव इसलिए भी याद रखा जाएगा कि एक घोटाले को लेकर जेल में बंद एक मुख्य मंत्री को महज चुनाव प्रचार के लिए जमानत मिल गई और वैसे ही आरोपों में जेल में बंद किसी बड़े राज्य के मुख्य मंत्री को जमानत नहीं मिली।
भारत में जब से चुनाव हो रहे हैं, हर बार चार मुद्दे चुनाव का आधार जरूर बनते हैं। पहला मुद्दा है, गरीबी, दूसरा मुद्दा है बेरोजगारी, तीसरा मुद्दा है किसानों की हालत और चौथा मुद्दा है महंगाई। इन मुद्दों पर देश ने सत्रह लोकसभा चुनाव और कई विधानसभा चुनाव देख लिए हैं, लेकिन यह भी सच है कि ना तो इस देश से गरीबी का अब तक समूल नाश हो पाया है, ना ही बेरोजगारी का पूर्ण हल निकल पाया है। इसी तरह महंगाई को भी कभी ठोस अंदाज में काबू में नहीं किया जा सका। रही बात किसानों के हित की तो उनकी हालत में क्रांतिकारी बदलाव कभी नहीं लाया जा सका। कहना न होगा कि अठारहवीं लोकसभा चुनाव में भी ये मुद्दे छाये रहे।
दिलचस्प यह है कि सत्ताधारी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से लेकर विरोधी इंडी गठबंधन तक, सभी इन मुद्दों को जनता के बीच जोर-शोर से उछालते रहे। केंद्र की मोदी सरकार पर विपक्षियों का आरोप रहा कि वह अपने दावे के अनुसार सालाना दो करोड़ नौकरियां नहीं दे पाई तो दूसरी ओर सत्ताधारी दल और प्रधान मंत्री ने परोक्ष रोजगार बढ़ाने, भारत को पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने और स्टार्टअप, देश आदि के नाम पर विपक्षी आरोपों की धार कुंद की। इस बीच कांग्रेस ने इंडी गठबंधन की सरकार बनने के फौरन बाद 30 लाख सरकारी नौकरियां देने का वादा किया है।
हाल के कुछ चुनावों में महिलाएं स्वायत्त वोट बैंक के रूप में उभरी हैं। यही वजह है कि कांग्रेस और बीजेपी-दोनों महिलाओं को लुभाने के लिए योजनाएं लेकर आती रहीं। कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणा पत्र को न्याय पत्र नाम दिया है। इस न्याय पत्र में गरीब लड़कियों को एक लाख रूपए सालाना देने का वादा किया है, तो बीजेपी ने महिला सुरक्षा पर जोर दिया। नारी शक्ति वंदन अधिनियम के अंतर्गत महिलाओं को विधायिका में आरक्षण देने का बीजेपी ने वादा किया तो कांग्रेस ने उसकी आलोचना की। पार्टी ने महिलाओं को उच्च पदों पर आरक्षण देने का वादा किया। इसी तरह बीजेपी ने कैंसर, एनीमिया आदि रोगों के लिए पहल का ऐलान किया तो कांग्रेस समान काम, समान वेतन नीति के अंतर्गत महिलाओं को लाने का वादा किया है। कांग्रेस ने आशा वर्कर, आंगनवाड़ी और मिड डे मील योजना में काम करने वाली महिलाओं की सैलरी दोगुना करने का वादा किया तो बीजेपी ने महिला स्वयं सहायता समूहों की ग्राहक तक सीधी पहुंच सुनिश्चित करने, 3 करोड़ महिला लखपति दीदी बनाने आदि का वादा किया है।
कांग्रेस की ओर से इस चुनाव में जहां सम्पत्ति पर टैक्स लगाने और उसे आम लोगों में बांटने जैसे वामपंथी वैचारिकी केंद्रित वायदों का संकेत किया गया तो वहीं बीजेपी ने इसे मुद्दा बना लिया। प्रधान मंत्री मोदी ने इसे भावनात्मक बनाने के लिहाज से यहां तक कह दिया कि कांग्रेस अगर सत्ता में आई तो वह मंगल सूत्र भी छीन लेगी। जिसका उत्तर देना कांग्रेस के लिए आसान नहीं रहा।
कांग्रेस सत्ता में आने पर जाति जनगणना कराने का वादा अरसे कर रही है। उसकी दो सरकारों आंध्र और कर्नाटक की ओर से मुस्लिम समुदाय को धार्मिक आधार पर आरक्षण देने का मामला भी तेजी से उछला। इसे भी बीजेपी की ओर से मुद्दा बनाया गया। कहने का आशय यह है कि इस चुनाव में भी अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का मुद्दा छाया रहा।
