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संघ जीने वाला स्वयंसेवक

संघ जीने वाला स्वयंसेवक

by भैयाजी जोशी
in अनंत अटलजी विशेषांक - अक्टूबर २०१८, संघ, सामाजिक
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अटल जी एक संवेदनशील व्यक्ति के रूप में सदैव हमारे स्मरण में रहेंगे। ऐसे व्यक्ति सैकड़ों वर्षों के बाद जन्म लेते हैं। इस शतक में उनके समान और कोई नहीं है। अटल जी अटल जी थे। संघ को वाकई जीने वाले स्वयंसेवक थे।

अटल जी संघ के स्वयंसेवक थे। हम उनके जीवन के प्रारंभिक कालखंड को देखते हैं तो यह ध्यान में आता है कि वे युवावस्था में कार्ल मार्क्स के विचारों से प्रभावित थे। लेकिन संघ के स्वयंसेवक बनने के बाद वे उन विचारों से दूर हटकर राष्ट्रीय विचारों की ओर प्रवृत्त हुए। मैं जब गहराई से इन बातों को सोचता हूं तो यह ध्यान में आता है कि सामान्य व्यक्ति की समस्याओं को मार्क्स ने उठाया था अतः एक संवेदनशील अंत:करण होने के कारण अटल जी उस ओर आकर्षित हुए होंगे। परंतु कुछ समय बाद उन्हें यह ध्यान में आया कि इन विचारों में प्रमाणिकता हो सकती है परंतु पूर्णता का अभाव है, तो उन्होंने अपने विचारों की दिशा बदल दी। व्यक्ति का व्यक्तिगत जीवन बाल्यावस्था में घर के संस्कारों गढ़ता है, परंतु विचारों का गढ़ना युवावस्था में प्रारंभ होता है। उनके परिवार से जो संस्कार प्राप्त हुए थे उस कारण उनका व्यक्तिगत जीवन अत्यंत शुद्ध रहा। साथ ही संघ में जो संस्कार मिले थे उसके कारण उनके विचारों को भी नई दिशा प्राप्त हुई। व्यक्तिगत जीवन की शुद्धता से लेकर विचारों की शुद्धता तक उनका जीवन रहा। समाज के प्रति संवेदना उनके रक्त में थी अतः इसी दिशा में वे भविष्य में अग्रसर हुए। उनका विश्वास था कि संघ का विचार पूर्णत्व का विचार है। वे केवल भावनाओं पर चलने वाले व्यक्ति नहीं थे। वे अध्ययनशील थे, संवेदनशील थे तथा कर्मशील भी थे। अतः आज हम यह कह सकते हैं कि संघ के विचारों को भी बुद्धि की कसौटी पर परखकर ही उन्होंने स्वीकार किया था।

व्यक्तित्व की पहचान अलग-अलग तरीके से होती है। अटल जी की पहचान दो बातों को लेकर है- पहला उनका कवित्व। उनके कवित्व को विषयों की मर्यादा नहीं है। मर्यादा है तो सामाजिक प्रश्नों की। उन्होंने अपने मन के आनंद के लिए कविताएं लिखीं। साथ ही समाज जागरण हो तथा पढ़ने वालों के विचारों को दिशा प्राप्त हो यह भी उनका मूल भाव था। अत: वे लिखते हैं:-

धरती को बौनों की नहीं

ऊंचे कद के इंसानों की ज़रूरत है

इतने ऊंचे कि आसमान छू लें

नए नक्षत्रों में प्रतिभा के बीज बो लें

परंतु मानवीय स्वभाव के अंतर्गत आने वाले गर्व व अहंकार के स्वभाव को भी वे अच्छी तरह से पहचानते हैं। अत: वे यह भी कहते हैं कि:-

