
अरब-ईरान-मध्य एशिया से आए सैयदों और बहावियों तथा कश्मीरियों में नेतृत्व के प्रश्न पर झगड़ा धीरे-धीरे बढ़ने लगा तो शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला के संघर्ष काल में ही इस संघर्ष गाथा का नामकरण हो गया, शेर-बकरा की लड़ाई। इसमें शेर शेख अब्दुल्ला की पार्टी और बकरा सैयदों और वहाबियों की पार्टी कहलाई जाने लगी। …यह बकरा विचारधारा ही घाटी में क़हर ढा रही है।
जम्मू-कश्मीर सरकार का अंत में अंत हो ही गया। भारतीय जनता पार्टी ने पीडीपी सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। इससे मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती को त्यागपत्र देना पड़ा। दूसरी कोई भी सरकार बनने की संभावना नहीं थी। इसलिए चौबीस घंटे के अंदर- अंदर प्रदेश में राज्यपाल का शासन लागू हो गया।
भाजपा और पीडीपी ने अपने मूल मुद्दों को परे रख कर साझा कार्यक्रम के आधार पर सरकार बनाने का निर्णय किया था। वैसे कश्मीर में पीडीपी मोटे तौर पर उस समूह का बदले हुए रूप में प्रतिनिधित्व करती है जिसे शेख़ अब्दुल्ला के वक़्त में बकरा पार्टी कहा जाता था। उन दिनों बकरा पार्टी की निष्ठा पाकिस्तान के प्रति थी और इक्कीसवीं शताब्दी में पीडीपी के समर्थन का आधार अलगाववादी ही माने जाते हैं। कम से कम बकरा पार्टी नुमा लोगों की हिमायत पीडीपी को हासिल थी या है। इसलिए जब पीडीपी ने राष्ट्रवादी तत्वों का प्रतिनिधित्व करने वाली भाजपा से हाथ मिलाया तो बकरा पार्टी का सींग उठाना स्वभाविक ही था।
इधर जम्मू में यह प्रश्न उठना भी लाज़िमी था कि भाजपा पीडीपी जैसी बकरों से समर्थित पार्टी से हाथ कैसे मिला सकती है? लेकिन जम्मू-कश्मीर में विधान सभा चुनावों में जनादेश के आधार पर तो यही सरकार बन सकती थी। कश्मीर घाटी में बकरा विचारधारा का प्रभाव और रणनीति शेख़ अब्दुल्ला के समय ही शुरू हो गई थी। परन्तु लगता है महबूबा मुफ्ती अंत तक बकरा पार्टी के वैचारिक आधार और प्रशासन की सीमाओं में संतुलन साधने में ही लगी रहीं और अंततः उसमें असफल हो गईं। अब वे कह रही हैं कि मैंने ग्यारह हजार पत्थर फेंकने वाले युवकों को रिहा कर दिया, इसका सीधा अर्थ है वे बकरा पार्टी के प्रभाव में ही काम कर रही थीं। या फिर एक साथ दो नावों में सवारी करने की नई तकनीक विकसित कर रही थीं।
बीच-बीच में उनकी सरकार सशस्त्र बलों के जवानों पर एफ़आईआर भी दर्ज करवाती थीं। इसका सीधा अर्थ है वे उस क्षेत्र में प्रवेश कर गई थीं, जहां उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में नहीं जाना चाहिए था। वह क्षेत्र अलगाववादियों का वैचारिक क्षेत्र था। वैसे तो महबूबा मुफ़्ती की पार्टी के लिए यह कोई नया क्षेत्र नहीं था, इसी क्षेत्र ने उनकी पार्टी को पाला-पोसा था। लेकिन भाजपा-पीडीपी सरकार के नए प्रयोग से आम कश्मीरी को लगने लगा था कि शायद पीडीपी भी अलगाववादियों की बकरा विचारधारा के छायाजाल से मुक्त होकर घाटी में शांति स्थापना के लिए सचमुच काम करेगी। सरकार के इस प्रयोग से उत्साहित होकर ही कश्मीर घाटी के लोग और कश्मीर पुलिस के सिपाही भी आतंकवादियों से लोहा लेने लगे थे। पहली बार ऐसा हुआ कि जम्मू कश्मीर पुलिस के जवानों ने आतंकवादियों से लोहा लिया। वे कश्मीर में शांति की तलाश में शहीद भी हुए। लेकिन शायद महबूबा मुफ़्ती अब अमन पसंद करने वाले कश्मीरियों के साथ क़दम से क़दम मिला कर चल पाने में स्वयं को असमर्थ पा रही थीं।
