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पैठणी के नए अवतार

by तेजस्वी रायकर
in फ़ैशन, फैशन दीपावली विशेषांक - नवम्बर २०१८, महिला
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महाराष्ट्र की पैठणी साड़ी रंग, बेलबूटे और कारीगरी के लिए प्रसिद्ध है। पैठण के अलावा येवला भी इसका मुख्य केंद्र है। यह साड़ी महिलाओं को मोहक तो बना ही देती है, पुरानी होने पर बच्चियों के ड्रेस सिलवाने के काम भी आती है। फैशन और उपयोग दोनों साथ-साथ…

माँ या फिर घर की किसी भी महिला की साड़ी पुरानी होने का हम सभी बहनें बेसब्री से इंतजार करती हैं। सुनने में थोड़ा अजीब लग सकता है परंतु यह बिलकुल सत्य वचन है। क्योंकि, उनकी पुरानी साडियों के हमें लहंगे, कुर्ते और कोटियां जो बनवानी होती हैं। बढ़ती उम्र के कारण महिलाएं बहुत भारी साडियां नहीं पहन पातीं या फिर गर्मी सहन न होने की वजह से कुछ साड़ियां पहनी नहीं जातीं। कारण जो भी हो हमें तो बस मौका चाहिए होता है कि कब घर की कोई महिला अलमारी खोले और अपनी साड़ियों को देखना शुरू करें। कई बार तो हमारा लालच इतना बढ़ जाता है कि हम उस महिला के न चाहते हुए भी उसे यह समझाने में कामयाब हो जाते हैं कि ये साड़ी, साड़ी की तरह पहनने लायक नहीं रही। इसे हमें दे दो तो हम इसका कुछ बनवा लेंगे।

हमारी कामयाबी का आनंद तब चार गुना बढ़ जाता है जब साड़ी पैठणी हो। पैठणी साड़ी में बनी नाजुक बूटी, उस पर बनी डिजाइन तथा उसके चित्ताकर्षक रंग हमेेंं बहुत प्रभावित करते हैं। पैठणी साड़ी के लिए इतना ही कहा जा सकता है कि पैठणी साड़ी पहने हर नारी दूसरी साड़ी पहने नारी के मुकाबले ज्यादा सुंदर दिखती है। यह सच है कि बदलते दौर में अन्य साड़ियों पर फैशन का असर पड़ा है, पर पैठणी आज भी अपनी विशिष्ट परंपरा को बनाए हुए हैं। पैठणी मुख्यतः हरे, पीले, लाल और नारंगी रंग की होती है। शुद्ध रेशमी पैठणी का पूरा किनारा (पल्ला) सोने-चांदी की जरी का होता है। रेशमी कपड़े पर आकर्षक पद्धति से सोने-चांदी के तारों से की गई बेहद सुंदर बुनाई हर स्त्री को आनंदित कर देती है। स्वप्निल वस्त्र के नाम से पहचानी जाने वाली पैठणी पर जो मोर की आकृति होती है, उसे देखकर हर कोई कहता है कि इस साड़ी में कितनी सुंदर बुनाई की गई है।

महाराष्ट्र के मराठवाड़ा संभाग के अंतर्गत आने वाले पैठण की प्रसिद्ध पैठणी साड़ी का एक मुख्य केंद्र येवला भी है। नासिक जिले के अंतर्गत आने वाले येवला की पुरानी पैठणी की वैभवशाली परंपरा है। येवला की पुरानी पैठणी सोलह हाथ लंबी तथा चार हाथ चौड़ी होती थी। पैठणी के पल्लू पर पहले बेलबूटी अथवा पशु-पक्षियों के चित्र होते थे। इतना ही नहीं, पुरानी पैठणी साड़ी का वजन साढ़े तीन किलो से ज्यादा होता था। एक पैठणी के निर्माण में साधारणतः बाईस तोेला चांदी के साथ-साथ 17.4 ग्राम सोने का उपयोग किया जाता था। पैठणी के निर्माण में उपयोग में लाए जाने वाले सोने के धागे (मासे) के आधार पर उसे बारहमासी, चौदहमासी, इक्कीसमासी नाम दिए गए हैं। सोने के धागे ( मासे) के आधार पर पैठणी की कीमत तय की जाती है। 130 नंबर का रेशम उपयोग में लाकर बनाई गई छत्तीसमासी पैठणी राजघराने की महिलाओंं के लिए बनाई जाती थी।

