जम्मू-कश्मीर : भारत के लिए अब अनुकूल माहौल-श्री अरुण कुमार

आप ‘कश्मीर समस्या’ को हमेशा ‘भारत समस्या’ कहते हैं। ऐसा क्यों?

मेरा बड़ा स्पष्ट मानना है कि ‘कश्मीर समस्या’ या ‘भारत समस्या’ जैसी कोई अवधारणा विश्व में है नहीं। जम्मू-कश्मीर में समस्या या समस्याएं हो सकती हैं; न कि जम्मू-कश्मीर एक समस्या है। आज देश में छत्तीसगढ़ नक्सलवाद से प्रभावित है इसलिए हम इसे नक्सलवाद की समस्या कहते हैं; न कि छत्तीसगढ़ को समस्या। जब हमारे बीच चल रही समस्याओं को ‘कश्मीर समस्या’ के रूप में परिभाषित करते हैं तो लगता है कि मानो सम्पूर्ण राज्य ही भारत के खिलाफ है जो कि तथ्यात्मक रूप से गलत है। जम्मू के क्षेत्र में रहने वाला डोगरा एवं पहाड़ी, लद्दाख में रहने वाला बौद्ध, शिया, बलती या पुरिग, कश्मीर में रहने वाला शिया और गुज्जर पूरी तरह से भारत के पक्ष में खड़ा है इसलिए सम्पूर्ण राज्य को समस्याग्रस्त कहना तर्कसंगत नहीं है।

जहां तक समस्याओं का प्रश्न है, जम्मू कश्मीर में अलगाववाद एक समस्या है, जम्मू -कश्मीर में आतंकवाद एक समस्या है, इतिहास का विकृतिकरण एक समस्या है, कट्टर इस्लामिक एजेंडा एक समस्या है। और, ये समस्याएं वर्तमान में उत्पन्न नहीं हुई हैं। इसके पीछे शुरुआत में एक विदेशी षड्यंत्र था जो जम्मू-कश्मीर की धरती पर रचा गया। इसके बाद सूचना एवं जानकारियों के विकृतिकरण के कारण समस्या निरंतर बढ़ती रही। इसमें सब से बड़ा योगदान दिल्ली और श्रीनगर में बैठे नेताओं, नौकरशाहों, पत्रकारों और अधिवक्ताओं का है। जब-जब जम्मू-कश्मीर में स्थितियां सुधरने लगती हैं तब-तब दिल्ली कोई न कोई ऐसा कदम उठाती है जो समस्या को फिर से उभरने का मौका दे देती है। उदाहरण स्वरूप २०१० में असंतोष के बाद राज्य में हालात सुधर रहे थे कि केंद्र सरकार ने तीन वार्ताकारों की एक टीम वहां भेज दी। इस टीम ने ऐसी सिफारिशें कीं जो अत्यंत घातक थीं जैसे अनुच्छेद ३७० को स्थायी बनाना, १९५३ के बाद लागू किए गए संवैधानिक प्रावधानों की पुनः समीक्षा करना आदि। इस प्रकार के कदम अलगाववादियों को एक नया जीवन प्रदान करते हैं जिससे वे अपनी गतिविधियां और मुखर होकर चलाते हैं। हालांकि बुरहान के मारे जाने के पश्चात ऐसा पहली बार देखा गया कि राज्य के ३-४ जिलों में गड़बड़ी कर रहे अलगावादियों को बिलकुल नज़रअंदाज़ किया गया है जिससे उनके हौसले पस्त होते जा रहे हैं।

सीमा पर रहने वाले नागरिकों का शेष भारत के साथ एकीकरण होना जरूरी है। इसके लिए अध्ययन केंद्र कौन-कौन से प्रयास करता है?
जम्मू-कश्मीर सामरिक दृष्टि से अधिक संवेदनशील राज्य है। हमारी अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा एवं नियंत्रण रेखा दोनों इससे जुड़ी हैं। राष्ट्र का यह राज्य पाकिस्तान एवं चीन जैसे रास्तों से सटा है। वर्तमान समय में भी मीरपुर, मुज्जफराबाद, भिंबर, कोटली, गिलगित, बाल्टिस्तान, जो कि जम्मू-कश्मीर रियासत के हिस्से थे, आज पाकिस्तान के कब्जे में है तो दूसरी तरफ लद्दाख का अक्साईचिन नामक क्षेत्र चीन के अवैध कब्जे में है।