सुरक्षा बल आतंकियों का सफ़ाया करने में लगे थे और महबूबा सुरक्षा बलों को घेरने वाले पत्थरमारों को बचाने की कोशिश किसी न किसी बहाने करती नज़र आ रही थीं। दरअसल कश्मीर घाटी में लड़ाई उस दौर में पहुंच गई थी कि आपको किसी एक के साथ साफ़ तौर पर खड़े होना ही पड़ेगा। या तो आम कश्मीरी के साथ या फिर बकरों के साथ। आतंकवादियों द्वारा शुजात बुखारी और एक और गुज्जर सैनिक औरंगज़ेब की अमानुषिक हत्या इस बात के स्पष्ट संकेत थे कि अब महबूबा ज़्यादा देर मध्यमार्गी नहीं हो सकती थी।
महबूबा मुफ़्ती की अपनी सीमाएं हैं। जिन अलगाववादियों ने कभी पीडीपी का समर्थन किया था उनका नियंत्रण सीमा पार के शासकों के हाथ में है। उन शासकों की इस छद्म युद्ध को लेकर एक पूरी रणनीति है। वे कश्मीर घाटी में काम कर रहे अलगाववादी गुटों या फिर उनके प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन से पले-बढ़े राजनैतिक दलों को उस निर्धारित रणनीति से एक इंच भी दाएं बाएं होने की अनुमति नहीं देते। शुजात बुखारी की निर्मम हत्या को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना होगा।
बुखारी मोटे तौर पर वह सब कुछ लिखते कहते थे जो अलगाववादियों को पसंद था। वे अपने तरी़के से सुरक्षा बलों की कार्रवाई का विरोध ही करते थे। प्रत्यक्ष या परोक्ष पत्थरमारों का भी वे समर्थन करते थे। लेकिन अब वे कश्मीर घाटी में शांति स्थापना की बात भी करने लगे थे। बुखारी के पास भी शांति स्थापना की बात करने के सिवाय दूसरा विकल्प नहीं था। वे स्वयं भी सीधे या टेढ़े तरीके से पीडीपी से जुड़े हुए माने जा सकते थे। उनका भाई महबूबा मुफ़्ती की सरकार में मंत्री था। अलगाववादियों के समर्थन से सीटें जीतने वाली पीडीपी अब सत्ता में थी। इसलिए वह घाटी में शांति की इच्छुक थी। पीडीपी या महबूबा को अब अलगाववादियों के एजेंडा और शांति स्थापना के बीच संतुलन साधना था। लेकिन सीमा पार के नियंत्रक इस क्षेत्र में अपनी रणनीति से हट कर किसी और प्रयोग के लिए थोड़ा सा अवसर देने के लिए भी तैयार नहीं हैं। बुखारी इसी अवसर को तलाशने के चक्कर में अपनी जान से हाथ धो बैठे। अरसा पहले अब्दुल गनी लोन के साथ भी यही हुआ था। बुखारी और औरंगज़ेब की हत्या के बाद महबूबा मुफ़्ती को कोई साहसिक निर्णय लेना था। उसकी पार्टी को अब कौन सा रास्ता चुनना है? अलगाववादियों की सहानुभूति से सीटें जीतने का पुराना रास्ता या फिर शांति स्थापना का नया रास्ता।
