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हिमालय के वन और वन्य जीव संकट में

हिमालय के वन और वन्य जीव संकट में

by सुरेश भाई
in देश-विदेश, पर्यावरण, वन्य जीवन पर्यावरण विशेषांक 2019
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हिमालयी राज्यों में चल रहे निर्माण कार्यों में जैसे-भवन, बांध, सड़कों का चौड़ीकरण, ऑलवेदर रोड, रेल लाइन आदि में कहीं भी भूकम्प व अन्य आपदाओं को सहन करने की क्षमता नहीं है। इसी कारण यहां चल रही बड़ी विकास परियोजनाएं विनाश का कारण बन सकती हैं।

गंगोत्री के आगे 18 किलोमीटर पैदल दूरी पर स्थित गौमुख की बर्फीली चट्टानों के बीच से आ रही भागीरथी का दर्शन श्रद्धालुओं को स्वर्ग की अनुभूति कराता है। जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा है कि पिछले दो दशकों से अब गौमुख का पुराना आकार नहीं बचा है। यह ग्लेशियरों में लगातार हो रहे बदलाव का परिणाम है। गौमुख ग्लेशियर पर जलवायु परिवर्तन का असर पिछले 40 वर्षों से लगातार देखा जा रहा है। सन 1995 से 2015 के बीच सब से गर्म जलवायु के रूप में आंका गया है। वैज्ञानिक मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय के ग्लेशियरों पर दुगना प्रभाव पड़ने लगा है। अर्थात भविष्य में अगर 2 डिग्री तापमान बढ़ गया तो हिमालय में इसका प्रभाव 5 डिग्री के बराबर पड़ेगा। इसका तात्पर्य है कि जलवायु परिवर्तन के लिए हिमालय अधिक संवेदनशील है। इसके अनुसार अनुकूल प्लानिंग की आवश्यकता है, जो पेरिस समझौतों के बाद दिखाई नहीं देती है।

पर्यावरण के जानकारों का मानना है कि गौमुख ग्लेशियर की चिंता को गंभीरता से लिया जाए तो यहां आसपास मानवीय हस्तक्षेप और जलवायु परिवर्तन के कारण पैदा हो रहे खतरों से बचा जा सकता है। यहां प्रकृति के साथ हो रही अनियोजित गतिविधियों को संयमित करने की आवश्यकता है। इसके आसपास प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण व प्रबंधन करना होगा। गौमुख के अलावा मिलम, पिंडारी, बंदरपूंछ जैसे तमाम ग्लेशियरों की पिघलने की दर  18-20 मीटर प्रतिवषर्र् हो गई है। इसका प्रभाव जल स्रोतों एंव नदियों की जल राशि पर पड़ रहा है। अब पहले की अपेक्षा जलस्रोत 50 प्रतिशत ही बचे हैं, जिसमें केवल आधी जल राशि रह गई है। ग्लेशियरों में बदलाव की प्रकिया अगर जारी रही तो समुद्र के किनारों की आधी आबादी को हटना पड़ेगा। जहां पहाड़ों में पानी की समस्या पैदा हो गई है, वहीं तेज बारिश के कारण कमजोर ग्लेशियर पिघल कर बाढ़ का रूप धारण करने लगे हैं। इस तरह की कई घटनाओं के बावजूद भी गंगोत्री में 18-24 मीटर चौड़ी सड़क का निर्माण किया जा रहा है। इसके नाम पर असंख्य देवदार के पेड़ों को काटा जा रहा है। इसके पूर्व भी हजारों वन प्रजातियां यहां पर नष्ट कर दी गई हैं, जबकि जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए हरित आवरण को बचा कर रखना और ग्लेशियरों के पास मानवीय हलचल को नियंत्रित करने की आवश्यता है।