इस पूरे चुनाव में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी की भाषा विशेषकर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के लिए बेहद स्तरहीन रही। वे अबे-तबे जैसी सड़क छाप भाषा का इस्तेमाल करते रहे। यह बात और है कि कांग्रेसी इकोतंत्र की ओर से उन पर प्रश्न उठाने की बजाय प्रधान मंत्री के बयानों पर बहुत निशाना साधा गया। इस चुनाव में मणिपुर की अशांति, किसानों के मुद्दे से लेकर चीनी सीमा पर स्थित तनाव भी बड़ा मुद्दा रहा। इस चुनाव में परिवारवाद का मुद्दा भी छाया रहा। बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार तो लालू यादव के परिवारवाद पर खुलकर बोले। उन्होंने यहां तक कहा कि लालू ने अपना परिवार बढ़ाया और उन्होंने बिहार को बढ़ाया। विपक्षी नेताओं के परिवारवाद पर बीजेपी ने लगातार निशाना साधा। कांग्रेस को तो परिवारवादी पार्टी बनाने की भी आलोचना की। जबकि कांग्रेस ने बीजेपी नेताओं के परिवार वालों को टिकट आदि देने पर भी प्रश्न उठाया।
अठारहवीं लोकसभा का चुनाव नेताओं की आवाजाही के लिए भी खूब याद किया जाएगा। इस बार के चुनाव के दौरान तकरीबन पूरी पंजाब कांग्रेस बीजेपी में शामिल हो गई। उत्तर प्रदेश में समाजवादी और कांग्रेसी नेता पार्टी में शामिल होते रहे। कांग्रेस के तीन राष्ट्रीय प्रवक्ता गौरव वल्लभ, राधिका खेड़ा और रोहन गुप्ता बीजेपी में शामिल हो गए। कई जगह कांग्रेस और दूसरे दलों से आए नेताओं को बीजेपी ने टिकट भी दिया तो यही स्थिति कांग्रेस की भी रही।
यह चुनाव तीन जगहों पर निर्विरोध सांसद निर्वाचन के लिए भी याद किया जाएगा। सबसे पहले सूरत के कांग्रेसी उम्मीदवार ने उम्मीदवारी वापस ले ली। इसके बाद यहां के सभी निर्दलीय उम्मीदवारों ने अपने पर्चे वापस ले लिए। इसके बाद बीजेपी के उम्मीदवार निर्विरोध चुन लिए गए। इसी बीच इंदौर और खजुराहो के कांग्रेसी उम्मीदवारों ने पर्चे वापस ले लिए। लिहाजा यहां रस्मी तौर पर ही चुनाव हुआ।
1998 के बाद यह पहला चुनाव है, जब कांग्रेस की सबसे ताकतवर नेता सोनिया गांधी चुनाव नहीं लड़ रही हैं। उनकी रायबरेली सीट पर उनके बेटे राहुल चुनाव लड़ रहे हैं और अपनी पारम्परिक सीट अमेठी को उन्होंने छोड़ दिया है। इसलिए राहुल की ये उम्मीदवारी भी बहुत चर्चा में रही। राहुल केरल के वायनाड से भी चुनाव लड़ रहे हैं। दिलचस्प यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर इंडिया गठबंधन में शामिल वामपंथी दलों ने यहां से राहुल के खिलाफ ताकतवर वामपंथी नेता एनी राजा को मैदान में उतार दिया। इस चुनाव में कई उलटबांसियां भी दिखीं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन है, लेकिन पंजाब में दोनों एक-दूसरे के विरुद्ध लड़ रहे हैं। इसी तरह पश्चिम बंगाल, बिहार और तमिलनाडु में कांग्रेस की अगुआई वाले गठबंधन का हिस्सा वामपंथी दल भी हैं, लेकिन केरल में वे कांग्रेस के विरुद्ध लड़ रहे हैं। तृणमूल कांग्रेस इंडी गठबंधन का बाकी देश में हिस्सा है, लेकिन पश्चिम बंगाल में वह हिस्सा नहीं है।
मौजूदा चुनाव में राम मंदिर भी मुद्दा रहा। कांग्रेस तो वादा करती रही कि अगर उसका गठबंधन सत्ता में आया तो वह राममंदिर पर पुनर्विचार करेगा। केरल में तो बाकायदा मंदिर तोड़ने का वीडियो तक दिखाया गया।
अठारहवीं लोकसभा चुनाव के ये कुछ प्रमुख मुद्दे हैं। जिनके इर्द-गिर्द बदजुबानी के साथ इन पंक्तियों के लिखे जाने तक यह चुनाव हो रहा है। इस चुनाव में चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर विशेष रूप से विपक्षी गठबंधन की ओर से बहुत प्रश्न उठे हैं। इसी तरह लम्बी अवधि तक चुनाव कराने के लिए आयोग प्रश्नों के घेरे में रहा। इस बीच 2019 की तुलना में कम मतदान से भी राजनीतिक दल और चुनाव आयोग हलाकान रहे। चाहे जो भी हो, चुनाव लोकतंत्र का महापर्व होता है। इसी के जरिए देश शांति के साथ सत्ता का परिवर्तन करता है। हमें इन चुनावों का स्वागत करना ही चाहिए। होना यह चाहिए कि चुनावों में बदजुबानी कम हो, झूठे नैरेटिव न गढ़े जाएं, लोक के बुनियादी मुद्दे ही उठाए जाएं और नेता चाहे जिस भी पक्ष के हों, अपनी मर्यादा और भाषा का ध्यान रखें।
लेखक – उमेश चतुर्वेदी