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वन और जैवविविधता

वन और जैवविविधता

by के जी व्यास
in पर्यावरण, वन्य जीवन पर्यावरण विशेषांक 2019, सामाजिक
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जैवविविधता के आसन्न खतरों के समाधान का सीधा सम्बंध वनों की सेहत से है। यदि वन स्वस्थ होंगे तो जैवविविधता भी संकट मुक्त रहेगी। जैवविविधता के आसन्न खतरों के समाधान के लिए और अधिक सकारात्मक कदम उठाने की जरूरत है।

वनों की सेहत हकीकत में इस धरती पर जीवन के बने रहने का अविवादित बीमा है। यह आक्सीजन का कभी भी खत्म नहीं होने वाला खजाना है। अग्नि पुराण में उल्लेख है कि मनुष्य को कुदरत की नियामतों की प्राप्ति के लिए वॄक्षों की रक्षा करना चाहिए। गौतम बुद्ध ने कहा था कि मनुष्य को हर पांच साल में एक वृक्ष लगाना चाहिए। सम्राट अशोक ने वनों तथा वन्य जीवों के संरक्षण और उनकी रक्षा करने के बारे में आदेश दिए थे। भारतीय परम्परा को सन् 1840 में ग्रहण लगा जब ईस्ट इंडिया कम्पनी प्रशासन ने क्राउन लैण्ड (अतिक्रमण) अध्यादेश लागू किया। सन् 1864 में उन्होंने फारेस्ट महकमा बनाया। सन् 1865 में पहले अधिनियम की मदद से उन्होंनेे वनों पर अपनी अधिकारिता कायम की। दूसरे अधिनियम की मदद से सन् 1878 में वनों पर सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न सत्ता हासिल की।

अंग्रेजी शासन के प्रारंभिक सालों में वृक्षों की अंधाधुंध कटाई हुई। उन्होंने वन सम्पदा को राजस्व प्राप्ति का साधन बनाया। बिना पूर्व अनुमति और अधिकारियों के संज्ञान के वृक्षों की कटाई पर रोक लगाई। इस कदम ने वनों पर उनके स्वामित्व को अधिकारिता प्रदान की। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में वन प्रबंध व्यवस्था लागू की। इसे वैज्ञानिक प्रबंध कहा लेकिन उद्देश्य, अधिकतम राजस्व प्राप्ति पर केन्द्रित रहा।

सन् 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ। देशी रियासतों के विलय के बाद, रियासतों की वन सम्पदा की बहुत हानि हुई। सन 1952 में नई वन नीति अस्तित्व में आई। इस नीति के कारण वन सुरक्षा को मान्यता मिली। देश के एक तिहाई रकबे पर वनों की आवश्यकता रेखांकित हुई। वन सम्पदा की सुरक्षा, संरक्षण और विकास के लिए, वन विभाग ने अनेक कार्यक्रम चलाए। वन महोत्सव, सामाजिक वानिकी और संयुक्त वन प्रबंध जैसे नवाचारी कदमों ने विभाग के प्रयासों को ख्याति दिलाई।

वन क्या हैं?

वन का अर्थ केवल वृक्षों का झुरमुट नहीं है। वन का अर्थ है – अनेकानेक प्रजातियों के वृक्ष, झाडियां, लताएं तथा असंख्य किस्म के सूक्ष्म तथा बड़े जीव-जन्तु यथा फफूंद, कीटाणु और जीवाणु, मछलियां, कीट-पतंगे, जंगली पशु और पक्षी। वन में समाहित है प्रकृति के समस्त अवदान यथा पानी, हवा, मिट्टी, उप-मिट्टी, जीव-जन्तु, जो परस्पर एक दूसरे से इकोलाजी और पर्यावरण की जटिल प्रक्रियाओं के कारण जुड़े हैंं। वे कार्बन-डाई-आक्साइड के सबसे बड़े शोषक, जीवनदायी आक्सीजन के उत्पादक तथा जैवविविधता से परिपूर्ण क्षेत्र होते हैं। स्वस्थ वन में प्रकृति के नियमों का पालन करती, संतुलित फुड-चेन होती है।