यहां हमें लगातार समस्याओं से जूझना पड़ता है। कभी घुसपैठ, कभी गोलाबारी और कभी आतंकी हमले जैसी घटनाएं यहां आए दिन घटती रहती हैं। जम्मू-कश्मीर राज्य में सांबा, कठुआ, अखनूर, आर एस पुरा, राजौरी, पुंछ और कारगिल के लोग निरंतर इसका शिकार होते रहते हैं। लेकिन यहां की देशभक्त जनता के योगदान के कारण १९४७ से लेकर आज तक दोनों दुश्मन राष्ट्रों के अनेक षड्यंत्र विफल रहे हैं।
पाकिस्तान जब अपनी नापाक हरकतों से बाज़ नहीं आता तो भारतीय सेना भी उसका मुंहतोड़ जवाब देती है। भारतीय कार्रवाई कुछ पाकपरस्त मीडिया घरानों को अखर सकती है और वे ‘अमन की आशा’ जैसे पाखंड रच सकते है। लेकिन आर एस पुरा, पुंछ, अखनूर और सांबा क्षेत्रों में रह रहे लोगों को गोलीबारी से कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है। उन्हें अपने घरबार छोड़ कर कैंपों में शरण लेनी पड़ती है।

सीमा रेखा और नियंत्रण रेखा पर रहने वाले भारतीयों को यदि मजबूत बनाना है तो उसमें एकीकरण के भाव को और सशक्त करने की जरूरत है। शेष भारत में रहने वाले लोगों और जम्मू-कश्मीर में सीमा और नियंत्रण रेखा पर रहने वाले लोगों के बीच संवाद स्थापित करना और उसे निरंतर जारी रखने की जरूरत है। सीमा और नियंत्रण रेखा पर रहने वाले लोगों के प्रति शेष भारत में जागरूकता आनी चाहिए। उनकी समस्याओं एवं प्रश्नोंे के विषय में जब भारत से आवाज़ उठेगी तो उससे सीमा पर रहने वाले लोगों का भावनात्मक एकीकरण पूरे देश के साथ और बढ़ेगा। कश्मीर अध्ययन केंद्र इस बात के लिए निरंतर कार्य करता है कि यह संवाद बने और इसे मजबूती प्रदान हो। इसके लिए जम्मू-कश्मीर में सीमा रेखा और नियंत्रण रेखा पर स्थित अनेक गांवों में शिक्षा, स्वास्थ्य से संबंधित अनेक कार्य जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र करता है।

जम्मू-कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है इस मुद्दे पर हमें पाकिस्तान को कटघरे में खड़ा करना चाहिए। लेकिन भारत कटघरे में खड़ा है । ऐसी विपरीत स्थिति के क्या कारण हैं?

जम्मू-कश्मीर को लेकर आज में किसी प्रकार का संशय नहीं है। जम्मू- कश्मीर भारत का वैसा ही हिस्सा है जैसा देश के अन्य राज्य। जम्मू-कश्मीर भारत के संविधान की अनुसूची एक में १५हवें स्थान पर पर वर्णित राज्य है और जम्मू-कश्मीर के संविधान का सेक्शन ३ भी इसी तथ्य की ओर इंगित करता है। ठीक इसके उलट पाकिस्तान ने आज तक किसी भी पटल पर जम्मू-कश्मीर पर दावा नहीं किया है। जहां तक भारत के कटघरे में खड़े होने का प्रश्न है इसका कारण भारत की नीतियों में निरंतरता नहीं थी। हम केवल उनके प्रश्नों का उत्तर देने में लगे रहे। भारत की संसद ने जम्मू-कश्मीर पर १९९४ में संकल्प तो लिया लेकिन धरातल पर इस विषय में कुछ नहीं किया। इस नीति-पंगुता का लाभ देश के दुश्मनों ने खूब उठाया। मेरा मानना है कि भारत को जम्मू-कश्मीर के संदर्भ कटघरे में खड़े करने के प्रयास पहले पश्चिमी राष्ट्रों द्वारा पोषित कथित बौद्धिक वर्ग ने किए और वर्तमान में देशविरोधी ताकतें इस्लामिक कट्टरवाद के चलते कर रही हैं।

जम्मू-कश्मीर का वर्तमान या भूतकाल में जो सामरिक या आर्थिक महत्व था उसका सब से बड़ा कारण है ‘गिलगित- बाल्टिस्तान’ था। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात ब्रिटिशों के समक्ष सब से बड़ा प्रश्न था कि यदि उन्हें भारत छोड़ना है तो उस स्थिति में ब्रिटिश हितों का परिपोषण कैसे किया जाए। अंग्रेजों को जम्मू-कश्मीर के सामरिक महत्व का पूरा अंदाजा था। चीन और रूस के विस्तार को रोकने लिए ब्रिटिश कश्मीर से तुर्की तक इस्लामिक बनाना चाहते थे। वे यह बात स्पष्ट जानते थे कि भारत उन्हें कभी जम्मू-कश्मीर में हस्तक्षेप नहीं करने देगा। इसीलिए उन्होंने एक षड्यंत्र रचा, जिसका आधार था- यदि जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान के साथ नहीं रहा तो पेशावर, इस्लामाबाद, लाहौर, स्यालकोट ये सब शहर भारत की रेंज में आ जाएंगे। बलूचिस्तान पाकिस्तान में ही रहना नहीं चाहता। पूरा जम्मू -कश्मीर यदि भारत के पास होता तो बलूचिस्तान पाकिस्तान में नहीं जाता। पाकिस्तान ही नहीं बनता।

