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बांग्लादेश का लोकतंत्र अंधेरे में

बांग्लादेश का लोकतंत्र अंधेरे में

by हिंदी विवेक
in ट्रेंडींग, देश-विदेश, विशेष, विषय, सितम्बर २०२४
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1990 तक बांग्लादेश की जनता तत्कालीन राष्ट्रपति हुसैन मुहम्मद इरशाद के तानाशाही शासन से तंग आ गई थी। दर्जनों छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टियों ने 1991 का चुनाव लड़ा, लेकिन शेख हसीना के नेतृत्व में अवामी लीग और खालिदा जिया के नेतृत्व में बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी दो प्रमुख दावेदार रही। 1991 का चुनाव बांग्लादेश की राजनीति में एक ऐतिहासिक घटना साबित हुई क्योंकि इसने न केवल संसदीय प्रणाली को बहाल किया, बल्कि विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का मार्ग प्रशस्त किया।

 बांग्लादेश में शेख हसीना की चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार का देश के चरमपंथियों द्वारा तख्ता पलट कर दिया गया। हालांकि इस तख्ता पलट के कई कारण बताए जा रहे हैं। जिसमे घरेलु मोर्चे पर छात्रों का आरक्षण विरोधी आंदोलन हो या विदेशी शक्तियों का षडयंत्र, इन सबके पीछे बांग्लादेश की जमात-ए-इस्लामी संगठन की भूमिका सबसे बड़ी है। जिसने बांग्लादेश के इस तख्ता पलट को इस्लामिक क्रांति की संज्ञा दी है। शेख हसीना के शासन के समाप्त होने के साथ ही बांग्लादेश उन दक्षिण एशियाई देशों की कतार में शामिल हो गया है, जो हिंसक संघर्ष से चिह्नित राजनीतिक संकट का सामना कर रहे हैं।

राजनीतिक अस्थिरता

बांग्लादेश में राजनीतिक अस्थिरता कोई नई घटना नहीं है। इसके राजनीतिक इतिहास को देखें तो 1971 में एक स्वतंत्र देश के रूप में अपनी स्थापना के बाद से बांग्लादेश ने एक लम्बा, परंतु काफी उथल पुथल भरी यात्रा तय किया है। शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग ने मार्च 1973 में पहले आम चुनावों में एक शानदार जीत दर्ज की, परंतु बांग्लादेश में एक स्वस्थ और प्रतिस्पर्धी लोकतांत्रिक प्रणाली की स्थापना नहीं हो सकी। लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित अवामी लीग शासन को जल्द ही एक गम्भीर घरेलू षडयंत्र का शिकार होना पड़ा तथा एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना में बांग्लादेश ने 15 अगस्त 1975 को अपने नेता शेख मुजीबुर्रहमान को खो दिया और लोकतांत्रिक प्रयोग में एक रूकावट आ गई। अगले डेढ़ दशक में बांग्लादेश ने खांडकर मुश्ताक अहमद (अगस्त-नवम्बर 1975), न्यायमूर्ति अबू सादात मोहम्मद सईम (नवम्बर 1975-अप्रैल 1977), मेजर जनरल जियाउर्रहमान (अप्रैल 1977-मई 1981) और लेफ्टिनेंट जनरल हुसैन मुहम्मद इरशाद (मार्च 1982-दिसम्बर 1990) के चार गैर लोकतांत्रिक शासन देखें।

1990 तक बांग्लादेश की जनता तत्कालीन राष्ट्रपति हुसैन मुहम्मद इरशाद के तानाशाही शासन से तंग आ गई थी। दर्जनों छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टियों ने 1991 का चुनाव लड़ा, लेकिन शेख हसीना के नेतृत्व में अवामी लीग और खालिदा जिया के नेतृत्व में बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी दो प्रमुख दावेदार रही। 1991 का चुनाव बांग्लादेश की राजनीति में एक ऐतिहासिक घटना साबित हुई क्योंकि इसने न केवल संसदीय प्रणाली को बहाल किया, बल्कि विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का मार्ग प्रशस्त किया।

