जब मस्जिदों पर लगे लाउडस्पीकर से नमाज की तेज कर्कश आवाज चारों ओर गूंजती है, तब सहसा संत कबीर के इस दोहे ‘कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय। ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय॥’ का स्मरण हो उठता है।
तुलसी, सूर, कबीर और रहीम रसखान में कोई तात्विक भेद नहीं है बस अंतर केवल शब्दों का है, किंतु सांस्कृतिक मूल्यों पर चोट करने वालों के लिए ये शब्दों का अंतर ही झूठ को परोसने का सबसे बड़ा हथियार है। जबकि ये सर्वविदित तथ्य है कि संत कबीर दास रामानंद स्वामी के शिष्य थे। इनकी शिक्षा दीक्षा और आध्यात्मिक धारा परम्परा सब रामानंदी परम्परा पर आधारित थी। जहां तक रूढ़िता पर चोट एवं नवाचार के चलन की बात है तो ये कुछ निश्चित ही इन्हें अपने गुरुदेव स्वामी रामानंदाचार्य से मिली थी।
दरअसल ये वो दौर था जिसमें भारतीय समाज पर बाह्य आघात के साथ ही आंतरिक बदलाव का भी दबाव था। अतिवादी इस्लाम के शासन ने सामाजिक वर्ग भेद को मिटा कर एक नवीन पहचान कायम करने की परिस्थितियों का निर्माण किया था। इसी दौरान अग्रणी नायक पथ प्रदर्शको में से एक संत कबीर भी थे। गुरु रामानंद ने जाति से परे एक ऐसे समाज का विचार किया जहां सभी के लिए भक्ति और मुक्ति का द्वार खुला था। क्योंकि यही उस दौर में अतिवादी इस्लाम का उत्तर हो सकता था। वही एक आहत सभ्यता को उसके सांस्कृतिक मूल्यों से अभिन्न रखते हुए प्रतिघात की शक्ति भी दे सकता था। बस आवश्यकता इसके सर्वस्पर्शी, सर्वसुलभ और तार्किक होने भर की थी। इसे ही तो कबीर दास ने अपने गुरु भाईयों संग मिलकर विस्तार दिया था। गुरु रामानंद ने कहा ‘जाति पांति पूछे नहिं कोई, हरि को भजे सो हरि को होय’। वही कबीर और रविदास जैसे शिष्यों ने आगे बढ़कर तर्क, तथ्य, यथार्थ और सबों से अनुराग रहित इस्लाम के खिलाफ मोर्चा ही खोल दिया। जिसकी बानगी संत रविदास के ‘वेद धर्म छोडूं नहीं, क्यों पढू असत्य कुरान’ और कबीर साहेब की वाणी ‘कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय। ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय॥’ जैसे पदों से समझा जा सकता है। यह तत्कालीन शासन व्यवस्था के विरुद्ध एक शंखनाद था। वहीं इन संतों के वाणी का प्रभावी होने का एक कारण इनकी जीवनचर्या भी थी। ये समाज के बीच रहते हुए श्रम द्वारा आजीविका उपार्जन पालन करते हुए धर्म प्रचार करते थे। इन्हें ना तो अपने काम पर शर्म था और ना ही अपने धर्म पर कोई संदेह था। इस नाते ये शासकीय संरक्षण वाले पीर मुरीद और मुल्ला काजी से नितांत भिन्न थे। वही रही सही कसर इनके सहजता समर्पण और सिद्धि ने पूरी कर दी थी। इनके चमत्कार और व्यवहार के ऐसे अनेकों किस्से सुनने को मिलते है। वास्तव में लोकचेतना के लोकनायक है। सम्भवतः इसलिए इनके जन्म को अवतार विशेष से जोड़ने का प्रयास हुआ है।
सनातन धर्म के साम्प्रदायिक मान्यताओं के अनुसार गुरु रामानंद एवं सभी बारह शिष्य स्वयं में दैवीय अवतार थे। आखिर हो भी क्यों नहीं, इनका जन्म ही तो अन्याय-अधर्म के प्रतिकार धर्म के संस्थापनार्थ जो हुआ था। बात कबीर दास की करे तो परवर्ती कबीर पंथ से लेकर रामानंद सम्प्रदाय तक इन्हें भक्तराज प्रहलाद का अवतार माना जाता है। बात इनके प्राकट्य दिवस की करे तो यह जेठ पूर्णिमा को मानी जाती है। इनका प्रारम्भिक जीवन थोड़ा अलग रहा है। एक वर्ग इन्हें मुस्लिम समुदाय का मानता है। वही कबीर पंथ की मान्यताओं के अनुसार इनका इस्लाम मजहब से कोई लेना देना नहीं