अंग्रेज जम्मू-कश्मीर का अधिमिलन भारत में नहीं रोक पाए तो भारत को संयुक्त राष्ट्र में घेरने की कोशिश की गई। यदि एतिहासिक दस्तावेजों का अध्ययन विश्लेषण किया जाए तो विदेशी ताकतों के षड्यंत्र पूरी तरह से समझ में आ जाएंगे। भारत ने संयुक्त राष्ट्र में जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण की शिकायत की; लेकिन वहां षड्यंत्रकारी ताकतों ने अधिमिलन को लेकर ही प्रश्न उठाने शुरू कर दिए। शुरू में भारतीय नेतृत्व इन षड्यंत्रों को भांप नहीं पाया किंतु उसके बाद १९५६ में मेनन और बाद में छागला के संयुक्त राष्ट्र में हुए भाषणों ने स्पष्ट कर दिया कि भारत जम्मू-कश्मीर में किसी बाहरी शक्ति का हस्तक्षेप बिलकुल नहीं सहन करेगा और यह स्थिति आज तक अटल है।
‘एक देश में दो विधान, दो निशान, दो प्रधान नहीं चलेंगे’ इस वैचारिक उद्घोष को लेकर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बलिदान दिया। इन विचारों में जो गौरवपूर्ण भाव है उसे स्पष्ट कीजिए।

भारत को स्वतंत्र हुए ७० वर्ष हो चुके हैं, लेकिन यह उद्घोष भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात हुए पहले राष्ट्रवादी आंदोलन का था। स्वतंत्रता के मात्र ३-४ वर्ष के पश्चात दिए गए इस उद्घोष से पूरा भारत पुनः एक होकर सड़कों पर उतर आया था। इस प्रश्न के उत्तर को जानने के लिए हमें संविधान निर्माताओं की भारत की संकल्पना को समझना पड़ेगा और साथ-साथ भारत के सामरिक रूप से महत्वपूर्ण इस राज्य के उस समय के घटनाक्रम को भी समझना पड़ेगा।

१५ अगस्त को अंग्रेजों से हमें स्वतंत्रता मिली। उससे कुछ समय पूर्व ही देश के संविधान निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई थी। संविधान निर्माण की प्रक्रिया में देश के कोने – कोने से आए अपने- क्षेत्रों के विशेषज्ञों ने भाग लिया। संविधान निर्माताओं ने संविधान निर्माण में दो बातों का विशेष ध्यान रखा। पहला- देश में एकत्व का भाव बना रहे और दूसरा- देश के कुछ वर्ग जैसे महिलाओं, अनुसूचित जाति-जनजातियों एवं अन्य पिछड़े वर्गों के हितों के संरक्षण के लिए व्यवस्थाएं। इसीलिए राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री, राज्यों में मुख्यमंत्री, राज्यपाल, एक चुनाव आयोग, उच्चतम न्यायालय और राष्ट्रध्वज जैसे विषयों के साथ देश के नागरिकों के मूलभूत अधिकारों, राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों के साथ महिलाओं, अनुसूचित जाति-जनजातियों एवं अन्य पिछड़े वर्गों के सशक्तिकरण हेतु भी प्रावधानों की रचना कीं। लेकिन जम्मू-कश्मीर में जवाहर लाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला ने संविधान निर्माताओं की भारत की संकल्पना को छिन्नभिन्न करते हुए एक राजनीतिक सहमति बनाई जिसे ‘दिल्ली करार’का नाम दिया गया। जवाहर लाल नेहरू और शेख की इस राजनीतिक सहमति का सदन के अंदर और बाहर दोनों जगह जबरदस्त विरोध हुआ। १९५३ में जनसंघ के प्रथम अधिवेशन में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने देश को जम्मू-कश्मीर के बारे में ललकार भरा उद्घोष दिया-‘एक देश में दो विधान, दो निशान, दो प्रधान नहीं चलेंगे।’ पूरे देश में इस उद्घोष को व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ।

