श्रीकृष्ण को सामान्य जीवन जीना होता तो नंदभवन में कोई कमी नहीं थी, लेकिन मथुरा के राजसिंहासन पर श्रीकृष्ण इसलिए विराजमान हुए, क्योंकि धर्म की रक्षा और असुरों के नाश के लिए यह आवश्यक था। भगवान श्रीकृष्ण धर्म का संदेश देने, नीति का पालन करने और मानव जीवन के आदर्श मूल्यों को स्थापित करने वाले कुशल राजनीतिज्ञ हैं।
श्रीकृष्ण का चरित्र हजारों वर्षों बाद आज भी सत्य व धर्म की ओर प्रेरित करता है। श्रीकृष्ण अर्थात हजारों वर्षों से व्यक्त-अव्यक्त भारतीय जनमानस में व्याप्त एक कालजयी पुरुष। श्रीकृष्ण शब्द ही भारतीय जीवन प्रणाली का अनन्य उद्गार है। जिस प्रकार आकाश में तपता हुआ सूर्य कभी पुराना नहीं होता है, उसी प्रकार धर्म की रक्षा करने के लिए द्वापर में आएं भगवान श्रीकृष्ण के चरित्र व व्यक्तित्व मानस पटल से विस्मित नहीं किया जा सकता।
भगवान आदि नारायण के 24 अवतारों में प्रमुख कहा जाने वाला श्रीकृष्ण अवतार समग्र सृष्टि को जीवन जीने की कला और दिशा को निर्देशित करने वाले माने गए हैं। श्रीकृष्ण के जन्म से लेकर प्रदीर्घ जीवन में, ऐसा एक भी क्षण प्रतीत नहीं हुआ जब कुछ ना कुछ घटित नहीं हुआ हो। श्रीकृष्ण सभी अर्थों में जीवन को गढ़ने वाले महान विभूति हैं। उनका सबसे बड़ा गुणधर्म यही है कि जहां-जहां जीवन को बिगाड़ने वाली आसुरी शक्तियां रुकावट बनकर खड़ी हुई हैं, उन्होंने अपनी दूरदर्शिता से पहले ही पहचान लिया और अविलम्ब उन्हें जड़मूल से नष्ट कर दिया तथा आम जनमानस को एक नया मार्ग दिया है। एक और बड़ी विचित्र और अलग सी बात श्रीकृष्ण के जीवन चरित्र में हमें देखने को मिलती हैं कि उनका जीवन का संघर्ष कहीं दूर -दराज के लोगों से या फिर अपरिचित राजा महाराजाओं से नहीं बल्कि उनका संघर्ष तो अपनों से था।
श्रीकृष्ण के इस लीला चरित्र से सिद्ध होता है कि हतोत्साहित करने वाला कोई और नहीं बल्कि आपके अपने ही होंगे, लेकिन हमें निराश होकर परेशान नहीं होना चाहिए, निरंतर तीव्र गति से संघर्षों को चुनौती देते हुए आगे बढ़ना है। जिस तरह से ठहरे हुए पानी में काई जम जाती है, फिर वह किसी भी उपयोग में नहीं लिया जाता, उसी प्रकार मानव जीवन भी जब ठहर जाता है तो वह अयोग्य हो जाता है। स्वयं को चुनौती देना और उसे स्वीकार कर उसका समाधान निकालना ही पुरुषार्थ है। श्रीकृष्ण का जीवन चरित्र जीने की सभी कलाओं से परिपूर्ण है। हमारे जीवन में जो सामान्य से सामान्य घटना घटित होती है, वह श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व से होकर गुजरती है।
भगवान श्रीकृष्ण की बाललीला का स्मरण करे तो सुंदर सलोने से नंदभवन में ठुमक-ठुमक कर चलना, थोड़े बड़े हुए तो माखन चोरी की लीला, थोड़े और बड़े हुए तो ग्वाल-बालों के साथ गोचारण लीला। बाल्यकाल में अनेक नाम और रूप धारण करने वाले कान्हा किशोर अवस्था में ही कंस का वध कर दिया और फिर जरासंध के साथ भी युद्ध किया। जरासंध अनेक बार मथुरा पर चढ़ाई करके आया और हर बार हार गया। श्रीकृष्ण को सामान्य जीवन जीना होता तो नंदभवन में कोई कमी नहीं थी, लेकिन मथुरा के राजसिंहासन पर श्रीकृष्ण इसलिए विराजमान हुए, क्योंकि धर्म की रक्षा और असुरों के नाश के लिए यह आवश्यक था। भगवान श्रीकृष्ण धर्म का संदेश देने, नीति का पालन करने और मानव जीवन के आदर्श मूल्यों को स्थापित करने वाले कुशल राजनीतिज्ञ हैं।
श्रीकृष्ण के आदर्श जीवन चरित्र से आम जनमानस को यह शिक्षा मिलती है कि अपने जीवन की सुख-सुविधाओं से संतुष्ट होकर जीवन जीना पशु के समान है। हमारे समाज में किस-किस प्रकार की विकृतियां पनप रही हैैं, हमें उनका डटकर सामना करना चाहिए।प्रेम में व्यक्ति हृदय से जुड़ा होता है, प्रेम कभी किसी से बदले में कुछ मांगता नहीं है। जितना सम्भव हो सके देता है। श्रीकृष्ण के चरित्र से यह दृष्टव्य है कि जब मथुरा जाने की बारी आई और कृष्ण ब्रज को छोड़कर गए तो फिर वापस कभी नहीं आए, किंतु बृजवासियों का प्रेम सदैव उनके अंतःकरण में स्थापित रहा, तभी तो ऊधौ से श्रीकृष्ण ने कहा है, जिसे सूरदासजी ने अपनी सुंदर रचना से प्रस्तुत किया है –
ऊधो मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।
बृंदावन गोकुल बन उपबन, सघन कुंज की छाहीं॥
उधो मोह ब्रज बिसरत नाहीं…
आधुनिक युग में भले ही प्रेम देह का विषय हो गया हो, किंतु प्रेम का सही पर्याय तो अनुभूति है और कृष्ण-राधा का प्रेम समाज को यही शिक्षा, प्रेरणा देता है कि प्रेम स्वार्थ में नहीं त्याग से बढ़ता है। प्रेम बंधन की वस्तु नहीं, प्रेम तो स्वतंत्र होता है जो चाहता कुछ नहीं, बस देना चाहता है।
धर्मो रक्षति रक्षित: धर्म की रक्षा करने वाले की रक्षा स्वयं धर्म करता है। समाज को श्रीकृष्ण चरित्र और व्यक्तित्व का चिंतन करके उनके आदर्श मूल्य का अनुकरण करना चाहिए। एक स्वस्थ समाज के निर्माण में अपनी भूमिका सुनिश्चित करनी चाहिए।
– सुमन पाठक