वनों पर खतरे तथा चुनौतियां

अधिकांश लोगों का मानना है कि जनसंख्या की वृद्धि के कारण वन सम्पदा का अतिदोहन हो रहा है। वनों पर विकास गतिविधियों का दबाव बढ़ रहा है। जैवविविधता पर एक ही प्रजाति के वृक्षारोपण का असर पड़ रहा है। कहा जा सकता है कि यदि जैवविविधता नहीं है तो वहां स्वस्थ वन भी नहीं बच पाएंगे।

प्रकृति के तालमेल से समाधान

वनों की चुनौतियां प्राकृतिक और मानवीय गतिविधियों के कारण हैं लेकिन प्रकृति से तालमेल स्थापित कर सभी संभावित चुनौतियों का, काफी हद तक, सामना किया जा सकता है।

वनों की समस्याओं को दो वर्गों में बांटा जा सकता है। पहले वर्ग की समस्याओं का सम्बंध राजस्व प्राप्ति, नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं तथा जीवनशैली के बदलाव के कारण है। उन समस्याओं को समाप्त करना संभव नहीं है इसलिए संभावित विकल्पों को अपनाने का प्रयास करना चाहिए। दूसरे वर्ग की समस्याओं का सम्बंध प्राकृतिक घटनाओं से है। उदाहरण के लिए वन भूमि पर होने वाली बरसात जो एक ओर तो वन्य जीवों तथा वनस्पतियों को नवजीवन देती है तो दूसरी ओर भूमिकटाव के लिए अवसर जुटाती है। रन-आफ तथा वाष्पीकरण से बचे पानी को धरती की कोख में जमा करती है। धरती की कोख में जमा पानी को नदियों को लौटाती है। प्रवाह तथा अविरलता प्रदान करती है। मिट्टी निर्माण की प्रक्रिया को संचालित करती है। जैवविविधता को फलने-फूलने का अवसर देती है। कार्बन-डाई-आक्साइड को सोखकर आक्सीजन उपलब्ध कराती है। यह अकल्पनीय योगदान है। यह कुदरती प्रक्रिया है।

आग से वनों को बहुत नुकसान होता है लेकिन कुछ साल में ही कुदरत, उस नुकसान की भरपाई, कर लेती है। कुछ अरसे बाद, प्रभावित इलाका, अपना मूल स्वरूप हासिल कर लेता है। कुछ लोगों का मत है कि यदि वन, जैवविविधता और समाज को बचाना है तो कुदरत को साथ लेकर चलना होगा। इसके लिए वनों के विकास के मौजूदा माडल को संतुलित तथा परिष्कृत करना होगा। नजरिये में बदलाव लाना होगा। संयुक्त वन प्रबंध तथा सामाजिक वानिकी जैसे कार्यक्रमों को जनोन्मुखी बनाना होगा। वन सम्पदा में समाज की हिस्सेदारी तय करने के लिए कानून बनाना होगा। वन सम्पदा को कार्बन शोषक, जैवविविधता और प्राकृतिक संसाधनों के योगदान का स्रोत मानना होगा। चण्डीप्रसाद भट्ठ, सुंदरलाल बहुगुणा, पी.एस. मिश्रा, अन्ना हजारे, पोपटराव पवार, बाबूलाल दाहिया, माधव गाडगिल, अनुपम मिश्र, सुनीता नारायण और राजेन्द्र सिंह जैसे अनेक लोग हैं जो इस दिशा में यादगार काम कर रहे हैं या यादगार काम किए हैं।

वनों की बेहतरी के लिए सुझाव                  

वन भूमि पर किए जाने वाले समस्त कार्य, वन विभाग की कार्ययोजना (Working Plan) के अनुसार किए जाते हैं। जलवायु परिवर्तन के संभावित खतरों के कारण कार्ययोजना में दो प्रमुख सुधारों की आवश्यकता है। पहले सुधार के अंतर्गत वनों में पानी के भंडार, नदियों में अविरल प्रवाह, नमी की उपलब्धता, जैवविविधता और फुड-चेन जैसे अनेक बिन्दुओं को यथेष्ट रूप से समाहित करना होगा। दूसरे सुधार के अंतर्गत भूमि कटाव और जल संरक्षण के कामों की तकनीकों को और बेहतर बनाना होगा। वृक्षों की सघनता और प्रति हेक्टर औसत आयतन के लिए भी परिणामदायी बिन्दुओं को जोड़ना आवश्यक होगा।

