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विमर्श के लिए आवश्यक संसाधन और सहायता

विमर्श के लिए आवश्यक संसाधन और सहायता

by आशीष अंशू
in अवांतर, ट्रेंडींग, मीडिया, राजनीति, विशेष
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सोशल मीडिया फुट सोल्जर की तरफ ध्यान देने की बहुत जरूरत है। वे लोग पार्टी से कुछ मांग नहीं रहे, लेकिन भाजपा के नैरेटिव को बढ़ाने के अपराध में उन पर विपक्ष का हमला हो अथवा एफआईआर दर्ज किया जाए तो ऐसी लड़ाई में उन्हें अकेले छोड़ना ठीक नहीं है। ऐसा लगता है कि निस्वार्थ भाव से राष्ट्रीय विचारों के लिए लड़ने वाले उन लाखों लोगों के पसीने की भाजपा को पहचान नहीं है। यदि यह सच है तो अब भी देर नहीं हुई है, बड़ी-बड़ी कंपनियों पर डाटा के लिए करोड़ों रूपए खर्च करने की जगह इन पैसों से पार्टी के लिए समर्पित भाव से काम कर रहे समर्पित इन्फ्लूएंसर और सोशल वर्कर्स को संसाधन से सशक्त करके उनके काम को सहायता की जा सकती है। जिससे वे अधिक प्रोफेशनल तरीके से नैरेटिव बिल्डिंग का काम कर पाएंगे।

यह प्रश्न अब भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों के एक बड़े वर्ग के बीच 04 जून से ही चर्चा का विषय है कि कमी कहां रह गई? तैयारी 400 पार की थी। फिर बहुमत के तय अंक से भी गाड़ी पीछे कैसे ठहर गई? यहां समझने वाली बात है कि अभी भी भाजपा ने सबसे अधिक सीटों पर विजय हासिल करके, तीसरी बार मोदीजी के नेतृत्व में सरकार बनाई है। जिन दलों के साथ नई सरकार बनी है, इनके साथ प्री पोल अलायंस था। चुनाव के बाद इनको साथ में नहीं लिया गया है। अब प्रश्न है कि ऐसे में निराशा का माहौल क्यों है?

उन दो विद्यार्थियों के उदाहरण से इस बात को समझते हैं। एक जिसने परीक्षा में तीसरी श्रेणी से उत्तीर्ण होने भर की तैयारी की थी। नकल और जुगाड़ से दूसरी श्रेणी से उत्तीर्ण हो गया और दूसरा जो 98 प्रतिशत से टॉप होने की योग्यता के साथ परीक्षा में उतरा था और वह टॉप भी हुआ, लेकिन नंबर उसके 75 प्रतिशत ही रह गए। ऐसे में दूसरी श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ छात्र यदि अधिक खुश है और उछल कूद रहा है, तो इस बात को समझा जा सकता है। चिंता की बात उस छात्र के लिए है, जिसकी तैयारी 98 प्रतिशत नंबर लाने की थी और वह 75 प्रतिशत ही अंक ला पाया। इसमें कमी कहां रह गई?

बेतिया, पश्चिम चंपारण (बिहार) के भाजपा कार्यकर्ता नितिश प्रशांत तीस—पैंतीस साल पुरानी बात बताते हैं, उन दिनों सुबह नाश्ता करके छह बजे चुनाव के दिन बुथ के लिए वे घर से निकल जाते थे। एक-एक वोट पर नजर रखी जाती थी। देर शाम को सारे मतों की गिनती करके, उसका मिलान करके गिरे हुए मतों की संख्या जिला कार्यालय में बताकर ही घर जाना होता था। पार्टी को लेकर यह कार्यकर्ता का समर्पण ही होता था कि वह अपना खाना पीना सब भूलकर 12 घंटे एक सिपाही की तरह बुथ पर डंटा होता था। इस काम के बदले पैसे क्या मिलते, कई बार कार्यकर्ता की जेब से भी पैसे लग जाते थे। फिर भी पार्टी के लिए काम करने का आनंद ही अलग था। कार्यकर्ताओं को नेता नाम से जानते थे और सम्मान भी देते थे। नितिश प्रशांत कहते हैं, इस बार के लोकसभा चुनाव में कार्यकर्ताओं का पार्टी से कोई लगाव दिखाई ही नहीं दे रहा था। वे पार्टी के कार्यकर्ता हैं और इस चुनाव में कार्यालय से एक फोन तक नहीं आया। इसका अर्थ उन्होंने यही लगाया कि अब पार्टी के पास काम करने वालों की संख्या बढ़ गई है, इसलिए जो 30 साल से जो परम्परा चली आ रही थी, वह टूट गई,