पुराने दौर में बनाई जाने वाली पैठणी का पूरा पल्ला जरी का होता था। पल्ले पर दोनों ओर से बेलबूटी होना पैठणी की विशिष्ट पहचान बन गई थी। पैठणी के पल्ले ( पदर) में खरगोश, मोर, भालू, गज बेल जैसी कलात्मक आकृत्ति बनाई जाती थी। पैठणी की ऐसे पल्ले पर रंगीन तथा कीमती रेशमी धागे से सुंदर और आकर्षक बेलबूटी वाली डिजाइन बनाई जाती थी। मीनाकारी नामक बेलबूटी वाली पैठणी पर 5 से 18 नारियल की आकृति बुनी गई होती थी। पारंपरिक पैठणी साड़ी को बनाने में कई कारीगरों का सहयोग लेना पड़ता था। पैठणी साड़ी को बनाने में जिन- जिन लोगों का सहयोग लिया जाता रहा है, उनके कार्य बंटे हुए थे। कोई भी कारीगर दूसरे कारीगर के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता था। सुनार साड़ी के लिए सोने के पतरे के तार की सफाई करता था। किसी कारीगर पर रेशम के धागोें के चयन की जिम्मेदारी होती थी, तो कोई रेशम को रंगने के कार्य में लगा रहता था। इस तरह एक पैठणी के निर्माण में कई कारीगरोंं की टीम कार्य करती थी। कारीगरों की मेहनत से बनी आकर्षक साड़ी मांगलिक अवसर पर खास परिधान बनती रही है। पैठणी साड़ी को लंबे अर्से से मिल रहा महत्व आज भी बरकरार है।

बीसवीं शताब्दी के पहले दशक के पेशवा काल में येवला की पारंपरिक पैठणी का भाग्य तो और ज्यादा चमका। बीसवीं शताब्दी के पहले दशक तक येवला की पैठणी की पारंपरिक शैली और स्तर टिका रही, उसके बाद जैसे-जैसे युवतियों की रुचि बदलती गई पैठणी के कारीगरों को भी पैठणी के निर्माण में बदलाव करने पड़े। पैठणी में प्राचीनता तथा आधुनिकता का समावेश किया गया, तो पैठणी नए दौर की युवतियों को भी भाने लगी और जो युवतियां यह कहकर पैठणी खरीदने से मनाकर देती थी कि पैठणी तो पुरानी परंपरा की साड़ी है, इसको पहनने पर नई फैशन का मजाक उड़ेगा, वे युवतियां भी पैठणी खरीदने लगीं।

ग्राहक की अभिरुचि के कारण पैठणी के रूप, स्वरूप में बदलाव के बावजूद पैठणी के कारीगरों ने कभी पैठणी के मूल स्वरूप को नहींं बदला। हालांकि बदलाव की हवा में कारीगरों को प्राप्त राजाश्रय व लोकाश्रय धीरे-धीरे कम होता गया। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात सोने-चांदी के भाव में आई अचानक तेजी के कारण पैठणी के व्यवसाय पर असर पड़ा। हथकरघे के साथ-साथ मशीन से पैठणी का निर्माण जब शुरू हुआ, तो उसकी कीमत तथा स्तर दोनों में कमी आ गई। कीमत घटने के कारण अधिकांश मध्यमवर्गीय परिवारों की महिलाओं का भी रुझान सस्ती साड़ियां खरीदने के प्रति बढ़ा। इसका परिणाम यह हुआ कि पैठणी बाजार से दूर जाने लगी। ऐसे में पैठणी के कारीगरों ने अपनी उपजीविका के लिए अन्य व्यवसाय की ओर कदम बढ़ा दिए। वर्तमान में जो पैठणी बाजार में बेची जा रही है, वस्तुतः वह पारंपरिक शैली की पैठणी नहीं है, उसे अजंता शैली के नाम से जाना जाता है। क्योंकि वर्तमान दौर में जो पैठणी है, उसमें अजंता की भित्तिचित्रों में उल्लिखित फूल-पत्तियों और पशु- पक्षियों की आकृति बनाई जाती है। इतना ही नहीं, आज पैठणी को फरसपेढी और इंदौरी आदि दो शैलियों की समानता देकर बाजार में उतारा जा रहा है।

महाराष्ट्र की शान कही जाने वाली पैठणी की महाराष्ट्र के मुकाबले विदेश में ज्यादा मांग है, क्योंकि यह पैठणी इतनी मंहगी हो गई है कि उसे खरीदना सबके लिए आसान नहीं है। महाराष्ट्र में पैठणी साड़ी उद्योगों से जुड़े घरानों, अभिनेत्रियों तथा धनाढ्य परिवारों की महिलाओं के सौंदर्यवृद्धि में अहम सहयोग प्रदान कर रही है। सभी को अपनी ओर से आकर्षित करने वाली पैठणी अब साड़ी तक ही सीमित नहीं रही, अब पैठणी साड़ी पर बुनी जाने वाली कलाकृति अन्य वस्त्रों पर भी देखी जा रही है और यही मुख्य कारण है कि आज की युवतियां भी पैठणी की ओर आकर्षित हो रही हैं।