संक्षेप में, जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पादन प्रभावित होगा। जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रख कार्य योजना में दोहन और उत्पादन को संतुलित एवं जैवविविधता को आदर्श बनाना होगा। मिश्रित वनों को विकसित करना पड़ेगा। यदि अतिरिक्त वृक्षारोपण करना है तो उन्हीं वृक्षों तथा पौधों को रोपित किया जाए जो स्थानीय भूमि और मौसम के अनुकूल हों। उनकी सुरक्षा के लिए प्रभावी तथा टिकाऊ सुरक्षा कवच बनाना आवश्यक है। बसाहटों के निकट सामुदायिक वन विकसित किए जाने चाहिए। सामुदायिक वनों को विकसित करने की जिम्मेदारी ग्रामीण समाज और निजी क्षेत्र को, समान शर्तों पर सौंपी जानी चाहिए।

वन क्षेत्रों में पानी की कमी एवं समाधान हेतु सुझाव

गर्मी के मौसम में अधिकांश वन क्षेत्रों में पानी की कमी हो जाती है। अधिकतम नदी-नाले सूख जाते हैं। ग्रीष्म ॠतु जंगली जीव जन्तुओं के लिए भी बहुत अधिक कष्टदायी होती है। पानी की तलाश में वे ग्रामों की ओर जाते हैं। नागरिकों को हानि पहुंचाते हैं। कई बार मारे भी जाते हैं। यह पानी की कमी और सूखे के कारण होता है। पानी की कमी को दूर करने के लिए आम तौर पर कन्टूर ट्रेंच, गली प्लग या पत्थर की दीवार बनाई जाती है। ये प्रयास अस्थायी प्रकृति के हैं और जल संचय की द़ृष्टि से अपर्याप्त हैं। इसमें तत्काल सुधार होना चाहिए।

जंगलों में वनस्पतियों की सलामती के लिए पानी या नमी की सर्वकालिक उपलब्धता आवश्यक होती है। आने वाले दिनों में जलवायु बदलाव के कारण, सूखा मौसम लगभग पांच माह का होगा। इसलिए पहली आवश्यकता जल संरक्षण, नमी संरक्षण और भूमि कटाव के कामों को और अधिक कारगर बनाने की है। दूसरी आवश्यकता जलस्रोतों को बारहमासी बनाने की है। तीसरी आवश्यकता समूचे वन क्षेत्र में नमी की उपलब्धता में वृद्धि की है ताकि वन तथा जैवविविधता को जलवायु बदलाव के कुप्रभावों से यथा संभव बचाया जा सके। बदलाव की गति को कम किया जा सके।

आग से जैवविविधता तथा पर्यावरणी नुकसान एवं समाधान 

वनों में आग लगना स्वाभाविक है। टोपोग्राफी की विषमताओं, आवागमन की असुविधाओं और पानी की कमी के कारण जंगलों में आग बुझाना कठिन होता है। सुझाव है कि आग बुझाने वाली व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए सतत प्रयास की आवश्यकता है। आग लगने की सूचना देने वाली प्रणाली को अद्यतन होना चाहिए। आग बुझाने के लिए जंगलों में त्वरित और अत्याधुनिक संसाधन, त्वरित व्यवस्था और प्रशिक्षित अमला होना चाहिए। फायर लाइन का सतत रख-रखाव होना चाहिए। काउन्टर फायर व्यवस्था को अधिक से अधिक कारगर बनाने के लिए प्रयास करना चाहिए। आग से होने वाले नुकसान की बहाली हेतु शोध तथा नवाचारी प्रयासों की भी आवश्यकता है।

