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शरिया अदालतें: धार्मिक राज्य स्थापित करने का षड्यंत्र

शरिया अदालतें: धार्मिक राज्य स्थापित करने का षड्यंत्र

by प्रमोद पाठक
in अगस्त २०१८, महिला, सामाजिक
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        मुस्लिमों में भी बहुत सारे अंतर्विरोध और पंथ हैं। वे अपने-अपने से कुरान और शरियत को परिभाषित करते हैं। इस स्थिति में पर्सनल लॉ बोर्ड की अलग शरियत अदालतें गठित करने की मांग न केवल मुस्लिमों को और विभाजित कर देगी; बल्कि देश के संविधान और धर्मनिरपेक्षता की भी ऐसीतैसी कर देगी।

मदरसे का निर्णय

हाल ही में केरल में एक घटना हुई। मदरसे में पढ़ने वाली एक लड़की हिना को इसलिए निकाल दिया गया क्योंकि उसने ‘बिंदी’ लगाकर एक लघु फिल्म में काम किया था। चूंकि यह निर्णय (या सजा) एक मुस्लिम संस्था ने दिया था, तो जाहिर है कि वह शरिया कानून के आधार पर दिया गया था। यह निर्णय उस प्रतिभाशाली लड़की के भविष्य का विचार किए बिना दिया गया था। लेकिन अधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि एक वायरल पोस्ट के अनुसार उसके पिता इसलिए संतुष्ट थे कि उनकी बेटी को केवल मदरसे से निकाला गया था, उसे पत्थरों से मार-मार कर दी जाने वाली मौत की सजा नहीं दी गई थी।

एक इस्लामी संस्था द्वारा दिए गए इस निर्णय के बारे में कई सवाल उठते हैं, विशेषकर अब जब मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने देश भर में शरिया अदालतें स्थापित करने की मांग की है। यह धर्म आधारित अदालतें भारतीय संविधान की धर्म-निरपेक्ष आत्मा के न केवल विपरीत है, बल्कि यह भारत को पिछले दरवाजे से एक धार्मिक राज्य बनाने का षड्यंत्र है। हिना को निष्कासित करने का निर्णय, शुद्ध रूप से हिन्दुओं के प्रति नफरत के भाव से उपजा है।

क्या कोई इस निर्णय का समर्थन कर सकता है, जबकि भारत का संविधान वेशभूषा की संपूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करता है। माथे पर बिंदी लगाने में तो किसी प्रकार की अश्लीलता नहीं है। क्या किसी भी क्रिया को केवल इस आधार पर प्रतिबंधित किया जा सकता है कि कुछ लोगों के मन में किसी और धर्म की परंपरा के प्रति भरपूर नफरत के भाव है? हां, यह एक जानी-मानी बात है कि कई इस्लामी देश दूसरे पंथों के प्रति नफरत को जायज ठहराते हैं, उस नफरत का प्रचार-प्रसार करते हैं। यही नहीं इस्लाम धर्म के ही विभिन्न पंथ आपस में नफरत फैलाते हैं।

किन्तु यह भारत है और यहां एक धर्म-निरपेक्ष संविधान है। भारत का संविधान अपने नागरिकों को अपने धर्म का, व्यक्तिगत और संप्रदाय दोनों स्तरों पर, पालन करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। कई इस्लामिक देशों में ऐसा नहीं होता। कोई यह सोच भी नहीं सकता कि इन देशों में शरिया के अलावा अन्य कोई अदालतें चल सकती हैं। इन देशों में रहने वाले भारतीय नागरिकों पर इन्ही शरिया अदालतों में केस चलाए जाते हैं।

भारत में धर्म-निरपेक्ष संविधान होते हुए भी, यहां मुस्लिम पर्सनल लॉ का प्रावधान किया गया है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड 1930 में अस्तित्व में आया। अंगे्रजों की विभाजनकारी नीति के तहत ही इसे बनाया गया था और विभाजन के बीज भी इसी के माध्यम से बोए गए थे। स्वतंत्रता के बाद, संविधान के निर्माण के समय, राष्ट्र-निर्माताओं ने धार्मिक सहिष्णुता के उदात्त भाव को बनाए रखने के उद्देश्य से मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को जारी रहने दिया। किन्तु शायद उन्होंने यह सपने में भी नहीं सोचा होगा कि आने वाले समय में भारत में मुस्लिम जनसंख्या तीन गुना बढ़ जाएगी और वोट बैंक और तुष्टिकरण की राजनीति के चलते मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसी संस्था शरिया अदालत जैसी अत्यंत असंवैधानिक मांग करेगी।

