युद्ध से संसाधन जीते जा सकते, मानव मन नहीं

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साहिर लुधियानवी की एक नज़्म है कि, "ख़ून अपना हो या पराया हो; नस्ल-ए-आदम का ख़ून है आख़िर। जंग मशरिक़ में हो कि मग़रिब में, अम्न-ए-आलम का ख़ून है आख़िर।।" वर्तमान दौर में ये पंक्तियां एकदम सटीक बैठती हैं, क्योंकि जिस दौर में आज हम जी रहें हैं या कहें…

स्वतंत्रता के प्रेरणादायी स्वर

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 क्या आपने सृष्टि के गीतों को सुना है ? सृष्टि में होने वाली एक छोटी सी हलचल भी संगीत को जन्म देती है। ये संगीत ही तो है, जो सृष्टि में जड़ और चेतन के भेद का आभास कराती है। इसी भावना को जब हम कैद करते हैं शब्दों में... रूप देते हैं अक्षरों का... तो वो संगीत ही काव्य बन जाता है।

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