महबूबा मुफ़्ती की सरकार एक दूसरे मोर्चे पर भी फेल हुई। वह ऐसा मोर्चा था जिससे लोहा पीडीपी ही ले सकती थी। यह काम महबूबा को सरकार की मुख्यमंत्री होने की हैसियत से नहीं बल्कि अपनी पार्टी की मुखिया होने की वजह से करना था। इसमें सुरक्षा बलों की भी कोई भूमिका नहीं हो सकती थी। वह था मारे गए आतंकवादियों के मारे जाने पर निकाले जाने वाले जनाजों में एकत्रित होती भीड़ और आतंकियों को घेरे जाने और मुठभेड़ करते सुरक्षा बलों पर पथराव करते कुछ युवक। ये लोग कौन हैं? क्या वे ऐसे मौकों पर इच्छा से आते हैं या फिर किसी सिस्टम से बँधे अनिच्छा से आते हैं? महबूबा मुफ़्ती अच्छी तरह जानती होंगी कि इसके लिए जमायत जैसी संस्थाओं का नेटवर्क प्रयोग में लाया जाता है जिसका संगठन कश्मीर घाटी, ख़ासकर दक्षिण कश्मीर में फैला हुआ है। जमायत के पीछे आतंकियों का हाथ है। इसी नेटवर्क के आदेश पर पत्थरमार काम करते हैं और इसी के आदेश पर आतंकियों के जनाजों में इच्छा अनिच्छा से छातियां पीटते हैं।
इस नेटवर्क को यदि पीडीपी चाहती तो तोड़ सकती थी या फिर कम से कम तोड़ने का प्रयास तो कर सकती थी। लेकिन यह प्रयास न तो अपने समय में नेशनल कान्फ्रेंस ने किया और न ही यह प्रयास पीडीपी ने किया। हो सकता है ये दोनों पार्टियां अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार इस नेटवर्क का दुरुपयोग अपनी राजनीति के लिए करती हों।
चुनाव का बहिष्कार करने में हुर्रियत के साथ-साथ यह नेटवर्क भी काम करता है। चुनाव के बहिष्कार के कारण नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी, दोनों को ही सीटें जीतने में आसानी हो जाती है। फारुक अब्दुल्ला, जो श्रीनगर लोकसभा के लिए हुए उपचुनाव में विजयी हुए, वे बहिष्कार के कारण ही हो सके। अन्यथा उनके जीतने की संभावना नहीं थी। इस नेटवर्क को तोड़ने में सोनिया कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं हो सकती, क्योंकि घाटी में अब कांग्रेस का नामलेवा भी कोई नहीं बचा है। वस्तुस्थिति तो यह है कि कश्मीर घाटी का प्रत्येक राजनैतिक दल घाटी को अशांत रखना चाहता है। क्योंकि घाटी के दोनों मुख्य राजनैतिक दल पारिवारिक दल ज़्यादा हैं जिनमें आम जनता की भूमिका बहुत कम है। यदि आम जनता को आज़ादी से मतदान का अधिकार मिल जाए तो घाटी में नया युवा राजनैतिक नेतृत्व उभर सकता है और दोनों दलों का पारिवारिक नेतृत्व हाशिए पर आ जाएगा। इसलिए दोनों राजनैतिक दल चुनाव के बहिष्कार की कामना करते रहते हैं। लेकिन पीडीपी के भीतर भी इन प्रश्नों को लेकर कहीं न कहीं बहस चलती रहती है।
बकरा पार्टी का अर्थ और उसका नामकरण
कश्मीर घाटी में बकरा पार्टी किसी राजनीतिक दल का नाम नहीं है बल्कि यह एक विचारधारा है, एक आइडिया है, जो कश्मीर घाटी में से कश्मीरियत को सोख कर उसका अरबीकरण करना चाहती है। घाटी में बकरा विचारधारा की आइडिया के पैरोकार अरसा पहले अरबस्तान से आकर बसे या तो अरब हैं या फिर मध्य एशिया के वे जन समुदाय हैं जो सदियों पहले अपना मज़हब छोड़ कर अरबों की क़तार में शामिल हो गए थे।
इस अवधारणा को मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के स्पष्टीकरण से ज़्यादा अच्छी तरह समझा जा सकता है। मौलाना ने लिखा है, हिन्दुस्तान के 95 प्रतिशत मुसलमान हिन्दुओं की औलाद हैं। पांच प्रतिशत मुसलमान विदेशी विजेताओं के साथ आए थे। ये पांच प्रतिशत मुसलमान जिनके पूर्वज हिन्दुस्तान को जीतने के लिए आए थे और उन्होंने उसे सचमुच जीत भी लिया था, अभी भी अपने आपके 95 प्रतिशत हिन्दुस्तानी मुसलमानों, जो उनके अपने शब्दों में ही हिन्दुओं की ही औलाद हैं, का नेता मानते हैं।