शरिया के खिलाफ विरोधाभासी निर्णय

कई मामलों में, स्थानीय कठमुल्लों द्वारा दिए गए निर्णय, शरिया कानून से विरोधाभासी हैं। स्तर पर, ये निर्णय शरिया के अनुसार होने थे। कई बार कहा जाता है कि इस्लाम धर्म इस्लाम को मानने वाले किसी से भी भेदभाव नहीं करता। स्वाभविक रूप से इसमें जाति का कोई प्रश्न नहीं आता। लेकिन हरियाणा में, खाप पंचायतों का आतंक धर्मों के पार भी नजर आता है। एक उदाहरण है, जिसमें भारतीय रिज़र्व बटालियन का एक कांस्टेबल इखलाक, जो कि भोंडासा में पदस्थ था, उसने अंजुम से विवाह किया था। दोनों ही मुस्लिम समुदाय से थे। अंजुम से विवाह करने में इखलाक और उसके परिजनों ने किसी भी इस्लामिक या शरिया कानून का उल्लंघन नहीं किया था। लेकिन इखलाक और उसके परिवार को जाति से बाहर निकाल दिया गया क्योंकि दोनों का गोत्र एक था (टाइम्स ऑफ़ इंडिया, 22 मई 2010 )। जाति और सामाजिक विभाजन मुस्लिम समुदाय में भी है।

शरिया अदालतें किसके लिए?

AIMPLB में सुन्नी मुसलमान बहुतायत में हैं। जातिगत गुटबाजी यहां भी भरपूर है। हाल के दिनों में ही शिया प्रतिनिधियों ने तीन तलाक और राम जन्मभूमि जैसे मसलों पर अपने मतभेद व्यक्त किए हैं। उनका मत सुन्नी समुदाय से भिन्न है। मुस्लिम समाज में भी धार्मिक नीतियों को लेकर मतभेद हैं जिसके फलस्वरूप अलग-अलग गुटों ने कुरान की आयतों और हदीस के वक्तव्यों को अपने- अपने ढंग से परिभाषित किया है। देवबंदी और बरेलवी दोनों ही पंथ अपने-अपने विचारों पर अडिग हैं। उनमें कई मामलों में तीव्र मतभेद हैं। इस्माइल और आगाखनी जैसे कई अल्पसंख्यक गुट सुन्नी बहुमत से असंतुष्ट हैं और ये मानते हैं कि AIMPLB में उनके साथ भेदभाव होता है।

गौर करने लायक बात यह है कि MPL अमूमन शरिया कानून का ही पालन करता है और जाने-अनजाने मुस्लिम समाज उसे स्वीकार कर रहा है। यदि AIMPLB शरिया अदालतें लाने में कामयाब हो भी जाता है, तो भी उसे मुस्लिम समाज में व्याप्त गुटबाजी का सामना करना ही पड़ेगा। बिना किसी एकसूत्रता के अखचझङइ शरिया कोड को सारे मुस्लिम समाज पर कैसे लागू कर सकेगा? कई मुस्लिम महिला संगठन एक अरसे से शरिया कानून की नियमावली को परिभाषित करने की मांग करते आए हैं। उचित नियमावली के अभाव में काजियों के स्वभाव और पसंद के मुताबिक न्यायदान होगा। क्या गुट आधारित पसंद-नापसंद के आधार पर काज़ियों द्वारा दिया गया निर्णय व्यापक रूप से संपूर्ण मुस्लिम समुदाय के लोगों को मान्य होगा? छोटे गुट जैसे पसमांदा, अज्लाफ़, अरिजल आदि, उच्च वर्णीय अशरफों द्वारा थोपे गए शरिया कानून को मान्य करेंगे? सदियों से पसमांदा अशरफों के निर्णयों पर अपना असंतोष व्यक्त करते आए हैं। साथ ही, एक बड़े अरसे से उन्होंने अशरफों के दमन को सहा है। इसलिए शरिया अदालतें मुस्लिम समुदाय पर अशरफी धार्मिकता को थोपने का बहुत बड़ा षड्यंत्र है।

धार्मिक स्वतंत्रता

पवित्र कुरान सभी धर्मशील पुरुष एवं महिलाओं दोनों को दूसरे धर्म के लोगों से विवाह करने पर प्रतिबंध करता है (पवित्र कुरान 2.221, 60.10)। कई मुस्लिम अपने जीवनसाथी को स्वयं के मूल धर्म का पालन करने की छूट दे रहे हैं। हाल ही के एक निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने मुंबई उच्च न्यायालय के उस निर्णय से अपने मतभेद जाहिर किए थे जिसके अनुसार महिला का धर्म अपने पति धर्म से ही होना कहा गया था (टाइम्स ऑफ़ इंडिया, 8 दिसम्बर 2017)। इसका अर्थ है कि जीवनसाथी को भी वे सभी अधिकार प्राप्त होंगे- वे अपने मूल धर्म का पालन कर सकेंगे और उससे संबंधित परंपराओं को निभा भी सकेंगे।