हिमालय में टिकाऊ विकास की आवश्यकता

हिमालयी राज्यों में चल रहे निर्माण कार्यों में जैसे-भवन, बांध, सड़कों का चौड़ीकरण, ऑलवेदर रोड, रेल लाइन आदि में कहीं भी भूकम्प व अन्य आपदाओं को सहन करने की क्षमता नहीं है। यह इसलिए कि आपदा सुरक्षित तकनीकी का सहारा नहीं लिया जा रहा है। निर्माण करने वाली एजेंसियां अपने लाभ के अनुसार काम कर रही हैं जिसके कारण यहां बड़ी विकास परियोजनाएं विनाश का कारण बन सकती हैं। हिमांचल, उत्तराखण्ड, असम, मेघालय, मणिपुर, जम्मू कश्मीर आदि में वर्षों से परम्परागत शैली में बने भूकम्परोधी भवनों के स्थान पर मैदानी आकार-प्रकार के हिसाब से ही भवन निर्माण हो रहा है।

जलवायु परिवर्तन का सब से अधिक प्रभाव मौसम पर पड़ रहा है। मौसम की मार के आगे बड़े निर्माण भविष्य में किस तरह टिकेंगे, इस पर विषेशज्ञों की बात को नदरअंदाज नहीं की जा सकती है। उत्तराखण्ड में लगभग 12 हजार करोड़ की लगभग 889 सौ किलोमीटर लम्बी सड़कों को इतना चौड़ा किया जा रहा है कि पहाड़ों में उतनी जगह ही नहीं है। संकरी घाटियों और ऊंचे- ऊंचे पर्वतों को काट कर जो निर्माण हो रहा है, वह 8 रिश्टर स्केल तक आने वाले संभावित भूकम्प की स्थिति में अधिक मारक क्षमता ग्रहण कर लेगा। सड़क निर्माण की बेहतर तकनीकी देश और विदेश में मौजूद है जिसका इस्तेमाल न होने से 4 से 7 रिश्टर का भूकम्प भी मौजूदा भवनोें व विकास संरचनाओं को मलबेे में तब्दील कर सकता है।

ॠषिकेश से बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमनोत्री आदि स्थानों के लिए जा रही सड़कों के ऊपर चट्टानें लटकी हुई दिखाई देती हैं। सड़कों के चौड़ीकरण के लिए यदि इनको हटा कर ढालदार रूप में कटान करने का प्रयास भी किया जाएगा तो उसके ऊपर सीधे खड़े चट्टान को गिरने से रोकना आसान नहीं है। इस प्रक्रिया में पेड़ भी बड़ी मात्रा में काटे जाएंगे, और यहां पिछले 2 वर्षों में आए तीन दर्जन से अधिक भूकम्पों से चट्टानों में दरारें भी पड़ी हुई हैं। ऐसे स्थानों पर छेड़छाड़ इतना जोखिम भरा हो सकता है, कि यह पहाड़ी भाग भूस्खलन के लिए नासूर बन सकते हैंं। इसलिए ऐसी भौगोलिक संरचना वाले भागों में कितनी चौड़ी सड़क बनेगी, उसकी तकनीकी क्या है, मलबा कहां जाएगा और किस विशेषज्ञ के सहारे यह अध्ययन हुआ है, उसके बाद ही निर्माण की बात सोची जानी चाहिए। वैज्ञानिक मानते हैं कि पर्वतीय क्षेत्रों में जाने वाली जम्मू-ऊधमपुर और हिमांचल में चंडी-शिमला रेल मार्ग का डिजाइन आज की तकीनिकी के हिसाब से पुराना और जोखिम भरा है। माना जा रहा है कि उत्तराखण्ड में ॠषिकेश से कर्णप्रयाग रेल लाइन को भी टिकाऊ बनाने में चुनौती है क्योेंकि यह 4 भूकम्पीय थ्रश्ट से होकर बनाई जाएगी। इस पर 16 पुलों के निर्माण में टिकाऊ तकनीकी का आकलन करने के लिए आईआईटी रूड़की द्वारा अध्ययन किया जा रहा है, बशर्ते कि कोई उनकी सुने? उत्तराखण्ड में अंग्रेजों ने भी रेल लाइन बनाने का प्रयास किया था, लेकिन संवेदनशील पहाड़ों में टिकाऊ डिजाइन न होने के कारण रोक दिया गया था।