इसी कड़ी में यह निर्णय लिया गया कि देश भर के कार्यकर्ता जम्मू-कश्मीर मे जाकर गिरफ्तारी देंगे। इसी आंदोलन में डॉक्टर जी जम्मू- कश्मीर आए, उनकी गिरफ्तारी हुई और बाद में रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु भी हुई। उनकी मृत्यु संवैधानिक मूल्यों के लिए बलिदान था। हालांकि यह बलिदान व्यर्थ नहीं गया। जम्मू-कश्मीर से परमिट सिस्टम हटा दिया गया, राज्य में तिरंगा ससम्मान फहराया जाने लगा, उच्चतम न्यायालय, चुनाव आयोग और महालेखाकार के अधिकार क्षेत्र का विस्तार जम्मू-कश्मीर तक कर दिया गया। जम्मू-काश्मीर के राज्यपाल को सदर-ए-रियासत न कह कर राज्यपाल और मुख्यमंत्री को प्रधान मंत्री न कह कर शेष राज्यों की तरह मुख्यमंत्री ही कहा जाने लगा। इस प्रकार देश में दो निशान और दो प्रधान की कुप्रथा तो समाप्त हो गई किन्तु आज भी अनेक संवैधानिक विसंगतियां हैं जिनका निराकरण आवशयक है जैसे जम्मू-कश्मीर में आज भी अनुसूचित जातियों, जनजातियों एवं अन्य पिछड़े वर्गों और महिलाओं जैसे वर्गों के साथ अलग विधान के नाम पर अत्याचार हो रहे हैं।

डॉक्टरजी के द्वारा दिए गए उद्घोष से उनके व्यक्तिव की गहराई और समझ का पता चलता है कि आज ६५ वर्षों के पश्चात भी उनके द्वारा उठाए गए विषय प्रासंगिक हैं। उनके उद्घोष में उनका आशय स्पष्ट था कि एक देश में दो व्यवस्थाएं नहीं चल सकतीं। देश की अनुसूचित जातियों के लोगों साथ उत्तर प्रदेश अलग और जम्मू-कश्मीर में अलग व्यवहार नहीं किया जा सकता। देश के किसी दूसरे राज्य में जन्म पाया सफ़ाई कर्मचारी का बच्चा बड़ा होकर अपनी योग्यता और मेहनत के बल पर डॉक्टर और इंजीनियर बन सकता है किन्तु जम्मू-कश्मीर में उसी सफ़ाई कर्मचारी बच्चा सफाई कर्मचारी ही बना रहता है क्योंकि वहां लिखित नियम बना दिया गया कि एक सफाई कर्मी का बेटा केवल और केवल सफाई कर्मी ही बना रह सकता है। जिस दिन हम अनुसूचित जातियों के साथ महिलाओं, जनजातियों एवं ओबीसी जैसे वर्गों के साथ जम्मू-कश्मीर में हो रहे अन्याय से मुक्ति पा लेंगे, उस दिन हम डॉ. मुखर्जी जी के द्वारा किए गए आह्वान की संपूर्ति मानेंगे।

कश्मीर में विगत ७ दशकों से जो भयावह स्थिति है, उसका क्या कारण है?

जम्मू-कश्मीर लंबे समय से अपप्रचार का शिकार रहा है। १९४७ को स्वतंत्र हुआ तब से लेकर आज तक विभाजनकारी तत्वों ने तथ्यों का विकृतिकरण किया है कि आज ७० वर्ष के पश्चात जम्मू-कश्मीर को लेकर अनेक प्रकार के भ्रम और आशंकाएं उत्पन्न हो गई हैं। जम्मू-कश्मीर में जितनी भी समस्याएं आज खड़ी हैं उनका मूल यदि मैं एक वाक्य में कहूं तो वह है- जम्मू-कश्मीर में जानकारी का विकृतिकरण और शेष भारत में जानकारी का अभाव।

उदाहरण स्वरूप यदि आज मैं भारत के किसी भी हिस्से में जम्मू-कश्मीर की बात करता हूं तो मन में जो पहली प्रतिमा बनती है वह अलगाववाद और आतंकवाद की बनती है। जबकि यह सत्य एवं तथ्य नहीं है। पूरे जम्मू-कश्मीर का क्षेत्रफल २,२२,००० वर्ग किमी है। उसमें से लगभग १२१००० वर्ग किमी आज पाकिस्तान और चीन के कब्जे में है जिसको पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर एवं चीन अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के नाम से जाना जाता है। वर्तमान में भारत के पास १००००० किलोमीटर है। वर्तमान समय में जम्मू- कश्मीर घाटी का सब से बड़ा क्षेत्र है वह लद्दाख है। इसका क्षेत्रफल ५९,००० वर्ग किलोमीटर है। इस पूरे क्षेत्र में कहीं पर भी अलगाववाद या आतंकवाद का नाममात्र भी लवलेश नहीं है। दूसरा सब से बड़ा क्षेत्र जम्मू है। इसका क्षेत्रफल लगभग २६००० वर्ग किलोमीटर है। इसमें१० जिले आते हैं। इस पूरे क्षेत्र में कहीं पर भी आतंकवाद या अलगाववाद का समर्थन नहीं है। तीसरा और सब से छोटा क्षेत्र जम्मू-कश्मीर राज्य का है वह कश्मीर है। कश्मीर को भी हम तीन भागों में बांट सकते हैं-श्रीनगर या झेलम घाटी, लोलाब घाटी और गुरेज घाटी। इसमें से मात्र श्रीनगर घाटी/झेलम घाटी के ५ जिले ऐसे हैं जहां पर आतंकवाद या अलगाववाद का तत्व मौजूद है।