क्या शरिया अदालतें सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ जाकर अपने निर्णय देंगी? क्या यह नागरिक के संवैधानिक अधिकारों का हनन नहीं होगा? क्या इस मामले में निर्णय देने वाले काज़ी पर क़ानून तोड़ने के लिए उकसाने और मदद करने का केस नहीं बनेगा? क्या निर्णय देने वाला क़ाज़ी किसी गैर-मुस्लिम महिला को गुलाम मानकर न्यायदान करेगा? …क्योंकि हदीस के अनुसार मुस्लिम पुरुष गैर-मुस्लिम महिलाओं को गुलाम बनाकर रख सकते हैं।

अपराधिक न्याय व्यवस्था 

आज मुसलमानों को भी सामान्य दंड विधान के तहत ही न्यायदान दिया जाता है। सबूतों का कानून भी सभी के लिए समान है, किन्तु इस्लाम में यह अलग है। शरिया क़ानून कई इस्लामिक देश जैसे सउदी अरब, यूएइ में सख्ती से लागू किया गया है। अफगानिस्तान और अल-कायदा जैसे आतंकी संगठनों में तो इसे बहुत ही निर्दय तरीके से लागू किया है। अपराधियों को कोड़े मारना, सर काट देना, पत्थरों से पीट कर मार डालना, हाथ-पैर काट डालना, ये सारी सजाएं यहां सामान्य हैं। क्या भारत की शरिया अदालतें भी अपराधिक मामलों में निर्णय देते समय शरिया के अनुसार उसी प्रकार की सजाएं देंगी? इन सजाओं को कार्यान्वित करने के लिए वे किसे काम पर रखेंगी? क्या ये कर्मचारी, या यूं कहें जल्लाद, ये सारी क्रूर सजाओं का कार्यान्वयन करते समय बहुत ही संगीन अपराध नहीं कर रहे होंगे?

एक छुपा हुआ अलोकतांत्रिक षड्यंत्र

AIMPLB में शामिल कानून के विशेषज्ञ यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि इस प्रकार की शरिया अदालतों का विरोध अवश्य होगा। कई टीवी चैनलों में 9 जुलाई 2018 को इस विषय पर गरमागरम बहस हुई। इस मांग का सीधा-सीधा उद्देश्य मुस्लिम समाज को भड़काना, और मुस्लिम समाज पर धार्मिक राज्य थोपना है। इसका उद्देश्य मुस्लिम समाज के लोगों में कठमुल्लों का वर्चस्व फिर एक बार स्थापित करना है, जिनका महत्त्व हाल के दिनों में बहुत कम हो गया है।

इस मांग के पीछे एक और बहुत गहरी साज़िश है। देश भर में मदरसों का जाल फैला हुआ है। लाखों मुस्लिम युवकों को इस्लामिक पुस्तकों और अरबी भाषा का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। वे वर्तमान की मुख्य धारा वाली शिक्षा पद्धति से पूरी तरह अलग-थलग पड़े हुए हैं और इसलिए रोजगार योग्य भी नहीं हैं। पहले इन युवकों को इस्लामी देशों में मुल्ला के काम मिला करते थे। लेकिन अरबी और अफ़्रीकी देशों के बीच लगातार चल रही अन्तर्निहित हिंसा के कारण, अब यह रास्ता भी बंद हो चुका है। देश भर में शरिया अदालतों की स्थापना कर बड़े पैमाने पर रोजगार का निर्माण करना, फिर चाहे वह कम आय वाला ही क्यों न हो, भी इनका एक उद्देश्य है। मस्जिद के इमामों की तर्ज़ पर, नई पीढ़ी को मदरसा शिक्षा की ओर आकर्षित करने का यह एक षड्यंत्र है ।

इसके साथ ही AIMPLB बड़ी चालाकी से मुस्लिम मतदाताओं और राजनैतिक पार्टियों के साथ साठ-गांठ बनाने में लगी हुई है। चूंकि अगले साल लोकसभा चुनाव होने वाले हैं, AIMPLB उस पार्टी को मुस्लिमों के सारे वोटों का आश्वासन दिला सकती है, जो उनकी शरिया कोर्ट की मांग को अपने घोषणा-पत्र में शामिल करें। यह शरिया अदालतों के बहाने मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण करने का षड्यंत्र है ।

हालांकि, AIMPLB की इन सारी उम्मीदों पर पानी फिरने वाला है। इस मांग से मुस्लिमों में पंथ आधारित अलगाववाद और बढ़ेगा। अशरफ़ और पसमांदा जमातों में मतभेद और बढ़ेंगे। हिंदू स्वाभाविक रूप से उस पार्टी से दूर रहेंगे जो अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के चलते शरिया अदालतों की मांग का समर्थन करेंगे।

मुस्लिम समाज के शिक्षित और प्रबुद्ध वर्ग के लिए यह एक सुनहरा मौका है AIMPLB में बैठे उन कट्टरपंथी कठमुल्लों के विरोध में खुलकर सामने आने का, जिन्हें इस्लामी देश- ‘बदमिजाजी दीनी बंदे’ कहते हैं।

 

 

 

 

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