कश्मीर घाटी के इतिहास में कई सौ साल बाद ऐसा वक़्त आखिर आ ही गया जब एक शेख़, जिसका नाम मोहम्मद अब्दुल्ला था, ने पांच प्रतिशत के नेतृत्व को हाशिए पर धकेल कर 95 प्रतिशत हिन्दुओं की औलाद वाले कश्मीरियों का परचम फहरा दिया। 1931 में जब शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला ने कश्मीर घाटी में महाराजा हरि सिंह के ख़िलाफ़ मोर्चा बांध कर विद्रोह किया तो शुरू में उनकी सहायता मौलाना आज़ाद द्वारा चिह्नित इन्हीं पांच प्रतिशत मुसलमानों ने की थी। जामा मस्जिद के मीर वायज यूसुफ़ शाह ने ही उन्हें कश्मीरियों से रूबरू करवाया था। जामा मस्जिद में जुम्मे की नमाज़ के बाद मोहम्मद अब्दुल्ला को आम कश्मीरी से मुख़ातिब होने का मंच मीर वायजों ने ही दिया था। उनको लगता था कि मोहम्मद अब्दुल्ला भी उनके नियंत्रण में उसी प्रकार रहेगा जैसे अब तक सैयदों के मजहबी नियंत्रण में कश्मीरी रह रहे थे। लेकिन शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला धीरे- धीरे उनकी छाया से बाहर होने लगा। कश्मीर घाटी के कश्मीरियों का नेतृत्व सचमुच एक कश्मीरी के हाथ में आने लगा। तब यक़ीनन इन पांच प्रतिशत को चिंता होने लगी और उन्होंने शेख़ के हाथों से नेतृत्व छीनने की कोशिश शुरू की और वे शेख़ अब्दुल्ला के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतर आए थे।
कश्मीरियों का नेतृत्व करने के प्रश्न पर अरब-ईरान-मध्य एशिया के इस समुदाय और कश्मीरियों में धीरे-धीरे झगड़ा बढ़ने लगा तो शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला के संघर्ष काल में ही इस संघर्ष गाथा का नामकरण हो गया, शेर-बकरा की लड़ाई। शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला के साथ कश्मीरियों को शेर कहा जाने लगा और यूसुफ़ शाह के चेलों को बकरा कहा जाने लगा।
यह नामकरण कब हुआ और किसने किया, इसका पता लगाना तो आसान नहीं है लेकिन कश्मीरी जनमानस ने इसे जल्दी ही स्वीकार कर लिया और कश्मीर की राजनीति का मूल्यांकन इसी शब्दावली में होने लगा। कश्मीरियों की पार्टी शेर पार्टी कहलाई और अरब-ईरानियों-मध्य एशियाई आक्रमणकारियों के वंशजों की पार्टी बकरा पार्टी कहलाई। दूसरी पार्टी के मुल्ला मौलवी ज़्यादातर लम्बी दाढ़ी रखते थे, उस के चलते ही उनका नामकरण बकरा पार्टी हुआ होगा, ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है। शेर पार्टी का नेता शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला को माना जाता था। शेर पार्टी और बकरा पार्टी में भयंकर झगड़ों के ये क़िस्से कश्मीरी लोक साहित्य तक में दाख़िल हो गए।
कश्मीर घाटी में सैयदों और बहावियों द्वारा फैलाई जा रही यह बकरा विचारधारा ही घाटी में क़हर ढा रही है। पीडीपी को साथ लेकर भाजपा ने इसी विचारधारा को घाटी में अप्रासांगिक बनाने के लिए यह नया प्रयोग किया था। इसमें कुछ सीमा तक सफलता भी मिली। लेकिन एक सीमा से आगे महबूबा मुफ़्ती ने आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया। अब भाजपा के पास सरकार से हाथ खींच लेने के सिवा कोई विकल्प नहीं था। और उस ने उसी विकल्प का चयन किया। वह कश्मीरियों से विश्वासघात नहीं कर सकती थी।