वन नीति एवं वन कानूनों में सुधार

वन नीति और मौजूदा वन कानूनों में आमूल-चूल बदलाव होना चाहिए। वन सम्पदा का दोहन प्रकृति से तालमेल और वनों की कुदरती भूमिका को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। सरकार की भूमिका संरक्षक तथा वन विभाग की भूमिका सहयोगी और उत्प्रेरक की होनी चाहिए। वन संरक्षण अधिनियम 1980 के कारण, वनक्षेत्रों को पुन: वनाच्छादित करने का काम, अभी, केवल वन विभाग ही कर सकता है। इसे बदला जाना चाहिए। वनविहीन इलाकों में वनीकरण से लेकर उसकी सुरक्षा करने वाले समाज को उसका ट्रस्टी और लाभार्थी बनाया जाना चाहिए। विभाग द्वारा, वृक्ष लगाने और उसकी सुरक्षा करने वालों के पक्ष में पट्टे जारी किए जाना चाहिए। बिना हित पैदा किए जंगलों को टिकाऊ बनाना या संरक्षित करना या उनकी कटाई रोकना बेहद कठिन है। इसके अतिरिक्त कार्यालयों, शिक्षण संस्थाओं और आवासोें के आगे पीछे की जमीन का उपयोग फलदार वृक्षों को लगाने में किया जाना चाहिए।

कुछ लोगों का मानना है कि सन् 1865, 1878 और 1927 में समाज के परम्परागत वन अधिकारों को छीन कर अंग्रेजों ने जो व्यवस्था लागू की थी, वही वनों के विनाश का असली कारण है। स्वतंत्र भारत में उसी व्यवस्थानुसार काम करना सही नहीं है। इंडियन फारेस्ट एक्ट 1927 के अध्याय तीन के सेक्शन 28 के अनुसार ग्राम वन (Village Forest) के प्रावधानों को लागू किया जाना चाहिए।

जैवविविधता

जैवविविधता की द़ृष्टि से भारत अत्यंत समृद्ध देश है। भारतीय वन, पृथ्वी के 12 बड़े जैवविविधता क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसी प्रकार, जैवविविधता दर्शाने वाले 32 हॉट-स्पाट, भारत के पश्चिमी घाट और पूर्वी हिमालय में स्थित हैं। भारत के जंगलों में 59000 से अधिक कीटों की प्रजातियां, 2500 मछलियों की प्रजातियां, 17000 एंजियोस्पर्म की प्रजातियां पाई जाती हैं। पशुओं की 90000 से अधिक प्रजातियां, जो दुनिया की कुल प्रजातियों का लगभग 7 प्रतिशत है, भारत के वनों में पाई जाती हैं।

पक्षियों के मामले में भारत बेहद समृद्ध देश है। यहां पक्षियों की लगभग 12.5 प्रतिशत ज्ञात प्रजातियां पाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त, भारतीय वन, अनेक प्रवासी पक्षियों का अस्थायी ठिकाना भी हैं।

जैवविविधता पर खतरों के समाधान लिए सुझाव          

इकोसिस्टम सेवाओं के लिए जैवविविधता अनिवार्य है। उसका कम होना आजीविका, भौतिक लाभ, इकोसिस्टम की बहाली, सामाजिक समभाव, सेहत इत्यादि के लिए भी हानिकारक है। उसके घटने से गरीबी बढ़ती है। उल्लेखनीय है कि आदिवासियों ने अपनी व्यवस्थाओं और रीति-रिवाजों पर आधारित उपयोग की बदौलत जंगलों के पर्यावरण को ठीक स्थिति में रखा है। उल्लेखनीय है कि जैव विविधता का विकृत रूप, सामान्यत: उन इलाकों में देखा गया है जहां वन और जीवन के रिश्तों को नहीं समझने वाला या अनदेखी करने वाला समाज निवास करता है। इस हकीकत के पीछे छुपे संकेतों को समझने का प्रयास किया जाना चाहिए। जैवविविधता के आसन्न खतरों के समाधान का सीधा सम्बंध वनों की सेहत से है। यदि वन स्वस्थ होंगे तो जैवविविधता भी संकट मुक्त रहेगी। जैवविविधता के आसन्न खतरों के समाधान के लिए और अधिक सकारात्मक कदम उठाने की जरूरत है। इसके अलावा जन जागरूकता और पब्लिक आडिट भी आवश्यक है।

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