पुरानी पैठणी साड़ी की बांट जोहती हम जैसी लड़कियों के हाथ जैसे ही पैठणी लगती है हम उसके डिजाइन सोचने लगती हैं। पैठणी के कलर कॉम्बिनेशन वैसे ही बहुत सुंदर होते हैं। अत: मैचिंग की अधिक दिक्कत नहीं होती। पैठणी का पल्ला उसकी जान है। यह साड़ी की शोभा तो बढ़ाता ही है, साड़ी से बनने वाले कुर्ते, लहंगे, कोटी और पर्स में भी अहम भूमिका निभाता है। अगर साड़ी से कुर्ता बनाया जा रहा है तो बॉडी पार्ट साडी के पल्ले से बनाया जाता। साडी का यही पल्ला चोली या ब्लाउज बनाने के काम आता है अगर साड़ी से लहंगा बनाया जा रहा हो। कोटी और पर्स तो पूरी इसी पल्ले से बनाई जाती है। साड़ी का बचा हुआ हिस्सा कुर्ते और लहंगे का घेर बनाने के काम आ जाता है।

हालांकि अब बाजार में पैठणी के रेडीमेड कुर्ते, कुर्ते के कपड़े, कोटी, पर्स इत्यादि सभी मिलने लगा है परंतु घर की महिलाओं की साड़ी में ममता और अपनेपन की खुशबू बसी होती है। वे भी अपनी पुरानी साड़ियों का नया रूप देखकर खुश हो जाती हैं।

पैठणी केवल ग्राहकों को ही लुभाती है ऐसा नहीं है, यह कारीगरों को सम्मान भी दिलाती है। पैठणी साड़ी के माध्यम से हथकरघा की कला को विश्व प्रसिद्ध करने वाले शांतिलाल भांडगे के घर में एक नहीं चार- चार राष्ट्रपति पुरस्कार हैं। मुंबई के विवर सेंटर में प्रदीर्घ सेवा देने वाले भांडगे को सन् 2003 में पहली बार राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया, उसके बाद से उनकी पैठणी निर्माण कला के बारे में अधिकांश लोगों को जानकारी मिली। मेहनत, व्यापारिक नीतियॉ तथा गुणवत्ता के बल पर असंभव को संभव किया जा सकता है। इसी को केंद्र में रखकर हथकरघे की कला को अपना व्यवसाय बनाने वाले भांडगे ने पैठणी उद्योग को वह ऊंचाई प्रदान की, जिसकी पहले किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी।

बाजार से खरीदे गए रेशम के बखार को निकालने के बाद उसे पैठणी साड़ी बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। बखार निकालने के बाद शुद्ध बचे रेशम को हथकरघे पर चढ़ाया जाता है, उसके बाद इस रेशम पर हरा, जामुनी, लाल, गुलाबी, पीला, चाकलेटी, काफी, तोते के रंग का, नारंगी, मेंहदी के रंग का, मोरपंखी रंग चढ़ाया जाता है। रेशम की बगी तैयार करने के बाद उसको मार पर स्थित रेशम तथा जरी के तार को बगी के तार से जोड़ा जाता है, जिसे कारीगरों की भाषा में साधना कहा जाता है। साधने की प्रक्रिया पूरी होने के बाद फड़े ताने जाते हैं, उसके बाद शटल से दो अंगुली कपड़े की बुनाई की जाती है और उसमें प्याला डालकर गज बीना जाता है। गज बीनने के बाद फिर दो-तीन अंगुली कपड़ा बुना जाता है। उसके बाद फैले हुए उभार पर पानी का फौव्वारा दिया जाता है। फौव्वारे के कारण रेशम की लंबाई का अंदाजा मिल जाता है। फौव्वारा देने के बाद दो-तीन घंटे काम बंद रखा जाता है, उसके बाद फिर बुनाई का काम शुुरू किया जाता है। इन दो-तीन घंटे के बाद जब फिर काम शुरू किया जाता है, उस वक्त बुनाई की जाती है। एक लंबी प्रक्रिया के बाद जब पैठणी बनकर तैयार होती है, तो कारीगर उसे देखकर प्रसन्न हो जाते हैं।

जिस पैठणी को पहनने के लिए स्त्रियां उतावली रहती हैं, उसे बनाने में बहुत श्रम लगता है और पैठणी की कीमत कारीगरों के श्रम कोे देखकर तय की जाती है। इसलिए हम जैसी लड़कियों को पैठणी के अन्य अवतार अगर नए मिल जाएं तो सोने पर सुहागा वरना फिर वही इंतजार साडियों के पुराने होने का।

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