हिमांचल में भी निर्माण कार्यों से लाखों वन प्रजातियों का विनाश बहुत तेजी से हो रहा है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की एक पीठ ने कहा है कि हिमांचल की सरकार संविधान के अनुच्छेद 48 अ के तहत पर्यावरण सरक्षण कानून 1986 के प्रति दायित्व निभाने में विफल रही है। इसी तरह इंडियन इंस्टिटयूट ऑफ इस्ट्रो फिजिक्स के प्रो. बी के गौड़ वर्षों से कह रहे हैं कि हिमालय क्षेत्र में भवनों के निर्माण का अलग डिजाइन हो इसके लिए हिमालयी राज्यों को अपने विशिष्ट भू-भाग के अनुसार मिल कर कार्य योजना बनानी चाहिए।

विभिन्न योजनाओं के अनुसार अगले 10 वर्षों में 10 हजार किलोमीटर से अधिक सड़कों का निर्माण हो सकता है। इसी तरह मेट्रो लाइनों में 10 गुना वृद्वि की संभावनाएं हैं। इसके लिए आवश्यक है कि इन संरचनाओं को 60 से 100 वर्षों तक टिकाऊ रखने के लिए अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों के अनुसार डिजाइनिंग करना चाहिए। वैज्ञानिकों के पास सभी क्षेत्रों में आने वाली आपदाओं की संभावित जानकारी रहती है इसको ध्यान में रख कर पहाड़ी और मैदानी धरती की क्षमता के अनुसार उपयोगी तकनीकी के द्वारा आपदा सुरक्षित विकास की दिशा निर्धारित की जा सकती है। लेकिन यह तभी है जब पर्यावरण और विकास के बीच सृजनात्मक संबंध बनाने का उद्देश्य हो।

पेड़ों पर पहाड़ टूट रहे हैं

आजकल चारधाम-गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ मार्गों पर हजारों वन प्रजातियों के ऊपर पहाड़ टूटने लगे हैं। ॠषिकेश से आगे देवप्रयाग, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग, अगस्तमुनि, गुप्तकाशी, फाटा, त्रिजुगीनारायण, गौचर, कर्णप्रयाग, नंदप्रयाग, चमोली, पीपलकोटी, हेंलग से बद्रीनाथ तक हजारों पेड़ों का सफाया हो गया है। उतराखण्ड सरकार का दावा है कि वे ऑलवेदर रोड़ के नाम पर 43 हजार पेड़ काट रहे हैं लेकिन सवाल खड़ा होता है कि 10-12 मीटर सड़क विस्तारीकरण के लिए 24 मीटर तक पेड़ों का कटान क्यों किया जा रहा है? और यह नहीं भूलना चाहिए कि एक पेड़ गिराने का अर्थ है दस अन्य पेड़ खतरे में पड़ जाते हैं। इस तरह लाखों की संख्या में वन प्रजातियों का सफाया हो जाएगा। सड़क चौड़ीकरण के नाम पर देवदार के अतिरिक्त बांझ, बुरांस, तुन, सीरस, उत्तीस, चीड़, पीपल आदि के पेड़ भी वन निगम काट रहा है। जो वन निगम केवल ’वनों को काटो और बेचो’ की छवि पर खड़ा है, उससे ये आशा नहीं की जा सकती है कि वह पेड़ों को बचाने का विकल्प दे दें। यहां एक तरफ तो सड़क चौड़ीकरण हैं और दूसरी तरफ वन निगम की कमाई का साधन एक बार फिर उछाल पर है।

मध्य हिमालय के इस भू-भाग में विकास का यह नया प्रारूप स्थानीय पर्यावरण, पारिस्थितिकी और जनजीवन पर भारी पड़ रहा है। सड़क निर्माण, सड़क चौड़ीकरण, बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं व सुरंगों का निर्माण इस भूकम्प प्रभावित क्षेत्र की अस्थिरता को बढ़ा रहा है। भारी व अनियोजित निर्माण कार्यों का असर जनजीवन पर भी पड़ रहा है। इन बड़ी परियोजनाओं से भूस्खलन, भ-ूकटाव, बाढ़, विस्थापन आदि की समस्या लगातार बढ़ रही है।