मेरे प्रभु!  मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना

ग़ैरों को गले न लगा सकूं इतनी रुखाई कभी मत देना।

उनका काव्य लेखन संवेदनशीलता के आधार पर हुआ। उनकी कविताएं आज की पीढ़ी के लिए अध्ययन का विषय है। अतः अटल जी एक कवि के रूप में हम सभी के सामने हैं।

उनके जीवन का जो दूसरा पक्ष हम सभी लोगों ने अनुभव किया वह था उनका वक्तृत्व। वे लक्ष्मी के पूजक कभी नहीं थे परंतु सरस्वती के पूजक हमेशा रहे। अतः कभी-कभी ऐसा लगता है कि उनकी जिव्हा पर देवी सरस्वती विद्यमान थीं। उन्हें सरस्वती का वरदान प्राप्त था। उनके काव्यों की पंक्तियों में गंभीरता है, एक संदेश है जो कि उनके व्यक्तित्व में भी हमेशा प्रकट हुआ है।

सामान्यत: यह देखा जाता है कि वक्ता को हमेशा लगता है कि उसके भाषण नियमित होते रहें। परंतु अटल जी आवश्यकता होने पर ही भाषण करते थे। भाषण करने के लिए नियमित कहीं जाना, यह उनके स्वभाव में नहीं था। भाषण के पूर्व वे कई बार मौन भी बैठा करते थे। मजाक में यह कहा जाता था कि उन्हें सारी शक्ति प्रकट भाषण में लगानी है, इसलिए वे छोटे समूह में मौन बैठे हैं। उनकी वक्तृत्व शैली पर अगर ध्यान दिया जाए तो दिखाई देता है कि उनकी वाणी में स्पष्टता थी। विचारों में स्पष्टता थी, प्रखरता थी। इतने वर्षों में हम कोई भी ऐसा वाक्य चिह्नित नहीं कर सकते, जिसे यह कहा जाए कि यह वाक्य उग्रतावश आया है। उनके वाक्यों में प्रखरता अवश्य थी परंतु उग्रता नहीं थी। भिवंडी में हुए दंगे के बाद लोकसभा में जब उनका भाषण हुआ तब हिंदू समाज के प्रति उनके अंत:करण में जो भाव था वही भाव उनकी वाणी की प्रखरता में उभर कर सामने आया। उनका वह वाक्य बहुत प्रसिद्ध हुआ कि था ‘अब हिंदू मार नहीं खाएगा।’ उन्होंने और कुछ नहीं कहा परंतु उनका यह संकेत मात्र ही हिंदू समाज को बल देने के लिए काफी था। यही उनकी वाणी का गुण था, वरना कई ऐसे वक्ता भी होते हैं जो लोगों को पसंद आने वाले शब्दों का, वाक्यों का चयन करते हैं।

उनके लंबे सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन का एक पहलू यह भी है कि अटल जी ने विचारों के साथ कभी समझौता नहीं किया। कुछ ना कर सकने की स्थिति में वे मौन रहे, परंतु समझौता नहीं किया। उनमें विषम परिस्थितियों से मार्ग निकालने की कुशलता भी थी। जिस प्रकार जल के प्रवाह की एक प्रवृत्ति है कि वह हमेशा ढलान की ओर जाता है। अगर ढलान में बाधाएं आती हैं, तो भी पानी कभी रुकता नहीं है वह कहीं ना कहीं से मार्गबनाकर अपने गंतव्य की ओर बढ़ता ही जाता है। हम अटल जी के जीवन को देख कर यह कह सकते हैं कि उनके मार्ग में भी बाधाएं आईं लेकिन उन्होंने कभी भी समझौता नहीं किया। जब-जब अवसर मिला वे अपने ही विचारों के साथ आगे बढ़े।

