रैगिंग पर लगाम कसने को लेकर देशभर के तमाम शिक्षण संस्थानों में सख्ती बेहद जरूरी है क्योंकि हर साल अनेक ऐसे मामले सामने आते हैं, जिनमें रैगिंग के शिकार हुए छात्र अवसाद के शिकार हो जाते हैं, कुछ रैगिंग से डरकर अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ देते हैं तो कुछ मौत को गले लगा लेते हैं। विभिन्न शिक्षण संस्थानों में जूनियर छात्रों को रैगिंग के नाम पर मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है और प्रायः यही देखने को मिलता है कि कॉलेज प्रबंधन या तो दोषियों के खिलाफ कोई कड़े कदम उठाता ही नहीं है या मामले पर लीपापोती करने का प्रयास किया जाता है। कहना गलत नहीं होगा कि कॉलेज प्रबंधन के गैरजिम्मेदाराना रवैये के कारण ही रैगिंग के मामले बढ़ रहे हैं।
पिछले दिनों गुजरात के पाटन में एक मेडिकल कॉलेज में रैगिंग के कारण 18 साल के एक छात्र की मौत के बाद उम्मीद जगी थी कि कॉलेजों में रैगिंग के मामलों पर रोक लगेगी लेकिन उसके बाद भी जिस प्रकार आए दिन देशभर से रैगिंग के मामले निरंतर सामने आ रहे हैं, उन्हें देखते हुए कॉलेजों में रैगिंग को लेकर तत्काल कड़े कदम उठाने की जरूरत महसूस होने लगी है ताकि नए सपनों के साथ कॉलेज में पहला कदम रखने वाले छात्रों के मन से रैगिंग के खौफ को पूरी तरह दूर किया जा सके। पाटन मेडिकल कॉलेज में रैगिंग से हुई छात्र की मौत के मामले में खुलासा हुआ है कि 15 सीनियर छात्रों ने उस जूनियर छात्र सहित कई छात्रों से लगातार तीन घंटे तक डांस करवाया, गाने गवाए और उन्हें शारीरिक व मानसिक रूप से प्रताड़ित किया। मानसिक और शारीरिक यातना दिए जाने के कारण अनिल मेथानिया आधी रात को बेहोश होकर गिर पड़ा, जिसे अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। छात्र की मौत के बाद पुलिस द्वारा मेडिकल कॉलेज के द्वितीय वर्ष के 15 छात्रों को गैर इरादतन हत्या के आरोप के तहत गिरफ्तार कर लिया। उत्तर प्रदेश के प्रतिष्ठित मदन मोहन मालवीय प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय में छात्रों ने रैगिंग के दौरान एक जूनियर को पीट-पीटकर अधमरा कर दिया। वहीं, रायपुर के मेडिकल कॉलेज में रैगिंग के दौरान 50 जूनियर छात्रों के साथ मारपीट करने और उनका सिर मुंडवाए जाने का मामला सामने आया है।
रैगिंग पर लगाम कसने को लेकर देशभर के तमाम शिक्षण संस्थानों में सख्ती बेहद जरूरी है क्योंकि हर साल अनेक ऐसे मामले सामने आते हैं, जिनमें रैगिंग के शिकार हुए छात्र अवसाद के शिकार हो जाते हैं, कुछ रैगिंग से डरकर अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ देते हैं तो कुछ मौत को गले लगा लेते हैं। विभिन्न शिक्षण संस्थानों में जूनियर छात्रों को रैगिंग के नाम पर मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है और प्रायः यही देखने को मिलता है कि कॉलेज प्रबंधन या तो दोषियों के खिलाफ कोई कड़े कदम उठाता ही नहीं है या मामले पर लीपापोती करने का प्रयास किया जाता है। कहना गलत नहीं होगा कि कॉलेज प्रबंधन के गैरजिम्मेदाराना रवैये के कारण ही रैगिंग के मामले बढ़ रहे