यहां केदारनाथ मार्ग पर काकड़ा गाड़ से लेकर मौजूदा सेमी-गुप्तकाशी तक के मार्ग को बदलने के लिए 10 किमी से अधिक सिंगोली के घने जंगलों के बीच से नया अलाईमेंट लोहारा होकर गुप्तकाशी किया जा रहा है। इसी तरह फाटा बाजार को छोड़ कर मैखंडा से खड़िया गांव होते हुए नई रोड़ का निर्माण किया जाना है। फाटा और सेमी के लोग इससे बहुत आहत हैं। यदि ऐसा होता है तो इन गांवों के लोगों का व्यापार और सड़क सुविधा बाधित होगी। इसके साथ ही पौराणिक मंदिर, जलस्रोत भी समाप्त हो जाएंगे। यहां लोगों का कहना है कि जिस रोड़ पर वाहन चल रहे हैं वही सुविधा मजबूत की जानी चाहिए। नई जमीन का इस्तेमाल होने से लम्बी दूरी तो बढ़ेगी ही साथ ही चौड़ीपत्ति के जंगल कट रहे हैं।

केदारनाथ मार्ग पर रुद्रप्रयाग, अगस्तमुनि, तिलवाड़ा ऐसे स्थान हैं जहां पर लोग सड़क चौड़ीकरण नहीं चाहते हैं। यदि यहां ऑलवेदर रोड़ नए स्थान से बनाई गई तो वनों का बड़े पैमाने पर कटान होगा और यहां का बाजार सुनसान हो जाएगा। प्रभावितों का कहना है कि सरकार केवल डेंजर जोन का ट्रीटमेंट कर दें तो सड़कें ऑलवेदर हो जाएगी। चार धामों में भूस्खलन व डेंजर जोन निर्माण एवं खनन कार्यों से पैदा हुए हैं।

उत्तराखण्ड के लोगों ने अपने गांवों तक गाडी पहुंचाने के लिए न्यूनत्तम पेड़ों को काट कर सड़क बनावाई है। वहीं ऑलवेदर रोड़ के नाम पर बेहिचक सैकड़ों पेड़ कट रहे हैं। बद्रीनाथ हाईवे के दोनों ओर कई ऐसे दूरस्थ गांव हैं जहां बीच में कुछ पेड़ों के आने से मोटर सड़क नहीं बन पा रही है। कई गांवों की सड़कें आपदा के बाद नहीं सुधारी जा सकी है इस पर भी लोग सरकार का ध्यानाकर्षित कर रहे हैं। चमोली के पत्रकारों ने उत्तराखण्ड के पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज से ऑलवेदर रोड़ के बारे में पूछा है कि जोशीमठ को छोड़ कर हेंलग-मरवाड़ी बाईपास क्यों बनवाया जा रहा है। इससे जोशीमठ अलग-थलग पड़ जाएगा। इस पर मंत्री महोदय ने जवाब दिया कि उन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं है। अत: इससे जाहिर होता है कि उतराखण्ड की सरकार भूमि अधिग्रहण के लिए जितनी सक्रिय हुई है उतना उन्हें प्रभावित क्षेत्र की पीड़ा को समझने का मौका नहीं मिला है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने ऑलवेदर रोड़ बनाने की घोषणा उत्तराखण्ड विधान सभा चुनाव के ऐन वक्त मे की थी तब से अब तक यह चर्चा रही है कि पहाड़ों के दूरस्थ गांवों तक सड़क पहुंचाना अभी बाकी है। सीमांत जनपद चमोली उर्गम घाटी के लोग सन् 2001 से सुरक्षित मोटर सड़क की मांग कर रहे हैं। यहां कल्प क्षेत्र विकास आंदोलन के कारण सलना आदि गांवों तक जो सड़क बनी है उस पर गुजरने वाले वाहन मौत के साये में चलते हैं। यहां चार धामों मे रहने वाले लोगों की यदि सुनी जाए तो मौजूदा सड़क को ऑलवेदर बनाने के लिए यात्राकाल में बाधित करने वाले डेंजर जोन का आधुनिक तकनीकी से ट्रीटमेंट किया जाए। सड़क के दोनों ओर 24 मीटर के स्थान पर 10 मीटर तक ही भूमि का अधिग्रहण होना चाहिए। क्योंकि यहां छोटे और सीमांत किसानों के पास बहुत ही छोटी-छोटी जोत है उसी में उनके गांव, कस्बे और सड़क किनारे आजीविका के साधन मौजूद हैं, जिसे पलायन और रोजगार की द़ृष्टि से बचाना चाहिए।