जिस प्रकार शेष भारत में जानकारी और सूचना के अभाव के चलते जम्मू- कश्मीर को लेकर अनेक भ्रम पैदा हुए हैं ठीक उसी प्रकार जम्मू-कश्मीर के अंदर भी जानकारी और सूचना के विकृतिकरण के कारण अनेक भ्रम उत्पन किए गए हैं। एक उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट करना चाहूंगा- जम्मू-कश्मीर में आजादी के बाद से लेकर आज तक वहां के अधिमिलन पत्र को लेकर अनेक भ्रम उत्पन करने की कोशिश की गई है। जम्मू- कश्मीर में निरंतर एक भ्रम पैदा करने की कोशिश की गई कि १९४७ में जो भारत का विभाजन हुआ उसका आधार धार्मिक था। मुस्लिम बहुल क्षेत्र को भारत से काट कर पाकिस्तान बनाया गया जो कि एक ऐतिहासिक और वैधानिक रूप से गलत अवधारणा है।
भारत का विभाजन कभी धार्मिक आधार पर नहीं हुआ। यदि धर्म के आधार पर विभाजन हुआ तो वह मात्र ब्रिटिश इंडिया का हुआ था।

ब्रिटिश इंडिया वह क्षेत्र था जिस पर ब्रिटिश सीधे-सीधे शासन करते थे। इस ब्रिटिश इंडिया में से मुस्लिम बहुल क्षेत्र काट कर पाकिस्तान का निर्माण करवाया गया। शेष भारत जिसे देसी रियासतें या राज्य कहा जाता था। वहां पर यह अधिकार मात्र राजा के पास था कि वह अपने राज्य का अधिमिलन स्वेच्छा से करा सकता है। २६अक्टूबर१९४७ को जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने अधिमिलन पत्र पर हस्ताक्षर कर जम्मू-कश्मीर को भारत का वैधानिक रूप से अंग बना दिया था। वहां पर निरंतर यह अपप्रचार किया जाता है कि जम्मू-कश्मीर मुस्लिम बहुल होने के कारण पाकिस्तान में जाना चाहिए था। यहां बहुत आसानी के साथ यह तथ्य भुला दिया जाता है कि जम्मू-कश्मीर ब्रिटिश भारत का अंग न होकर एक देशी रियासत थी जिसके भविष्य का निर्णय करना वहां के महाराजा के हाथ में था। इस अपप्रचार के चलते आज जम्मू-कश्मीर में हमें अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।

इस अपप्रचार का प्रयोग स्वतंत्रता पूर्व से और कुछ समय स्वतंत्रता के बाद भी विश्व की साम्राज्यवादी ताकतों ने किया और आज इस्लामिक कट्टरवाद कर रहा है।

गिलगित- बाल्टिस्तान का महत्व आप ‘बुलेट पाइंट’ के रूप में करते हैं। ऐसा क्यों?

भारत में स्वतंत्रता के पश्चात राज्य के प्रायः तीन भाग बताए जाते हैं। जम्मू, कश्मीर और लद्दाख। जबकि तथ्यात्मक रूप से यह ठीक नहीं है। जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के अतिरिक्त गिलगित, बाल्टिस्तान भी जम्मू-कश्मीर का ही हिस्सा है। मैं अगर यह कहूं कि जम्मू-कश्मीर का यदि कोई सामरिक और आर्थिक महत्व है तो वह केवल गिलगित की वजह से है तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। किन्तु १९४७ में यह क्षेत्र पाकिस्तान के अवैध कब्जे में चला गया