राजनीतिक तथा सामाजिक जीवन में कई बार व्यक्ति अकेला चलता है। उसके अंदर अपार क्षमताएं होती हैं। व्यक्ति अपनी क्षमताओं के बल पर अकेला चले यह कोई अपराध नहीं है।  अटल जी में भी अकेले चलने की क्षमता थी। राजनीतिक जीवन में आवश्यकता पड़ने पर उन्होंने ‘एकला चलो रे’ भी कहा। परंतु देशहित के लिए आवश्यकता पडने पर सभी को साथ में लेकर चलने का गुण भी उनमें प्रकट हुआ। ऐसा लगता है उन्होंने अपनी कविता की पंक्तियों-

उद्यानों में, वीरानों में, अपमानों में, सम्मानों में,

कदम मिलाकर चलना होगा। जीवन के शत-शत आकर्षक,

अरमानों को दलना होगा। कदम मिलाकर चलना होगा।

से ही प्रेरणा ली है या इन परिस्थितियों ने उन्हें कविता लिखने की प्रेरणा दी।

संघ के स्वयंसेवक की गुणवत्ता ऐसे अवसरों पर ही प्रकट होती है। विभिन्न तरह के विचारों को स्वीकार न करते हुए साथ में लेकर चलना राजनीतिक तथा सामाजिक जीवन में बहुत कठिन काम है। परंतु अटल जी अपने आचरण से, अपने व्यवहार से भिन्न-भिन्न विचारधाराओं के लोगों को साथ में लेकर चले। यहां अटल जी केव्यक्तित्व के इस पहलू को उजागर करने की आवश्यकता है कि उनमें अकेले चलने की क्षमता थी परंतु फिर भी अगर देशहित के लिए सब को साथ लेकर चलना अनिवार्य है तो उन्होंने उस मार्ग पर चलने का निर्णय लिया और अपने साथियों को भी इसके लिए तैयार किया।

उनकी मृत्यु के पश्चात किसी भी व्यक्ति ने यह नहीं कहा कि ‘अटल जी में त्रुटि थी।’ सामाजिक जीवन में त्रुटियां देखना सहजभाव होता है। हो सकता है कि लोगों ने यह कहा हो कि  अटल जी ने यह कार्य नहीं किया, वह कार्य नहीं किया परंतु अटल जी ने यह गलत किया ऐसा किसी ने भी नहीं कहा। यह बहुत महत्वपूर्ण बात है।

लोकसभा में एक बार जब उनके विरोध में अविश्वास प्रस्ताव लाया गया, तब कई लोगों ने विभिन्न बातें कही थीं। किसी एक सांसद ने यह कहा कि अटल जी को सत्ता का लालच है उस क्षण उस बात पर अटल जी क्रोधित हो गए थे। क्योंकि यह उनकी प्रामाणिकता तथा उनके व्यक्तित्व पर प्रश्नचिह्न था। इसके अलावा उनके जीवन में क्रोध के अवसर बहुत कम दिखाई देते हैं।

भारतीय जनता पार्टी की जब रचना हो रही थी तब कई बार विषय निकला कि फिर एक बार जनसंघ बनाएंगे। तब अटल जी ने कहा ‘जो छूट गया है, उसे छोड़ दें। अब नई राह बनाएंगे, जो और भी व्यापक बनता जाएगा।’ 1980 से लेकर आज 2018 तक 38 वर्षों में हमने देखा उन्होंने पुराने विचारों के साथ नई राह बनाई। पुराना विचार नहीं छोड़ा अपितु नया साधन पकड़ा। उनके इस विचार को आज हम सफल होते हुए देख रहे हैं।

