भारत आज स्वाधीन है। आज की परिस्थितियां भिन्न हैं। समय के साथ चुनौतियां भी मुंह बाए खड़ी हुई हैं। संक्रमण काल के इस चुनौतीपूर्ण समय में राष्ट्र की युवा शक्ति के एक-एक कदम भविष्य के भारत का भावी स्वरूप गढ़ने वाले हैं। भारत आज अबाध प्रगति कर रहा है। विश्व में अपनी नई उपस्थिति की धमक दर्ज करा रहा है। किंतु इन सबके साथ आंतरिक और बाह्य शत्रुओं के दिखाई देने वाले और न दिखाई देने वाले, दोनों प्रकार के संकट भी उत्पन्न हो रहे हैं।
भारत को स्वाधीन हुए 7 दशक से भी अधिक का समय हो गया है। समय के साथ राष्ट्र ने प्रगति की किंतु अनेकानेक उतार चढ़ाव का क्रम भी सतत् चलता आ रहा है। राष्ट्र अमृतकाल की बेला में एक नवीन चेतना के साथ गतिमान है।
वर्ष 2047 भारत की स्वाधीनता का शताब्दी वर्ष होगा। उस समय जब भारत अपनी स्वाधीनता का शताब्दी वर्ष मना रहा होगा तब राष्ट्र का स्वरूप कैसा होगा। राष्ट्र की दशा एवं दिशा क्या होगी? इसके निर्धारण में युवाओं की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होने वाली है। प्रारम्भिक समय से ही किसी भी राष्ट्र की गति और प्रगति में युवाओं की अपनी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। असीम सम्भावनाओं एवं ऊर्जा शक्ति से भरी हुई युवा शक्ति जब अपने आत्म तत्व को जानती है ‘स्व’ को पहचानती है तब सर्जनात्मकता की धारा स्वमेव प्रवहमान होने लगती है। इसके साथ ही सर्वत्र मंगल गान सुनाई देने लगता है।
यदि हम भारत के निकट अतीत की ओर ही देखें तो राष्ट्र की आत्मदीप्ति में, स्वाधीनता की आहुति में, युवाओं ने बढ़-चढ़कर अपनी भूमिका निभाई है। वीर छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराजा छत्रसाल, वीरांगना लक्ष्मीबाई, झलकारी बाई, दुर्गावती, अवंतीबाई, कुंवर रघुनाथ शाह, भगवान बिरसा मुंडा, तात्या टोपे, मंगल पांडेय, राजगुरु-सुखदेव, भगतसिंह, अशफाक उल्ला खान, राम प्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आजाद, नेताजी सुभाष चंद्र बोस सहित असंख्य वीर-वीरांगनाओं ने सहर्ष अपना प्राणोत्सर्ग किया। मातृभूमि की बलि वेदी पर स्वयं को आहुत कर दिया। ये हमारे वो महानपूर्वज थे जिन्होंने अपनी किशोरावस्था से राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का प्रण ले लिया था। फिर स्वयं को राष्ट्र के लिए आत्मार्पित कर दिया।
भारत आज स्वाधीन है। आज की परिस्थितियां भिन्न हैं। समय के साथ चुनौतियां भी मुंह बाए खड़ी हुई हैं। संक्रमण काल के इस चुनौतीपूर्ण समय में राष्ट्र की युवा शक्ति के एक-एक कदम भविष्य के भारत का भावी स्वरूप गढ़ने वाले हैं। भारत आज अबाध प्रगति कर रहा है। विश्व में अपनी नई उपस्थिति की धमक दर्ज करा रहा है। किंतु इन सबके साथ आंतरिक और बाह्य शत्रुओं के दिखाई देने वाले और न दिखाई देने वाले, दोनों प्रकार के संकट भी उत्पन्न हो रहे हैं। ऐसे कालखंड में युवाओं की वर्तमान दशा एवं दिशा ही भविष्य का निर्धारण करेगी। इसीलिए युवाओं को अपनी आत्मशक्ति की पहचान कर अपने सामर्थ्य के अनुरूप आगे बढ़ना होगा। इसके लिए आवश्यक है कि युवा अपने युवा होने के बोध को ठीक-ठीक समझें। बौद्धिक विकास के साथ-साथ शारीरिक सौष्ठव और उच्च आध्यात्मिक चेतना को जागृत करने लिए प्रयत्नशील हों।
उच्च चारित्र्यबल, नैतिक मूल्यों का अनुकरण करते हुए आगे बढ़ें। युवा होने के गुरुतर दायित्व निभाएं। कर्तव्य बोध को समझें। स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के अंतर को ध्यान में रखें। आत्मानुशासन के साथ अपनी मौलिकता का आविष्कार करें। सर्जनात्मकता की धारा में अपने कृतित्व की आहुति समर्पित करें। ये सारी चीजें कैसे निर्मित होंगी? यदि हम इसका ध्यान करें तो हमें बीते दो दशकों की ओर जाना पड़ेगा। ये वो समय था जब गांवों से लेकर शहरों तक में स्थान-स्थान पर व्यायामशालाएं, विभिन्न पर्वों एवं त्योहारों पर खेल प्रतियोगिताएं आयोजित होती थी। कुश्ती के दंगल, कबड्डी के मैदान, दौड़-कूद, नदियों-तालाबों में तैराकी, लाठी भांजने (दंड प्रहार), भाला और गोला फेंकने के दृश्य आसानी से दिखते थे। अधिकांशतः शुद्ध सात्विक दिनचर्या, पारिवारिक संस्कारों और जीवन मूल्यों का अनुसरण परिवारों में बाल्यकाल से ही सिखाया जाता था। संयुक्त परिवारों की इसमें बड़ी भूमिका रहती थी। जब इस प्रकार के सामाजिक वातावरण से युवा पीढ़ी मुख्य धारा में आती थी तो उसके सकारात्मक परिणाम सर्वत्र परिलक्षित होते थे। ये सारी बातें भारत के संस्कारों में ढली हुई मिलती हैं। किंतु जैसे-जैसे भौतिकता और तथाकथित आधुनिकता का भ्रमजाल फैलता गया।