यदि सामरिक रूप से देखा जाए तो भारत पर बाह्य आक्रमणकारी इसी क्षेत्र से भारत में घुसे थे। भविष्य में यदि हम ऐसे किसी आक्रमण को रोकना चाहते हैं तो इस क्षेत्र पर हमारा नियंत्रण होना चाहिए। परंपरागत रूप से हिंदुकुश पर्वत शृंखला हमारी सीमा रही है और उसे बनाए रखना ही हमारे लिए हितकर होगा। यदि आर्थिक पक्ष को भी देखा जाए तो यह क्षेत्र महत्वपूर्ण है। यह क्षेत्र पश्चिम एशिया, मध्य एशिया, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्व एशिया का सम्मिलन स्थल है। इसी गिलगित व्यापारिक मार्ग से भारत शेष विश्व के साथ व्यापार करता था । इस गिलगित मार्ग का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि उस समय में विश्व के कुल घरेलू उत्पाद में भारत की हिस्सेदारी २५ से ३० प्रतिशत थी। परिणामस्वरूप भारत एक आर्थिक महाशक्ति था जिसे सोने की चिड़िया जैसे विशेषण भी प्राप्त हुए।

गिलगित बाल्टिस्तान एशिया में ताजा पानी के सब से बड़े स्रोतों में से एक है। भारत की दस सब से बड़ी चोटियों में से ८ गिलगित बाल्टिस्तान में है। इस क्षेत्र में सोने की खानें भी पाई जाती हैं। पाकिस्तान के प्रमुख अखबार डॉन में छपी खबर के अनुसार मिनरल डेवलपमेंट कार्पोरेशन के सर्वे को माना जाए तो गिलगित बाल्टिस्तान में सोने के १८६ भंडार है। इसके अतिरिक्त गिलगित, बाल्टिस्तान के शिगार, स्कार्दू, हुंजा और गीजर में सफ़ेद मार्बल के भंडार भी हैं।

जम्मू- कश्मीर में शांति के लिए क्या करना चाहिए?

जम्मू-कश्मीर का पिछले ७ वर्षों का सफर बहुत कुछ बयान करता है। वहां राष्ट्रवाद और अलगाववाद में निरंतर संघर्ष जारी रहा है।
वर्तमान का आतंकवाद पहले जैसा नहीं है। अलगाववाद अलग-थलग पड़ चुका है। उसके अपप्रचार से लोग अवगत हो चुके हैं। यह समय जम्मू-कश्मीर में कार्य करने का है। जम्मू-कश्मीर के वास्तविक भूगोल, इतिहास और संस्कृति के विषय में लोगों को अवगत कराने की आवशयकता है।

जम्मू-कश्मीर को लेकर तीन मुख्य मिथक प्रचलित हैं- १. जम्मू-कश्मीर को अनुच्छेद ३७० में विशेष दर्जा प्राप्त है, २. जम्मू-कश्मीर का अधिमिलन पूर्ण नहीं है, और ३. जम्मू-कश्मीर अलगाववादी राज्य है। जम्मू-कश्मीर में प्रचलित इन मिथकों का तथ्यपरक विश्लेषण कर भ्रांतियों को दूर करने की जरूरत है। इसके लिए जम्मू-कश्मीर में रहने वाली राष्ट्रवादी ताकतों को मजबूत करने का कार्य भी किया जाना चाहिए। ये राष्ट्रवादी ताक़तें राज्य के विभिन्न क्षेत्रों जैसे जम्मू, पुंछ, गुरेज, कारगिल, लेह और लोलाब क्षेत्रों में बसी हैं। यदि इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को अपने आपको को व्यक्त करने का मौका मिलेगा तो जम्मू-कश्मीर के हालातो में और अधिक सुधार आएगा।

संविधान के अनुच्छेद ३७० को समाप्त करने के लिए कौन से प्रयास किए गए हैं?

अनुच्छेद ३७० से जुड़े घटनाक्रम का अध्ययन करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि आज तक ३७० का तथ्यपरक विश्लेषण नहीं हुआ है जिसकी बहुत ज्यादा जरूरत है। यह संविधान का एकमात्र ऐसा प्रावधान है जो अपने समाप्त होने की प्रक्रिया स्वयं घोषित करता है। लेकिन देश में फिर भी संशय बरकरार है। देश में बयानबाज़ी तो बहुत हुई पर अध्ययन नहीं हुआ ।

१९६४ तक देश में ३७० को लेकर कोई संशय नही था। लोकसभा में १९६४ की एक चर्चा है जिसमें लगभग सभी दल एकमत थे कि अनुच्छेद ३७० को हटाया जाना बहुत जरूरी है। इस चर्चा में जम्मू-कश्मीर के सांसदों ने भी हिस्सा लिया और अनुच्छेद ३७० का विरोध करते हुए कहा कि आज़ादी के बाद पूरे देश में विकास और प्रगति की जो बयार बह रही है वह जम्मू-कश्मीर नही पहुंच पा रही है क्योंकि वहां पर अनुच्छेद ३७० नाम की एक दीवार है जो विकास की इस बयार को बहने से रोक रही है। राम मनोहर लोहिया, सरजू पाण्डेय और भगवती झा जैसे वरिष्ठ व्यक्तियों ने ३७० को खत्म करने का समर्थन किया। लेकिन हम चूक गए। उसके बाद अनुच्छेद ३७० हिन्दू-मुसलमान, भाजपा गैर-भाजपा इत्यादि के ऐसे दलदल में फंसा कि इसका उस दलदल से बाहर आना बहुत मुश्किल हो गया है। पिछले कुछ समय से देश में दो खेमे बन गए हैं- एक वह खेमा जै जो ३७० देश की एकता एवं अखंडता के लिए खतरा मानता है और इसे हटाना चाहता है और दूसरा खेमा वह जो अनुच्छेद ३७० को संविधान का विशेष दर्जा बताता है और इसे बनाए रखना चाहता है।