था। दरअसल इनका आरम्भिक लालन पालन निसंतान नीरू जुलाहा दम्पति के द्वारा होने के नाते ऐसी कथा चलन में है। वैसे इस दम्पत्ति के मुस्लिम बुनकर होने को भी लेकर संशय है। जहां कुछेक मान्यताओं के अनुसार ये हिंदू ही थे, किंतु बुनकर बिरादरी के एक बड़े वर्ग के धर्मांतरण नाते ये भी मुस्लिम मान लिए गए। वही दूसरी एक मान्यता के अनुसार यह तांती बुनकर परिवार मुस्लिम मजहब से ताल्लुक रखने के बावजूद भी अपने पुरातन मान्यताओं से जुड़ा था। इसके अनुसार यह परिवार पीढ़ियों से नाथपंथी संतों के अनुयायी थे। अस्तु! यथार्थ जो भी हो पर बालपन से ही सनातन धर्म में गहरी आस्था और आजीवन तक के गहरे विश्वास पर कभी इनके परिवार ने प्रश्न नहीं उठाया। जबकि ये अपने शब्दों से इस्लाम के अतिवादी विचारों पर सदैव चोट करते रहे।
बात इनके अपने गुरु से भेंट की हो तो इसका साक्षी काशी का गंगा घाट है। ये यही गंगा स्नान को आते-जाते स्वामी रामानंदाचार्य को सीढ़ियों पर मिले थे। यह भेंट आजीवन चलने वाली थी, एक बार गुरु को मिले तो गुरु के होकर रह गए। लड़कपन में मिला राममंत्र इनके जीवन की एक नई दिशा का प्रारम्भ था। जिसे ये कहते है कि ‘भक्ति द्रविड़ उपजी लाए रामानंद, कबीर ने परगट करो, सात दीप नव खंड’। समय के साथ उनकी ये वाणी सिद्ध होती चली जा रही है। संत कबीर दास के शिष्य परिशिष्यों ने इसे पूर्ववर्ती रामानंद सम्प्रदाय की तरह ही विस्तार दिया है। जिसकी परिणति है कि कबीर पंथ में भी करीब एक दर्जन शाखा है। इसमें सुरत गोपाल, राम कबीर, जागू पंथ और जीवा इत्यादि प्रमुख है।
कबीर दास के इस मत में बिना किसी भेदभाव के समाज के आखिरी आदमी तक के लिए जगह थी। इसके आगमन ने इस देश में नानक, दादू, सतनामी, दरिया, यारी और बाउल जैसे पंथों के लिए भी मार्ग प्रशस्त किया था। जिसमें कुछ इनके समकालीन तो कुछ परवर्ती थे।
काशी के प्रसिद्ध कबीरचौरा मठ की बात करें तो यह मगहर के कबीर निर्वाण स्थली के समान ही एक महत्वपूर्ण स्थान है। इस मत के साम्प्रदायिक मान्यताओं के अनुसार विक्रम सम्वत 1485 में गुरु रामानंदाचार्य के आदेश पर कबीर दास ने यहां अपनी गद्दी स्थापना की थी।
वैसे संत कबीर की पूरी जीवन यात्रा ही काशी से अयोध्या के बीच की है। पहले गुरु रामानंद स्वामी के सानिध्य में काशी रहे और फिर अपने आराध्य के धाम अवध में मगहर ग्राम जा बसे।
कबीर कहते है ‘राम रसाइन प्रेम रस पीवत अधिक रसाल, कबीर पीवण दुर्लभ है मांगे सीस कलाल’। राम की भक्ति में रमा जीवन राम के चरणों में ही लीन हो गया। बात कबीर साहित्य की करें तो इनकी वाणी के संग्रह को बीजक कहते है। इसके रमैनी, सबद और साखी तीन हिस्से है। लोकजीवन के लोकउपयोगी बातों से लेकर अध्यात्म के गूढ़ तत्व तक इसमें लिखे गए है। भक्ति रस से सराबोर इन काव्यों को सिख पंथ के गुरुग्रंथ साहिब तक में पर्याप्त स्थान मिला है। इनके 200 पद और 250 साखि के समावेश से ये ग्रंथ परिपूर्ण हुआ है, किंतु दुर्भाग्यवश संत कबीर के नाम पर ऐसे कई पद चलन में है जिनका आधार लेकर सनातन धर्म पर तथाकथित प्रगतिशीलों द्वारा चोट किया जाता है। आखिर जो कबीर सिकंदर लोदी के धर्मांध शासन और मुल्ला मौलवियों के अनुचित कारस्तानियों का सदैव प्रतिकार करते रहें, वो भला क्यों सदभाव, साहचर्य, सहअस्तित्व और सहयोग भावना से परिपूर्ण सनातन हिंदू धर्म पर चोट करते। वास्तव में आवश्यकता संत कबीर साहित्य के मिलावटों को भी दूर करने की है। कबीर मत के पांथिक विचार परिवार को एकमत होकर सकारत्मक पहल करनी चाहिए।