मुख्यधारा की ये दोनों पार्टियां राजनीतिक मोर्चे पर एक-दूसरे से राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में रहती हैं, परंतु स्वस्थ लोकतंत्रों के विपरीत बांग्लादेश में राजनीतिक शक्ति के लिए खुली प्रतिस्पर्धा ने समाज का अत्यधिक राजनीतिकरण किया और पार्टी की तर्ज पर समाज में विभाजन को जन्म दिया। बांग्लादेश की स्थितियां तब और जटिल हो गई जब इस्लामिक पार्टियों ने पांव पसारना शुरू कर दिया।

हालांकि पिछले 15 वर्षों से शेख हसीना की आवामी लीग ने बांग्लादेश को एक स्थिर सरकार दिया, जिसके कारण दक्षिण एशिया में बांग्लादेश एक सुदृढ़ लोकतांत्रिक राष्ट्र की तरफ बढ़ रहा था। वैश्विक राजनीति में भी शेख हसीना का कद बढ़ता जा रहा था, हालांकि कई मौकों पर बढ़ते दखल से अमेरिका तथा चीन ने नाखुशी जाहिर की थी।

बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार 

बांग्लादेश के इतिहास को देखें तो ब्रिटिश शासन से आजादी के बाद जब भारत से पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पकिस्तान (आधुनिक बांग्लादेश) विभाजित हुआ तो उसका आधार धार्मिक ही था। जिन्ना तथा अन्य मुस्लिम नेताओं ने अपनी राजनीति का केंद्र पश्चिमी पाकिस्तान को बनाया, इसलिए पश्चिमी पाकिस्तान अधिक प्रभावशाली और शासक पक्ष माना गया। पश्चिमी पाकिस्तान को समर्थन देने के लिए संसाधनों, धन और श्रम के लिए पूर्वी पाकिस्तान का अत्यधिक शोषण किया गया। पूर्वी पाकिस्तान के नागरिकों को न समान अधिकार दिए गए और न ही देश के संसाधनों पर अधिकार दिया गया, बल्कि इसके उलट उन्हें अपने सांस्कृतिक और भाषाई पहचान को छोड़ने के लिए दबाव बनाया गया। इस तरह की गुलामी को सहन करने के लिए तैयार न होने के कारण पूर्वी पाकिस्तान ने अलग होने की मांग की। नवनिर्वाचित अवामी लीग नेता शेख मुजीबुर्रहमान के साथ नागरिकों को अपने देश बांग्लादेश के लिए स्वतंत्रता का दावा करने के मिशन को आगे बढ़ाने का अधिकार दिया गया।

पाकिस्तान मुख्य रूप से एक इस्लामी एवं उर्दू भाषी क्षेत्र था, जबकि बांग्लादेश एक हिंदू-इस्लामी बांग्ला भाषी क्षेत्र था। इन स्पष्ट मतभेदों ने बांग्लादेशियों को पाकिस्तान के अंदर अवांछनीय और हीन बना दिया। परिणामत: बांग्ला भाषा जो हिंदू धर्म और संस्कृत से अधिक सम्बंधित है, को अवांछनीय माना गया और जो हिंदू थे, उन्हें प्राथमिक लक्ष्य बनाया गया। अपनी जान तथा अस्मिता को सुरक्षित रखने के लिए 1 करोड़ से अधिक हिंदू-बांग्लादेशी 1971 में भारत की ओर पलायन कर गए।

1971 में पाकिस्तान से अलग होकर अस्तित्व में आए बांग्लादेश ने 4 नवम्बर 1972 को अपनाए गए संविधान में खुद को एक धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी और लोकतांत्रिक देश घोषित किया था, लेकिन वो ज्यादा समय तक धर्म निरपेक्ष नहीं रहा और 7 जून 1988 को उसने संविधान में बदलाव कर खुद को इस्लामी राष्ट्र घोषित कर दिया।