हैं। दरअसल रैगिंग करने वाले छात्रों के खिलाफ प्रायः कठोर कार्रवाई नहीं होती, जिससे उनके हौसले बुलंद रहते हैं और यही कारण है कि रैगिंग का स्वरूप अब अधिक भयावह व क्रूरतम होता जा रहा है। रैगिंग के नाम पर सीनियर छात्र लगातार जूनियर छात्रों का उत्पीड़न कर रहे हैं और उच्च शिक्षा संस्थानों में रैगिंग के खौफ को खत्म करने के लिए बने एंटी रैगिंग कानून बेमानी साबित हो रहे हैं, जिसके चलते इन शिक्षा संस्थानों में प्रवेश लेने वाले छात्रों के जेहन में रैगिंग का खौफ बना रहता है।
शिक्षण संस्थानों में रैगिंग रोकने के लिए सख्त अदालती दिशा-निर्देश हैं लेकिन फिर भी जिस प्रकार देश के विभिन्न हिस्सों से कॉलेजों में रैगिंग के मामले सामने आ रहे हैं, उससे चिंता बढ़ना स्वाभाविक है। खासकर मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में रैगिंग के सर्वाधिक मामले सामने आते हैं और एंटी रैगिंग हेल्पलाइन पर किसी न किसी कॉलेज से रैगिंग की शिकायतें लगातार मिलती रही हैं। रैगिंग के निरन्तर सामने आते रहे मामलों को देखते हुए यही प्रतीत होता रहा है, जैसे सीनियर छात्रों को अपनी क्षणिक मस्ती, उद्दंडता और रौब कायम करने के लिए अदालती आदेशों की भी परवाह नहीं। उन्हें इस बात की भी चिंता नहीं कि रैगिंग में उनकी संलिप्तता साबित होने पर उनके भविष्य का क्या होगा। हिमाचल के एक मेडिकल कॉलेज में वर्ष 2009 में रैगिंग से एक छात्र की मौत के बाद सुप्रीम कोर्ट ने देश के सभी शिक्षण संस्थानों में रैगिंग विरोधी कानून सख्ती से लागू करने के आदेश दिए थे, जिसके तहत दोषी पाए जाने पर ऐसे छात्र को तीन साल के सश्रम कारावास और आर्थिक दंड का प्रावधान किया गया था। रैगिंग करने का दोषी पाए जाने पर आरोपी छात्र को कॉलेज तथा हॉस्टल से निलंबित या बर्खास्त किया जा सकता है और उसकी छात्रवृत्ति तथा अन्य सुविधाओं पर रोक, परीक्षा देने या परीक्षा परिणाम घोषित करने पर प्रतिबंध लगाने के अलावा किसी अन्य संस्थान में उसके दाखिला लेने पर भी रोक लगाई जा सकती है। इसके अलावा रैगिंग के मामले में कार्रवाई न करने अथवा मामले की अनदेखी करने पर कॉलेज के खिलाफ भी कार्रवाई हो सकती है, जिसमें कॉलेज पर आर्थिक दंड लगाने के अलावा कॉलेज की मान्यता रद्द करने का भी प्रावधान है।
अदालत के दिशा-निर्देशों के तहत किसी छात्र के रंग-रूप या उसके पहनावे पर टिप्पणी करके उसके स्वाभिमान को ठेस पहुंचाना, उसकी क्षेत्रीयता, भाषा या जाति के आधार पर अपमान करना, उसकी नस्ल या पारिवारिक पृष्ठभूमि पर अभद्र टिप्पणी करना या उसकी मर्जी के बिना जबरन किसी प्रकार का अनावश्यक कार्य कराया जाना रैगिंग के दायरे में सम्मिलित किया गया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा देश के प्रत्येक उच्च शिक्षण संस्थान में रैगिंग के खिलाफ एक समिति बनाने से लेकर संबंधित नियमों का पालन नहीं करने पर संस्थान की मान्यता रद्द करने तक के सख्त निर्देश हैं लेकिन फिर भी रैगिंग के लगातार सामने आते मामलों को देखकर हैरानी होती है। चिंता की बात यही है कि सख्त अदालती निर्देशों के बावजूद रैगिंग अभी भी कॉलेजों में नासूर बनकर नवोदित छात्रों को भविष्य बर्बाद कर रही है।
सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति अरिजीत पसायत, न्यायमूर्ति डी. के. जैन तथा न्यायमूर्ति मुकुन्दकम शर्मा की खण्डपीठ ने कॉलेजों में रैगिंग रोकने के लिए 11 फरवरी 2009 को पहली बार बेहद कड़ा रूख अपनाते हुए कहा था कि रैगिंग में मानवाधिकार हनन जैसी गंध आती है। सुप्रीम कोर्ट की खण्डपीठ ने राज्य सरकारों और केन्द्र शासित प्रदेशों को शिक्षण संस्थानों में रैगिंग पर रोक लगाने के लिए राघवन कमेटी की सिफारिशों को सख्ती से लागू करने का निर्देश देते हुए कहा था कि वे रैगिंग रोकने में विफल रहने वाले शिक्षण संस्थाओं की मान्यता रद्द करें। खण्डपीठ ने रैगिंग में शामिल छात्रों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई करने तथा जांच कार्य को प्रभावित करने वाले विद्यार्थियों को संस्थान से निलंबित करने की भी हिदायत देते हुए रैगिंग को लेकर प्रथम दृष्टया साक्ष्य मिलने पर संबंधित छात्र को पुलिस को सौंपने और उसके खिलाफ तत्काल जांच शुरू करने का निर्देश भी दिया था। पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे कड़े शब्द भी इस्तेमाल किए थे कि जांच कार्य को जो भी कोई प्रभावित करने अथवा टालने का प्रयास करे, उसके खिलाफ भी सख्त कार्रवाई की जाए।
वर्ष 2001 में भी सुप्रीम कोर्ट ने उन्नीकृष्णन समिति की सिफारिश के आधार पर रैगिंग पर प्रतिबंध लगाते हुए इसके लिए कठोर सजा का प्रावधान करते हुए अपने आदेश में स्पष्ट कहा था कि शिक्षा परिसरों में रैगिंग रोकना शिक्षा संस्थानों का नैतिक ही नहीं, कानूनी दायित्व भी है, जिसे न रोक पाना दण्डनीय अपराध की श्रेणी में लाया जाएगा और ऐसे संस्थानों की संबद्धता तथा उन्हें प्रदत्त सरकारी वित्तीय सहायता समाप्त की जा सकती है। कोर्ट का स्पष्ट तौर पर कहना था कि रैगिंग के नाम पर किए जाने वाले दुवर््यवहार को रोकना कॉलेज के प्रबंधन, उसके प्राचार्य, अधिकारियों तथा छात्रावास अधीक्षकों की जिम्मेदारी बनती है। एक विद्यार्थी कितने सपने संजोकर किसी कॉलेज की दहलीज पर पहला कदम रखता है और उससे भी अधिक उसके माता-पिता या अभिभावकों की आशाएं और अरमान उससे जुड़े होते हैं किन्तु रैगिंग रूपी दानव एक ही झटके में उन सपनों, आशाओं और अरमानों पर भारी पड़ जाता है। रैगिंग जिस प्रकार छात्रों में अच्छे संस्कारों का बीजारोपण करने के बजाय अपराधिक प्रवृत्ति को जन्म दे रही है, ऐसे में राज्य सरकारों और कॉलेज प्रशासन को समय रहते जागना होगा। केवल शिक्षण संस्थानों के प्रोस्पैक्ट्स में ही रैगिंग पर प्रतिबंध की बात कहने और कॉलेज के नोटिस बोर्ड पर इस संबंध में एक छोटा सा नोटिस चस्पां कर देने से ही काम नहीं चलने वाला। जरूरत इस बात की है कि कॉलेज प्रशासन रैगिंग में लिप्त पाए जाने वाले छात्रों के खिलाफ कठोर कदम उठाए और उन्हें न केवल कॉलेज से निकाल दिया जाए बल्कि ऐसी व्यवस्था भी की जाए कि ऐसे छात्र जीवनभर कोई भी व्यावसायिक डिग्री हासिल न कर पाएं ताकि सभी कॉलेजों के दूसरे छात्रों के लिए भी यह सबक बने।
– योगेश कुमार गोयल