लेकिन चुनाव वाले दिन उन्हें अपने चुनाव बुथ पर यह देखकर आश्चर्य हुआ कि 10 बजे वे बुथ पर पहुंच रहे हैं। जिन कार्यकर्ताओं को बुथ पर रहना था, जिन्हें मतदाताओं को पर्ची देनी थी, वह मतदाता को बता रहा है कि वे खुद अपनी पर्ची तलाश कर निकाल लें। चलते चुनाव में पोलिंग करा रहे कार्यकर्ता 5 बजे तक अपने घर के लिए निकल गए। मतलब जिस कार्यकर्ता को बुथ पर बिठाया गया था पैसे देकर, वह पैसों के लिए काम कर रहा है। उसका पार्टी की जीत-हार से कोई लगाव नहीं है। वह 10 बजे आया और 5 बजे चला गया। उसे यह भी नहीं पता कि उसके बुथ पर कितने वोट पड़े? कार्यकर्ता और पार्टी के बीच का सम्बंध अब पहले की तरह नहीं रह गया है क्योंकि चुनाव कार्यकर्ताओं की सहायता से नहीं प्रबंधन की तकनीक से लड़ा जा रहा है। इस वजह से कार्यकर्ता पार्टी से कटे हैं। ग्रामीण अंचलों में बुथ स्तर से लेकर दिल्ली तक यह शिकायत आम है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व तक कार्यकर्ताओं की बात पहुंचाने वाला कोई चैनल नहीं है।

पार्टी प्रोफेशनल्स की सहायता से मतदाताओं का हाल जानती है, जबकि कार्यकर्ताओं का फीडबैक हमेशा उन लोगों की तुलना में अधिक सटीक और प्रामाणिक होगा जो मौसमी तौर पर मैदान में उतरेंगे। भाजपा के सदस्यों की उपस्थिति अब देश भर में है। ऐसा कोई राज्य नहीं बचा है, जहां भाजपा ने अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज ना कराई हो। वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी ऐसा इकलौता दल है, जो सही अर्थो में राष्ट्रीय पार्टी है, लेकिन जिस तेजी के साथ पार्टी के अधिकारियों और नेताओं की अपने कार्यकर्ताओं और मतदाताओं से दूरी बढ़ी है। जिस तरह जनता के बीच में गए बिना नेता दिल्ली की परिक्रमा करके पार्टी में आसानी से टिकट लेकर आए हैं, उससे समाज में सही संदेश नहीं गया है। यह सुखद संयोग है कि जब यह लेख लिखा जा रहा है, जिन प्रश्नों पर पार्टी में समीक्षा हो रही है वह सूची मिल गई। जिन प्रश्नों के साथ पार्टी लोकसभा चुनाव परिणामों की समीक्षा कर रहा है, यह सभी प्रश्न महत्वपूर्ण हैं, लेकिन आने वाले समय में उन सुझावों पर अमल होगा जो इस मंथन के बाद सुधार के लिए दिए जाएंगे। बहरहाल एक नजर उन प्रश्नों पर जिसका उत्तर भाजपा अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं के संवाद के बीच से तलाश रही है।

पहला प्रश्न है, क्या सरकार, केंद्र और/या राज्य के निर्णयों ने नुकसान में भूमिका निभाई? पार्टी रणनीतिक विफलताओं की भी समीक्षा करना चाहती है। उम्मीदवार और मतदाताओं के बीच रिश्ते पर प्रश्न है। यहां पार्टी के जो सांसद बाउंसर लेकर चलते हैं, वे जनता से कितना जुड़ पाएंगे, यह क्या पार्टी को अलग से बताने की जरूरत है? प्रधान मंत्री, गृह मंत्री, रक्षा मंत्री जैसे पद पर बैठे वरिष्ठ नेताओं की सुरक्षा की बात समझ में आती है, लेकिन सांसद के साथ चलने वाले सुरक्षाकर्मियों के काफिले को कैसे सही ठहराया जा सकता है? सांसद का दायित्व है कि उसके लोकसभा क्षेत्र के एक-एक नागरिक को सुरक्षा मिले, लेकिन आज इस सोच के साथ कितने सांसद चुनाव के मैदान में उतर रहे हैं? भाजपा की चिंता में शामिल है कि हिंदू मतदाता जातिगत आधार पर क्यों बंट गए? बंटने की बात तो चुनाव के दौरान बार-बार सुनाई पड़ रही थी। इस बात को गम्भीरता से क्यों नहीं लिया गया? उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री का चुनाव के दौरान पार्टी ने उत्तर प्रदेश में उपयोग क्यों नहीं किया? पूरे लोकसभा चुनाव 2024 में उनके सम्भवत: कुल दो साक्षात्कार प्रसारित हुए।