मेरा दूसरा मानना है कि ३७० को रहना है या जाना है यह बाद में तय करना चाहिए। सर्वप्रथम एक अध्ययन होना चाहिए जिसमें यह विश्लेषण किया जाए कि पिछले ६७ वर्षों में जम्मू-कश्मीर के लोगों को ३७० की वजह से क्या- लाभ एवं क्या-क्या हानियां हुई हैं।
इस बात पर चर्चा करने की जरूरत है कि जब सफाई कर्मचारी का बेटा पढ़ लिख कर आईएएस बन सकता है तो जम्मू-कश्मीर में रहने वाले सफाई कर्मचारी का बेटा जम्मू-कश्मीर में एक चपरासी भी क्यों नहीं बन सकता? जो शिक्षा का अधिकार पूरे देश के बच्चों के लिए हितकर है वह जम्मू-कश्मीर में हानिकारक कैसे हो सकता है? जब इन प्रश्नों के उत्तर खोजे जाएंगे तो समझ आएगा कि अनुच्छेद ३७० देश और समाज के साथ एक धोखाधड़ी है। जिसने भारत के लोकतंत्र के साथ-साथ देश और राज्य के संस्थानों को कमजोर किया है। सारे देश के प्रबुद्ध लोगों में जागृति लाने की जरूरत है ताकि ३७० के विषय में उठी धुंध छट जाएं और ३७० को हटाने का रास्ता खुलें।

पाक कब्जे वाले कश्मीर के संदर्भ में पाकिस्तान पर दबाव निर्माण करने की जरूरत है, कश्मीर समस्या में अब चीन भी कूद पड़ा है। इस कारण कश्मीर समस्या का समीकरण बादल रहा है। ऐसी स्थिति में भारत सरकार को क्या नई नीति अपनाने की जरूरत है?

देखिए, हमें समझना चाहिए कि आज १९४७ वाले हालात नहीं हैं। आज २०१७ में भारत का समय है। आज जम्मू-कश्मीर को लेकर दिशा और चर्चा को भारत को अपने हिसाब से खड़ा करना चाहिए। १९४७ में जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान के पास जाए यह अंग्रेजों की साजिश हो सकती है और उसका हम शिकार भी रहे। किन्तु आज विश्व के घटनाक्रम और समीकरणों को ध्यान में रखते हुए हमें अपनी नीति निर्मित करनी चाहिए जिसमें पाक अधिक्रांत और चीन अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर पर विशेष ध्यान केन्द्रित करना चाहिए अभी दुनिया का परिदृश्य बदल रहा है।

अभी चीन को लेकर वैश्विक स्तर पर आशंका है। बहुत लोगों को मालूम है कि १९६३-६४-६५ के दरमियान पाकिस्तान ने रूस का इस्तेमाल कर हम पर दबाव बनाया और हमें जीते हुए क्षेत्र वापस करने पड़े। क्यों? क्योंकि पाकिस्तान ने रूस को लालच दिया था कि गिलगित में रूस को एक्सेस दिया जाएगा। लेकिन आज परिदृश्य बदला है। सारी दुनिया का ध्यान गिलगित पर है, चीन पर है। चीन किसी भी तरह से हिंद महासागर तक पहुंचना चाहता है। चीन के विस्तार को हिंद महासागर तक रोकना है तो पाकिस्तान में चीन द्वारा बनाया जा रहा महामार्ग नहीं बनना चाहिए और इसलिए वर्तमान समय में पश्चिम एवं अमेरिका सब जगह सोच यह है कि The whole Jammu & Kashmir including Gilgit Baltistan must come to India.. इस वैश्विक परिदृश्य का हमें भरपूर लाभ उठाना चाहिए। पाक अधिक्रांत और विशेष कर गिलगित, बाल्टिस्तान में हो रहे मानवाधिकारों के हनन का विषय पूरे विश्व में ज़ोरशोर से उठाना चाहिए। गिलगित, बाल्टिस्तान में किस तरह पाक सेना वहां की सांस्कृतिक पहचान और भाषाओं, जिसमें बलती और शीन शामिल हैं, को किस तरह नुकसान पहुंचा रही है इस विषय को पूरा उठाने की जरूरत है। इसके लिए वैश्विक स्तर के साथ देश के अंदर भी एक सूचनायुक्त मत निर्मित करने की जरूरत है ताकि विषय को और अधिक मजबूती के साथ रखा जा सके।

जम्मू-कश्मीर के अपराधी कौन हैं और किस कारण से हैं ?