चारों धामों से आ रही अलकनंदा, मंदाकनी, यमुना, भागीरथी के किनारों से गुजरने वाले मौजूदा सड़क मार्गों में पर्याप्त स्थान की कमी है। जिसमें 10 मीटर चौड़ी सड़क बनाना भी जोखिमपूर्ण है। यदि बाढ़, भूकम्प, भूस्खलन जैसी समस्याओं को ध्यान में रखा जाए तो यहां के पहाड़ों को कितना काटा जा सकता है यह पर्यावरणीय न्याय ध्यान में रखना जरूरी है। जहां घने जंगल हैं वहां पेड़ों को नुकसान पहुंचाए बिना सड़क बननी चाहिए। सड़क चौड़ीकरण का टिकाऊ डिजायन भूगर्भविदों व विषेशज्ञों से बनाना चाहिए। निर्माण से निकलने वाला मलबा नदियों में सीधे न फेंक कर सड़क के दोनों ओर सुरक्षा दीवार के बीच मलबा डाल कर वृक्षारोपण हो।

गंगा के उद्गम में हरे पेड़ों को बचाने की मुहिम 

ऊंचाई पर पेड़ रहेंंगे, नदी ग्लेशियर टिके रहेंगे। ‘चाहे जो मजबूरी होगी, सड़क सुक्की, जसपुर, झाला ही रहेगी’ के नारों के साथ 18 जुलाई, 2018 को भागीरथी के उद्गम में बसे सुक्की, जसपुर, पुराली, झाला के लोगों ने  रैली निकाल कर प्रसिद्व गांधीवादी और इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार से सम्मानित राधा बहन, जसपुर की प्रधान मीना रौतेला, समाजसेविका हिमला डंगवाल के नेतृत्व में पेड़ों पर रक्षासूत्र बांधे गए। इसकी अध्यक्षता सुक्की गांव की मीना राणा ने की। राधा बहन ने कहा कि हिमालय क्षेत्र की जलवायु और मौसम में हो रहे परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिए सघन वनों की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि सीमांत क्षेत्रों में रह रहे लोगों की खुशहाली, आजीविका संवर्धन और पलायन रोकने के लिए पर्यावरण और विकास के बीच में सामंजस्य जरूरी है। सीमा की सुरक्षा में लगे सैनिकों को यहां पर बसे हुए लोग नैतिक समर्थन देते हैं। अतः इनके दैनिक जीवन को खुशहाल रखना जरूरी है। इस दौरान सुक्की और जसपुर दो स्थानों पर हुई बैठक में जिला पंचायत के सदस्य जितेन्द्र सिंह राणा, क्षेत्र पंचायत सदस्य धर्मेन्द्र सिंह राणा, झाला गांव के पूर्व प्रधान विजय सिंह रौतैला, पूर्व प्रधान किशन सिह, पूर्व प्रधान सुलोचना देवी, मोहन सिंह राणा, पूर्व प्रधान गोविंद सिंह राणा आदि ने सुक्की बैड से जसपुर, झाला राष्ट्रीय राजमार्ग को यथावत रखने की मांग की है। इन्होंने सुक्की बैड से झाला तक प्रस्तावित ऑलवेदर रोड के निर्माण का विरोध करते हुए कहा कि यहां से हजारों देवदार जैसी दुर्लभ प्रजातियों को खतरा है। इसके साथ ही यह क्षेत्र कस्तूरी मृग जैसे वन्य जीवों की अनेकों प्रजातियों का एक सुरक्षित स्थान है। यहां बहुत गहरे में बह रही भीगीरथी नदी के आर- पार खड़ी चट्टानें और बड़े भूस्खलन का क्षेत्र बनता जा रहा है। इसलिए यह प्रस्तावित मार्ग जैव विविधता और पर्यावरण को भारी क्षति पहुंचाएगा। यहां लोगों का कहना है कि उन्होंने आजादी के बाद सीमांत क्षेत्र तक सडक पहुंचाने के लिए अपनी पुस्तैनी जमीन, चरागाह और जंगल निशुल्क सरकार को दिए हैं। इस सम्बंध में लोगों ने केन्द्र सरकार से लेकर जिलाधिकारी उत्तरकाशी तक पत्र भेजा है।