एक प्रश्न यह सामने आया कि प्रचार सामग्री का उपयोग कितने प्रभावी ढंग से किया गया? जिनकी थोड़ी समझ है इस सम्बंध में वे कह सकते हैं कि भाजपा की प्रचार सामग्री मैदान में टिकने लायक नहीं थी। ना ही पूरे चुनाव में पार्टी का आईटी सेल कहीं नजर आया, जबकि कांग्रेस का आईटी सेल सुपर एक्टिव मोड में था। एक दर्जन से अधिक यू ट्यूबरों के लिए लग रहा था कि वे पवन खेरा और सुप्रिया श्रीनेत के लिए ही काम रहे थे। उन कांग्रेसोन्मुख यू ट्यूबर्स के वीडियो का पूरा नैरेटिव कांग्रेस की प्रेस कांफ्रेन्स अथवा पार्टी के हितों के इर्द गिर्द ही गढ़ा जाता था, जबकि भाजपा आईटी सेल और आईटी कंपनियों पर अधिक विश्वास करके बैठी हुई थी। उन लोगों की तरफ एक बार भी देखा ही नहीं, जो 10 साल से राष्ट्रीय विमर्श को मजबूत करने में दिन रात एक कर रहे हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि वे एक के बाद एक झूठ चलाते रहे और सही समय पर उनके फेक न्यूज को काउंटर तक नहीं किया जा सका।

कम शब्दों में इतना लिखा जा सकता है कि पार्टी को अहंकार से भरे नेताओं से किनारा करना होगा। बदलते हुए समाज की इस सच्चाई को समय रहते स्वीकार करना ठीक है कि अब मतदाता और कार्यकर्ता दोनों बदल रहे हैं। उन्हें अपने बीच काम करने वाला नेता चाहिए। उनके सुख-दुख में साथ खड़ा होने वाला नेता चाहिए। पार्टी को भी नेता थोपने की जगह काम करने वाले लोगों को अपना प्रतिनिधि बनाना चाहिए।

सोशल मीडिया फुट सोल्जर की तरफ ध्यान देने की बहुत जरूरत है। वे लोग पार्टी से कुछ मांग नहीं रहे, लेकिन भाजपा के नैरेटिव को बढ़ाने के अपराध में उन पर विपक्ष का हमला हो अथवा एफआईआर दर्ज किया जाए तो ऐसी लड़ाई में उन्हें अकेले छोड़ना ठीक नहीं है। ऐसा लगता है कि निस्वार्थ भाव से राष्ट्रीय विचारों के लिए लड़ने वाले उन लाखों लोगों के पसीने की भाजपा को पहचान नहीं है। यदि यह सच है तो अब भी देर नहीं हुई है, बड़ी-बड़ी कंपनियों पर डाटा के लिए करोड़ों रूपए खर्च करने की जगह इन पैसों से पार्टी के लिए समर्पित भाव से काम कर रहे समर्पित इन्फ्लूएंसर और सोशल वर्कर्स को संसाधन से सशक्त करके उनके काम को सहायता की जा सकती है। जिससे वे अधिक प्रोफेशनल तरीके से नैरेटिव बिल्डिंग का काम कर पाएंगे। कार्यकर्ता, संगठन और नेताओं के बीच समन्वय के लिए अब पार्टी को हर एक लोकसभा क्षेत्र में एक समिति बनानी चाहिए, जो क्षेत्र में किसी तरह की कठिनाई आने पर दिल्ली को सही स्थिति से अवगत करा पाए। ऐसे समितियों की भी उपयोगिता तब तक है, जब तक उनकी आवाज को प्रदेश और केंद्र में सुना जाए।

 

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