अटल जी के बारे में यह कहा जा सकता है कि वे कभी झुके नहीं। हालांकि वे शरीर से भी कभी झुके नहीं परंतु झुकना केवल शारीरिक नहीं होता। वे विचारों में तथा व्यवहार में भी कभी नहीं झुके। हिंदू समाज की, भारतीयता की, छोटी से छोटी चीजों के प्रति भी उनके मन में एक श्रेष्ठ भाव रहा। उन्होंने कहा था कि हमारी पहचान हमारी भाषा है। अतः राष्ट्रसंघ के इतिहास में भारत के प्रतिनिधि का हिंदी में भाषण होना बहुत बड़ी बात है। राष्ट्रसंघ में उन्होंने प्रबंधकों से कहा कि ‘आप  व्यवस्था कीजिए, मैं तो हिंदी में ही भाषण करूंगा।’ इसके पीछे उनके मन में ये भाव थे कि भारत का सामान्य व्यक्ति भी जिस भाषा को समझ सकता है, उसी भाषा में मुझे बात करनी है। विश्व के मंच पर जाकर वे क्या कह रहे हैं, यह सभी देशवासी समझ सकें, यही भाव अटल जी के मन में रहा। यही भाषा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता रही। उनमें देशभक्ति कूटकूटकर भरी थी। वे हर सम्भव कोशिक करके भारत को परम वैभवपूर्ण बनाने की कामना रखते थे। अत: उनहोंने अपनी कविता में लिखा भी-

आंखों में वैभव के सपने, पग में तूफानों की गति हो

राष्ट्रभक्ति का ज्वर न रूकता, आए जिस जिस की हिम्मत हो।

बाबरी ढांचा गिराए जाने की पूर्व की संध्या पर दिए गए अपने भाषण में उन्होंने कहा था ‘राम मंदिर राष्ट्रीय अस्मिता का विषय है। उसका निर्माण होना आवश्यक है।’ उन्होंने कभी भी बाबरी ढांचा गिराने की बात नहीं की। परंतु राम मंदिर निर्माण की बात अत्यंत स्पष्ट शब्दों में कही थी। भारत का सामान्य नागरिक, सामान्य हिंदू राम मंदिर के प्रति आस्था रखता है। वहां पर जोचिह्न खड़ा है, वह विदेशी आक्रमणकारियों का है,  अतः उसे मिटना चाहिए, यह भाव उनके मन में था। इसी भाषण में उन्होंने आगे एक घटना बताई कि “अफगानिस्तान के प्रवास के दौरान मैंने कहा ‘मुझे गजनी जाना है।’ वहां के लोगों ने पूछा ‘गजनी क्या है? वहां देखने लायक कुछ नहीं है। वहां आप क्यों जाना चाहते हैं?’ मैंने उन्हें उत्तर दिया ‘मैं बचपन से उसके अत्याचारों के किस्से सुनता आ रहा हूं। इसलिए मेरे मन में गजनी काटों जैसा चुभता है। मुझे देखना है कि वह लुटेरा कौन था और अन्य लुटेरों के साथ कहां से आया था।” गजनी को उन्होंने लुटेरा कहा था राजा नहीं इस प्रकार की उनकी भावनाएं कई अवसरों पर प्रकट हुई हैं।

राजनीतिक क्षेत्र में अक्सर यह देखा जाता है कि ऊपर से तो लोग मैत्रीपूर्ण व्यवहार करते हैं, परंतु मन में शत्रुता रखते हैं। परंतु अटल जी के साथ ऐसा नहीं था। उनके कट्टर विरोधियों से भी उनके मैत्रीपूर्ण संबंध रहे अटल जी का व्यवहार नाटकीय नहीं मित्रवत रहता था। वे अक्सर लोगों से कहा करते थे, हमारे विचार भले ही अलग-अलग हो परंतु हम मित्र तो बन ही सकते हैं। उनके मन में सबके प्रति सम्मान की भावना थी। इसीलिए वे भारतीय राजनीति में अजातशत्रु के रूप में ही जाने गए। उनका कोई शत्रु नहीं था। सभी मित्र भले ही ना हो परंतु शत्रु कोई नहीं था।

भारत का विभाजन उनकी वेदना का विषय रहा है। संपूर्ण भारत के बिना वे भारत की कल्पना ही नहीं कर सकते थे। वे अपने भाषणों में केवल पाकिस्तान की बात नहीं करते थे।  बल्कि गिलगिट से गारो की बात करते थे। एक स्वयंसेवक अपनी मातृभूमि के बारे में क्या सोचता है इसका उत्तम उदाहरण अटल जी की सोच है।