हमारे मूल में अंतर्निहित ये सारी चीजें शनै: शनै: धुंधली होने लगी। स्वतंत्रता के स्थान पर स्वच्छंदता हावी होने लगी। इससे सबसे ज्यादा हानि युवा शक्ति की हुई। कई प्रकार के दुर्व्यसनों ने युवाओं को जकड़ना प्रारम्भ कर दिया। परिणामत: राष्ट्र के विकास में युवाओं की जो भूमिका होनी चाहिए उसकी सहभागिता घटती चली गई। वर्तमान में यह संकट और गहराता चला जा रहा है। डिजिटल दुनिया और तकनीकी के साथ दुर्व्यसनों ने भी युवाओं को अपनी चपेट में ले लिया है। ऐसे में यह वह समय है जब आत्मावलोकन व आत्मानुशासन की ओर एक बार फिर ध्यान देना होगा।
किंतु समानांतर रूप से दूसरी ओर भारत की महान परम्परा में जो मूल्य और तत्व राष्ट्र को सशक्त करते आ रहे हैं, उनके प्रकटीकरण का क्रम भी चलता रहा आया है। शारदीय नवरात्र में शक्ति उपासना के साथ आत्मरक्षा के लिए शस्त्र पूजा की परम्परा भारतीय समाज में व्याप्त है। नवमी और विजयादशमी को शस्त्र पूजा के साथ बलोपासना भारतीय जनजीवन की विशेष रेखांकित की जाने वाली विशेषता है। ठीक, इसी दिशा में विश्व के सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। संघ की शाखाओं में खेल, शारीरिक व्यायाम के साथ-साथ राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय विषयों और समाज की वस्तुस्थितियों पर स्वयंसेवक चर्चा करते हैं। अपने-अपने कार्यों का निर्धारण करते हैं। फिर समाज के बीच जाकर अपने कामों को पूरा करते हैं। यानी शारीरिक के साथ साथ बौद्धिक और सामाजिक विकास में संघ ने एक बड़ी लकीर खींची है।
वस्तुत: संघ व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण के महत् संकल्प को लेकर अपने प्रारम्भिक समय से काम करता आ रहा है। 27 सितम्बर 1925 को डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा शुरू किया गया संघ, वर्ष 2025 में विजयादशमी की तिथि को अपना शताब्दी वर्ष पूर्ण करेगा। व्यक्ति निर्माण के क्षेत्र में संघ सूक्ष्म से लेकर स्थूल क्षेत्रों में काम करता है। इसके लिए दिनचर्या, समय प्रबंधन, अध्ययन, सुस्पष्ट लक्ष्य, कर्मशीलता पर संघ विशेष बल देता है। इन्हीं सूत्रों के द्वारा ही वह बड़े लक्ष्य प्राप्त करता है। अपनी इसी दूरदृष्टि को ध्यान में रखकर संघ ने अपने शताब्दी वर्ष के लिए पंच परिवर्तन के लक्ष्य निर्धारित किए हैं। ये वो पांच बड़े काम हैं जिन्हें संघ के स्वयंसेवक समाज के बीच लेकर जा रहे हैं। इसके अंतर्गत सामाजिक समरसता, कुटुम्ब प्रबोधन, पर्यावरण, स्व आधारित व्यवस्था का आग्रह और नागरिक कर्तव्यों के पालन करने का राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया जा रहा है।
अब इन्हें पूर्ण करने का लक्ष्य राष्ट्र की युवा पीढ़ी को लेना होगा। समाज जीवन के किसी भी क्षेत्र में चाहे वह शिक्षा, कला, संस्कृति, राजनीति, मीडिया, मनोरंजन का क्षेत्र हो या खेल, विज्ञान, तकनीकी, शोध-अनुसंधान का क्षेत्र हो। राष्ट्र के युवा जहां भी हों, जिस क्षेत्र में हों, वहां से स्व का मंत्र धारण कर राष्ट्र की गति-प्रगति में जुट जाएं। ग्राम्य जीवन से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की भूमिका के प्रकटीकरण का संकल्प लेना पड़ेगा। हमें युवा होने के नाते इस तत्व को समझना पड़ेगा कि हम केवल अपने लिए नहीं बल्कि राष्ट्र के लिए हैं। हमारे प्रत्येक कार्य और विचार राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले हो। जब हम ये संकल्प लेंगे तो निश्चय ही मंगलकारी होगा। हमें युवाओं के आदर्श पूज्य स्वामी विवेकानंद के द्वारा उद्धोषित भारतीय संस्कृति के ध्येय वाक्य ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत;’ को जीना पड़ेगा। राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व अर्पित करना पड़ेगा। तभी राष्ट्र परम् वैभव के सिंहासन पर पुनः आरुढ़ होगा और भारत माता की सकल विश्व में जय जयकार सुनाई देगी।
–कृष्णमुरारी त्रिपाठी ‘अटल’