जम्मू-कश्मीर के खंडित करने वाले अपराधियों के प्रश्न के उत्तर को हम दो भागो में बांट सकते हैं- आंतरिक एवं बाहय। जैसा कि मैंने पहले भी कहा जम्मू-कश्मीर ने भारत पर होने वाले सभी बाह्य आक्रमणों को सब से पहले और सब से ज्यादा झेला है। यदि हम प्राचीन इतिहास की बात करें तो मुग़ल, पठान सभी के आक्रमणों का दंश जम्मू- कश्मीर ने झेला है। यह सिलसिला १९४७ के बाद से भी जारी है। स्वतत्रता के ठीक बाद पाकिस्तानी फौजों ने जम्मू-कश्मीर पर पहला हथियारबंद हमला बोला। तब से लेकर आज तक पाकिस्तान चार बार सीधा हमला कर चुका है। १९४७ के आक्रमण की वजह से हमारा बहुत बड़ा क्षेत्र पाकिस्तान के अवैध कब्जे में चला गया।१९६२ में हमारे दूसरे पड़ोसी देश, जिसे हम अपना मित्र मान रहे थे, ने भारत पर हमला किया और उसका बहुत महत्वपूर्ण क्षेत्र अक्साईचिन चीन के कब्जे में चला गया। कुल मिलाकर स्वतंत्रता प्राप्ति के १५ वर्ष के भीतर हमने जम्मू-कश्मीर के बहुत महत्वपूर्ण क्षेत्र बाह्य ताकतों की वजह से खो दिए। इसके अतिरिक्त जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में विदेशी ताकतों का समय-समय पर प्रभाव पड़ता है।

दूसरा- भारत के अंदर भी ऐसे तत्व मौजूद थे जिनकी वजह से जम्मू-कश्मीर ने कष्टदायक सफर तय किया था। जब जम्मू-कश्मीर के तथ्यों को तोड़ा मरोड़ा जा रहा था और एक झूठा दृष्टिकोण खड़ा करने का प्रयास किया जा रहा था ऐसे समय में भारत के बौद्धिक वर्ग की भूमिका बनती थी कि यह लोगों को सही रास्ता दिखाए। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि बौद्धिक वर्ग भी उसी रास्ते पर चल निकला। उदाहरण के लिए हमने गिलगित, बाल्टिस्तान को पाकिस्तान के हाथों खो दिया। यह हमारे राजनैतिक नेतृत्व की असफलता हो सकती है, किन्तु बौद्धिक वर्ग की भी ऐसी क्या मजबूरी थी कि हमें अपने राज्य के भोगोलिक क्षेत्र के बारे में ही गलत जानकारी होगी। विदेशी षड्यंत्र, कमजोर नेतृत्व के साथ जम्मू-कश्मीर की सब से बड़ी चुनौती वहां पर निरंतर बढ़ रहा इस्लामिक कट्टरवाद है जो कि नवयुवकों को खास कर लक्ष्य करते हुए आतंकी गतिविधियों के लिए भड़का रहा है।

कश्मीर घाटी से विस्थापित हिन्दुओं के मानवाधिकार संरक्षण को लेकर मानवाधिकारी आवाज़ क्यों नहीं उठाते?

जम्मू-कश्मीर में कश्मीरी हिन्दुओं का निष्कासन हुआ, जो बहुत पीड़ादायक था। लेकिन उस से भी ज्यादा पीड़ादायक और असंवेदनशील देश के कथित मानवाधिकारवादियों का व्यवहार रहा है। वर्तमान में देश में जिस तरह का वैचारिक विमर्श चल रहा है उसमें यदि देश में कहीं का विस्थापन होता है तो यह कोई प्रश्न नहीं है किन्तु यदि एक अखलाक जैसी घटना होती है तो देश के कथित मानवाधिकारवादी और मीडिया पूरे देश को सिर पर उठा लेते हैं। देश में सहिष्णुता एवं असहिष्णुता पर एक बहस छेड़ दी जाती है। मुझे लगता है कश्मीरी हिन्दुओं जैसे विषय को किसी भी प्रकार के प्रचारबाजी और राजनीति से दूर रख कर मानवीयता के साथ विचार कर इसका निराकरण करना चाहिए।

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