बांग्लादेश में वर्ष 2021 तक एक भूमि कानून तशीींशव झीेशिीीूं -लीं लागू था। इसके अंतर्गत सरकार के पास यह अधिकार था कि वह दुश्मन सम्पत्ति को अपने कब्जे में ले ले। इस कानून की सबसे ज्यादा मार हिंदुओं को झेलनी पड़ी, इस कानून से बांग्लादेश का करीब-करीब हर हिंदू परिवार प्रभावित हुआ। भले ही इस कानून में कुछ संशोधन किया गया हो, लेकिन अभी भी इसके चलते हिंदुओं का पलायन हो रहा है।

1971 में बांग्लादेश के अस्तित्व में आने के पहले से वहां हिंदुओं के विरुद्ध भयानक हिंसा चल रही है, जो आज भी लगातार जारी है। कभी राजनीतिक शह पर तो कभी सामाजिक-धार्मिक संगठनों के आह्वान पर हिंदुओं को बांग्लादेश में प्रताड़ित किया जाता रहा है।

पड़ोसी देश बांग्लादेश में हो रही हिंसा का सबसे ज्यादा शिकार वहां रह रहे अल्पसंख्यक हिंदू हो रहे हैं। जिनकी आस्था और बुनियाद दोनों पर ही लगातार हमले हो रहे हैं। मंदिरों को जलाया जा रहा है, घरों को लूटा जा रहा है और लोगों की जान ली जा रही है। पिछले कुछ सालों में बांग्लादेश में हिंदुओं की स्थिति काफी खराब हुई है। आंकड़े के अनुसार 1951 में इस क्षेत्र में हिंदुओं की जनसंख्या करीब 22 प्रतिशत थी, उसके बाद से हिंदुओं की जनसंख्या में लगातार गिरावट आती गई, जो अब घटकर लगभग 7 प्रतिशत रह गई है। जमात-ए-इस्लामी जैसे जिहादी संगठन लगातार हिंदुओं पर अत्याचार कर रहे हैं। हिंदुओं को आर्थिक और धार्मिक स्तर पर परेशान किया जा रहा है, जिसके कारण बड़ी संख्या में लोग पलायन को मजबूर हो रहे हैं।

हालांकि भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने बांग्लादेश के अंतरिम सरकार के मुख्य कार्यवाहक अधिकारी मोहम्मद युनुस को हिंदुओं के ऊपर हो रहे अत्याचार को रोकने तथा उस पर कड़ी करवाई करने का आग्रह किया है। बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार के विरुद्ध वैश्विक स्तर पर भी आलोचना हो रही है।

भारत पर प्रभाव

बांग्लादेश में हालिया राजनीतिक बदलाव ने भारत के लिए कई मोर्चे पर चिंताए बढ़ा दी हैैं। पिछले वर्षों में लगातार भारत और बांग्लादेश ने अपने रक्षा और सामरिक सहयोग को व्यापक बनाया है, जिसमें नियमित यात्राएं, प्रशिक्षण गतिविधियां, द्विपक्षीय और बहुपक्षीय अभ्यास, परंतु राजनीतिक अस्थिरता के कारण पहले से चल रहे मजबूत सैन्य सहयोग के भविष्य को लेकर आशंकाएं बढ़ गई हैं। भारत के लिए चिंता का एक और बड़ा क्षेत्र सीमा प्रबंधन है, क्योंकि दोनों देश 4,096 किलोमीटर लम्बी अंतरराष्ट्रीय सीमा साझा करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में दोनों पक्षों की सेनाओं के साथ-साथ एजेंसियों ने जमीन पर अच्छी समझ विकसित की है। मौजूदा संकट के कारण मादक पदार्थों और जाली मुद्रा की तस्करी, मवेशी और मानव तस्करी तथा भारत में शरणार्थियों के आने से ये पहलू और भी गम्भीर हो जाएंगे।

-डॉ. अभिषेक श्रीवास्तव

 

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Tags: #bangladesh #hindivivek #india

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