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विजयोत्सव का महापर्व

विजयोत्सव का महापर्व

by अजित कुमार पुरी
in अक्टूबर २०२४, ट्रेंडींग, विशेष, विषय, संस्कृति
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श्रीराम का सम्पूर्ण जीवन राजधर्म का पालन करते हुए व्यतीत हुआ। चाहे वे वन में रहे हों अथवा राजसिंहासन पर। इस धर्म का पालन करने में कहीं शिथिलता नहीं दिखती। यदि अत्याचारी राक्षसों का वध करने के लिए उन्होंने वीरोचित पराक्रम दिखाया तो ऋषि- मुनियों के हितार्थ कार्य भी किए और सदैव प्रजारंजन में रत रहे। आज के समय में वर्तमान राज्यकर्ताओं को भी श्रीराम के राजधर्म विषयक कार्यों से प्रेरणा लेनी चाहिए। समाज में स्थाई शांति तभी हो सकती है जब शासन समाज विरोधी शक्तियों को नियंत्रित करे और उनका कठोरता से दमन करे।

विजयदशमी महापर्व भगवान श्रीराम की राक्षसराज रावण पर विजय की महागाथा का प्रस्थान बिंदु है। अंगद के नेतृत्व में दक्षिण दिशा में सीता की खोज में गए वानर-दल में सम्मिलित महावीर हनुमान ने जब लंका में माता सीता का पता लगा लिया और जब निश्चित हो गया कि रावण इस दुष्टकर्म का कर्ता है, तब श्रीराम ने उसे दंडित करने के लिए इसी दिन विजय की कामना करते हुए सैन्य अभियान किया था। वाल्मीकी रामायण जैसे उपजीव्य ग्रंथ कुछ इसी तरह से इस तिथि के सम्बंध में प्रकाश डालते हैं। कालांतर में यह तिथि नव दुर्गा की उपासना के साथ इतनी महत्वपूर्ण हो गई कि यह रावण वध के लिए किए गए संकल्प को पूर्ण करने की तिथि बन गई। विचार किया जाए तो आश्विन मास के दोनों पक्ष बहुत महत्वपूर्ण हैं। कृष्ण पक्ष में हिंदू समाज अपने पितरों को स्मरण करता है तो देव पक्ष में देवताओं की आराधना। इस दृष्टि से प्रतिपदा से लेकर नवमी तिथि तक नव दुर्गा की उपासना शक्ति की वह उपासना -साधना करता है, जिससे समाज नई उर्जा प्राप्त करता है। इस दृष्टि से यह मास बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।

भगवान श्री रामचंद्र अपने अनुज श्री लक्ष्मण के साथ जब ब्रम्हर्षि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के निमित्त अयोध्या से प्रस्थान करते हैं, तभी से उनके वीरोचित पराक्रम से हम अवगत होते जाते हैं। सीता स्वयंवर में उनकी बुद्धि और बल को सारा समाज देखता है। वनवास के लिए सहज रूप से तैयार होकर प्रस्तुत हो जाना, बिना किसी विरोध के यह उनके शील की पराकाष्ठा को दर्शाता है। रामायण के यह प्रसंग हमें उल्लासित करते हैं।

अपने अनुज लक्ष्मण और भार्या सीता के साथ श्रीराम का वनवास प्रसंग में ऋषि-मुनियों के साथ सत्संग और दंडकारण्य में राक्षसों के उत्पात का दमन करने के लिए दृढ़ संकल्पित होना यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि वनवासी रूप में भी वे अपने राजधर्म को भूले नहीं थे। विराध, खर-दूषण और उसकी चौदह सहस्र सेना को रण में मार गिराना उनके असाधारण शौर्य को दिखाता है। आज लाखों वर्षों व्यतीत होने बाद भी ऐसा लगता है जैसे कि यह कल की घटनाएं हों। इन प्रसंगों को देखकर, सुनकर हिंदू समाज आज भी रोमांचित होता है।

लंका पहुंचने के लिए समुद्र को बांध लेना, महाबली कुम्भकर्ण और मेघनाद के वध प्रसंग हिंदू समाज को उत्साहित ही नहीं करते बल्कि नई उर्जा से भर देते हैं। इससे यह धारणा भी बलवती होती है कि असत्य और अनाचार कितने भी शक्तिशाली हों, धर्म के सामने कभी टिक नहीं सकते। अंतत: उनका विनाश निश्चित है।

आज जब हमारा अकादमिक जगत औपनिवेशिक शिक्षा के दबाव में है और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को व्याख्यायित करने के लिए यूरोप-अमेरिकी मापदंड काम में लाए जा रहे हैं तब हमें अपने इतिहास और ज्ञान परम्परा पर दृष्टिपात करने की आवश्यकता महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि किसी भी समाज को दीर्घ काल तक विस्मृति की स्थिति में नहीं रखा जा सकता, नहीं तो वह धीरे-धीरे रूपांतरित होने लगता है। वर्तमान परिस्थितियों में धार्मिक शिक्षा के अभाव में हिंदू समाज भी विस्मृति का शिकार हो रहा है क्योंकि शिक्षा संस्थान ज्ञान-विज्ञान के विमर्श पर अधिक ध्यान न देकर उपाधि वितरण के केंद्र होते जा रहे हैं। यह बहुत ही विकट स्थिति है। इस दृष्टि से यह महत्वपूर्ण विषय हो जाता है कि अंग्रेजों के जाने के बाद हिंदू समाज को धार्मिक शिक्षा से दूर क्यों रखा गया है?