अपने समाज की जातिगत व्यवस्था के बारे में भी उनके मन में हमेशा पीड़ा रहती थी। रूढ़ियां, कुरीतियां, परंपराओं से बंधा हुआ समाज इन सभी से भारत को बाहर आना चाहिए। जातिगत विषमताओं के वे प्रखर विरोधी थे। जब-जब उन्हें अवसर मिला तब-तब उन्होंने प्रखर शब्दों में इन सभी अव्यवस्थाओं का विरोध किया था। उन्होंने अपनी वाणी के माध्यम से इन कुरीतियों पर प्रखर आघात किया था। सामाजिक विषयों को देखने की दृष्टि क्या होनी चाहिए यह उनके विभिन्न भाषणों से सीखने को मिलता है।

उनका नाम ही अटल है। कभी-कभी व्यक्ति के जीवन में  आता है कि अटल क्या है और सहज क्या है। अटल जी विचारों के प्रति अटल थे परंतु व्यवहार से सहज थे। वे कई बार कहा करते थे ‘मैं अटल भी हूं और बिहारी भी हूं।’ उनके जीवन में यह विवेक हर बात में दिखाई देता है कि उन्हें कहां अटल होना है और कहां सहज।

जब वे प्रधानमंत्री थे तब वे 20 से 22 दलों को साथ में लेकर चले थे। उनके मन में यह पीड़ा जरूर थी कि हम अपने सभी विचारों को लागू नहीं कर पा रहे हैं। परंतु फिर भी वे इस बात को समझते थे किसरकार चलाना आज प्राथमिक आवश्यकता है। गैर कांग्रेसी सरकार भी पांच साल चल सकती है, इस बात को स्थापित करना ही उस समय सबसे बड़ी चुनौती थी। अतः वे कई अवसरों पर मौन भी रहे। कुछ बातों को ना कर पाने की प्रामाणिक स्वीकार्यता भी उन्होंने दी। परंतु सभी दलों की मिलाकर जो सामूहिक विचार सूची थी उस पर वे चले। करगिल युद्ध के समय शायद लोगों की यह अपेक्षा रही होगी कि पाकिस्तान को सबक सिखाना आवश्यक है, परंतु यहां उनकी क्षमाशीलता काम कर गई। उन्होंने समझौता तो नहीं किया परंतु पाकिस्तान के आक्रमण का विरोध करते हुए तथा सेना को बल देते हुए अपना कार्य अवश्य किया। वे इस बात को जानते थे कि भारत में वह शक्ति है कि वह सारे विश्व का प्रतिनिधित्व कर सकता है। इसलिए उन्होंने लिखा-

जब तक ध्येय न पूरा होगा तब तक पग की गति न रुकेगी॥

आज कहे, चाहे कुछ दुनिया  कल को बिना झुके न रहेगी॥

कुशल राजनीतिज्ञ होने का परिचय उन्होंने सारी दुनिया को दिया है। उनके प्रधानमंत्री कालखंड में कई देशों से हमारे मैत्रीपूर्ण संबंध बने। देश के अंदर विरोधियों के साथ तथा बाहर विदेशी देशों के साथ उन्होंने मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किए।

अटल जी एक संवेदनशील व्यक्ति के रूप में सदैव हमारे स्मरण में रहेंगे। ऐसे व्यक्ति सैकड़ों वर्षो के बाद जन्म लेते हैं। इस शतक में उनके समान और कोई नहीं है। भविष्य में भी नहीं होंगे यह मैं नहीं कह सकता क्योंकि भारत माता सदैव इस प्रकार के पुत्रों को जन्म देती रही है। परंतु अटल जी अटल जी थे। उनके समान अन्य कोई नहीं हो सकता।

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