लोग यहां बहुत चिंतित हैं कि उन्होंने वर्षों से अपनी पसीने की कमाई तथा बैंकों से कर्ज लेकर होटल, ढाबे, सेब के बगीचे तैयार किए हैं। यहां पर वे आलू, रामदाना, राजमा सब्जियां उगा कर कमाई करते हैं। इसके कारण लोग यहां से पलायन नहीं करते हैं। ऑलवेदर रोड के नाम पर राष्ट्रीय राजमार्ग को चौड़ा करने से सुक्की, जसपुर, पुराली, झाला के लोग विकास की मुख्य धारा से अलग-थलग पड़ जाएंगे। और उनके कृषि उत्पादों की ब्रिकी पर प्रभाव पड़ेगा। होटल पर्यटकों और तीर्थ यात्रियों के बिना सुनसान हो जाएंगे। नैनीताल से सामाजिक कार्यकर्ता इस्लाम हुसैन ने कहा कि पर्यावरण की दृष्टि से सेब आदि पेड़ों के विकास व संरक्षण के लिए देवदार जैसे पेड़ सामने होने चाहिए।उन्होंने कहा कि पेड़-पौधों को जीवित प्राणियों की तरह जीने का अधिकार है।

यह बात केवल हम नहीं बल्कि पिछले दिनों नैनीताल के उच्च न्यायालय ने कही है। इसलिए देवदार के पेड़ों की रक्षा के साथ वन्य जीवों की सुरक्षा का दायित्व भी राज्य सरकार का है। रक्षासूत्र आंदोलन के पे्ररक सुरेश भाई ने कहा कि स्थानीय लोग अपनी आजीविका की चिंता के साथ यहां सुक्की बैड से जांगला तक हजारों  देवदार के पेड़ों के कटान का विरोध करने लगे हैं। यहां ऑलवेदर रोड के नाम पर 6-7 हजार से अधिक पेड़ों को काटने के लिए चिह्नित किया गया है। यदि इनको काटा गया तो एक पेड़ दस छोटे- बड़े पेड़ों को नुकसान पहुंचाएगा। इसका सीधा अर्थ है कि लगभग एक लाख वनपस्तियां प्रभावित होंगी। इसके अलावा वन्य जीवों का नुकसान है। इसका जायजा वन्य जीव संस्थान को भी लेना चाहिए। जिसकी रक्षा करना सरकार की जिम्मेदारी है।

इन हरे देवदार के पेड़ों को बचाने के लिए लोग जसपुर से पुराली बगोरी, हर्शिल, मुखवा से जांगला तक नई ऑलवेदर रोड़ बनाने की मांग कर रहे हैं। यहां बहुत ही न्यूनतम पेड़ और ढालदार चट्टानें हैं। इसके साथ ही इस नए स्थान पर कोई बर्फीले तूफान का भय नहीं है। स्थानीय लोगों का कहना है कि जसपुर से झाला, धराली, जांगला तक बने गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग को भी अधिकतम 7 मीटर तक चौड़ा करने से ही हजारों देवदार के पेड़ बचाए जा सकते हैं। इसके नजदीक गौमुख ग्लेशियर है। इस संबंध में हर्शिल की ग्राम प्रधान बसंती नेगी ने भी प्रधानमंत्री जी को पत्र भेजा है। यहांं लोगों ने प्रसिद्ध पर्यावरण विद चंडीप्रसाद भट्ट, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल, वन्य जीव संस्थान, कॉमन कॉज के प्रतिनिधियों को बुलाने की पेशकश की है। इसके साथ ही स्थानीय लोगों और पर्यावरणविदों की मांग के अनुसार एक जन सुनवाई आयोजित करने की पहल भी की जा रही है। इस अवसर पर  गांव के लोग भारी संख्या में उपस्थित रहे, जिसमें सामाजिक कार्यकर्ता बी वी मार्तण्ड, महेन्द्र सिह, नत्थी सिह, विजय सिह, सुंदरा देवी बिमला देवी, हेमा देवी, कमला देवी, रीता बहन, युद्धवीर सिंह आदि दर्जनों लोगों ने अपने विचार व्यक्त किए हैं।

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