यदि कोई समाज अपने धर्मशास्त्रों का अध्ययन, मनन और चिंतन नहीं करेगा तो उसमें नवाचार कैसे होगा? पीढ़ियों को इतिहास और संस्कृति का बोध कैसे होगा? इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि भारत हिंदू समाज के साथ वर्षों से चली आ रही असमानता की स्थिति को समाप्त करे और अल्पसंख्यकों के बराबर धार्मिक शिक्षा के संरक्षण आदि का संविधान प्रदत्त संरक्षण और अधिकार दे।

श्रीराम का सम्पूर्ण जीवन राजधर्म का पालन करते हुए व्यतीत हुआ। चाहे वे वन में रहे हों अथवा राजसिंहासन पर। इस धर्म का पालन करने में कहीं शिथिलता नहीं दिखती। यदि अत्याचारी राक्षसों का वध करने के लिए उन्होंने वीरोचित पराक्रम दिखाया तो ऋषि- मुनियों के हितार्थ कार्य भी किए और सदैव प्रजारंजन में रत रहे। आज के समय में वर्तमान राज्यकर्ताओं को भी श्रीराम के राजधर्म विषयक कार्यों से प्रेरणा लेनी चाहिए। समाज में स्थाई शांति तभी हो सकती है जब शासन समाज विरोधी शक्तियों को नियंत्रित करे और उनका कठोरता से दमन करे। आज जब अकादमिक जगत की गतिविधियों को हम देखते हैं, तब बहुत कुछ ऐसा घटित होते हुए दिखता है, जिसमे यूरोप-अमेरिकी अनुकरण की ऐसी प्रवृत्ति दिखती है, जो हमें यह सोचने पर विवश करती है कि भारत अभी भी पूर्ण स्वतंत्र हुआ है या नहीं? राज्यकर्ताओं की दुष्ट-दमन में शिथिलिता देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि कहीं न कहीं कुछ दोष अवश्य है।

रामायण को केवल एक काव्य ग्रंथ तक सीमित नहीं रखा जा सकता। यह हमारी स्मृतियों का वह पुंज है, जो हमें अति प्रचीन काल से आलोकित करता आ रहा है। इसके आलोक में भारत का समाज ही नहीं अपितु विश्व का सम्पूर्ण मानव समाज अपने को व्यवस्थित कर सकता है। इसके आधार पर गृह नीति और विदेश नीति के व्यवहार निर्धारित किए जा सकते हैं। श्रीराम द्वारा स्थापित रामराज्य कोई कल्पना नहीं बल्कि एक ऐसा आधार है, जिसकी महिमा अभी भी गाई जाती है। रामराज्य में हम ऐसा समाज देखते हैं, जहां सभी वर्णों के लोग परस्पर प्रीति से रहते हैं, जहां कोई रोगी नहीं है। सुभिक्ष का ऐसा वातावरण है कि किसी को चोरी करने की आवश्यकता नहीं है। समाज में संयम और अपरिग्रह की प्रतिष्ठा है। यह सब इसलिए सम्भव हो रहा है क्योंकि राजदण्ड सदैव जागृत रहता है। राजधर्म के पालन में कोई शिथिलता नहीं होती। इस बिंदु के आधार पर वर्तमान राज्यकर्ताओं की मनोवृत्तियों का अध्ययन करने की आज परम आवश्यकता है। कारण यह कि अंग्रेजों के जाने के बाद शासन का स्वरूप नहीं बदला, केवल शासन करने वाले बदल गए। जो तंत्र समाज को पीड़ित करता आ रहा था, वह बना रहा। अंग्रेजों के बनाए कोर्ट, थाने, यूनिवर्सिटी, स्कूल आदि उसी ढर्रे पर चलते रहे। इसका दुष्प्रभाव यह हुआ कि भारतीय हिंदू समाज रूपांतरण की प्रक्रिया से गुजरने लगा। शासन का तंत्र उसे पराएपन का बोध कराने लगा। समय व्यतीत होने के साथ अब इसे अपनी नियति मानकर समाज स्वीकार करने की स्थिति में आ गया है। वस्तुत: यह एक भयावह स्थिति है। किसी भी समाज के लिए ऐसा दोहरापन जो किसी भी स्तर पर हो, अनुकूल नहीं कहा जा सकता।

श्रीराम और रामायण का सम्यक बोध हमारे राष्ट्र को इस विषम स्थिति से बाहर निकाल सकता है। इस दृष्टि से 22 जनवरी 2024 की परिघटना समाज में नवीन उर्जा का संचार करने वाली सिद्ध हो सकती है। लगभग 500 वर्ष तक चले सांस्कृतिक युद्ध में हिंदू समाज ने जिस धैर्य, शील और जिजीविषा का परिचय दिया, वह यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि इसकी आंतरिक प्रेरणा के सूत्र अभी जीवित हैं। यदि इसे अनुकूल अवसर नहीं भी मिलता, तब भी अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए यह समाज उसी तरह से मार्ग निकाल लेता है, जैसे श्रीराम की सेना ने सीता को ढूंढ़ने के प्रसंग में असम्भव को सम्भव कर दिखाया था। भले ही आज की परस्थितियां कितनी ही विषम हों, भारत का वर्तमान तंत्र अनुकूल नहीं बन पाया हो, परंतु जब तक श्रीराम का चरित और विजयादशमी का यह महापर्व सृष्टि में रहेगा, हिंदू समाज को नई उर्जा मिलती रहेगी। यह समाज उन सभी कठिनाईयों का समाधान ढू़ंढने में सफल होता रहेगा, जो इसके सामने समस्या बनकर खड़े होंगे।

 

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