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तमसो मा ज्योतिर्गमय…

तमसो मा ज्योतिर्गमय…

by प्रमिला मेंढे
in अध्यात्म, प्रकाश - शक्ति दीपावली विशेषांक अक्टूबर २०१७
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आइये, हम सब छोटे-बड़े, धनिक और गरीब सब इस दीपोत्सव में सम्मिलित हों। फिर किसी भी प्रकार के अंधकार को स्थान ही कहां रहेगा? हे भारत मां, हम सब को यही आशीष दो, कि ऐसे सात्त्विक सर्वकल्याणाकारी प्रकाश के पुंज हम बनें और दीपोत्सव सार्थ करें।
हमें असत् से सत् की ओर, अंधकार से तेज-प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर, अशाश्वत से शाश्वत की ओर ले जाइये। हमारी भारतीय संस्कृति सकारात्मक है इसलिए शाश्वत, तेजयुक्त सत्य की ओर जाने की आकांक्षा, प्रार्थना, प्रेरणा हमारे जीवन की विशेषता है। प्रकाश अर्थात् खुलापन और तमस अर्थात् अवांछनीय कृष्णकृत्य छिप कर करने का स्थान। व्यावहारिक दृष्टि से प्रकाश है दीप का, ज्ञान का चंद्र-सूर्य आदि ग्रहनक्षत्रों का। तेज की, प्रकाश की उपासना करने वाला देश है भारत। प्रकाश का पर्व, उत्सव मनाने का त्यौहार है दीपावली। सूर्य-चंद्र आदि के उदयास्त का समय सृष्टिक्रम में निश्चित है। उस पर निसर्ग का नियंत्रण है। और उनकी अनुपस्थिति में प्रकाश फैलाने का एक साधन हमारे पास है दीप। छोटा सा भी क्यों न हो, अपनी क्षमता के अनुसार आसमंत को प्रकाश देता है। इसीलिए हमारे यहां दीप वंदना के अनेक श्लोक हैं जो प्रति दिन बोले जाते हैं-
शुभं करोति कल्याणम् आरोग्यं धनसंपदा
दुष्टबुद्धिविनाशाय दीपज्योतिर्नमोऽस्तुते।
दीपज्योतिः परब्रह्मदीपः सर्वतमोऽपहा दीपेन साध्यते
सर्वं सन्ध्यादीप नमोऽस्तु ते
दीपदेव नमस्तुभ्यं तिमिरो नाशितस्त्वया।
स्वयं ज्वलन् प्रकाशं नो यच्छसि त्वं उदारधीः
दीपज्योति नमस्तुभ्यं दुष्टता-तम-नाशिनी ।
देहि सद्वृत्तिसमृद्धिं राष्ट्रगौरवहेतवे ।
दीपज्योति नमस्तुभ्यं तमघ्ना पापनाशिनी ।
विद्याचैतन्यदात्री च सुमंगलास्तु सर्वदा ।
कितने विविध प्रकार से दीपज्योति हमें दिशा दिखाती है और वैचारिक तमस दूर कर प्रकाश देती है यह स्पष्ट होता है। इसीलिए दीप जलते ही हर हिंदू के हाथ सहजता से ही उसे नमस्कार करते हैं। दीपावली जैसा ही दीप अमावस्या यह भी दीपपूजा का एक पर्व आषाढ़ अमावस्या के दिन घर-घर मनाया जाता है। देव दीपावली, नागदीपावली ये भी विशेष पर्व भारत में मनाए जाते हैं।
मैं तैयार हूं
कविवर्य रवीन्द्रनाथ की एक रचना है- सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा है। मेरे जाने के पश्चात् विश्व को प्रकाश कौन देगा यह उसकी चिंता है। अनेकों से पूछता है- ‘मैं अस्ताचल जाने के पश्चात् आप मेरा काम करेंगे क्या?’ हर कोई अपनी असमर्थता प्रकट करता है। सूर्यदेव की चिंता और बढ़ जाती है। क्या सारा विश्व अंधकारमय होगा? इतने में दूर से एक आवाज धीमी आई-‘मैं आपका कार्य करने के लिए तैयार हूं-अपनी प्रामाणिक क्षमता से।’ सूर्यदेव ने देखा, कौन यह हिंमत दिखा रहा है? एक छोटी सी थर्राती ज्योति को देख कर आश्चर्य से, अविश्वास से सूर्यदेव थोड़े उपहास से पूछते हैं- तुम करोगी मेरा कार्य?’ ‘हां! अपनी पूरी क्षमता से मैं यह कार्य करूंगी। और भगवान ने मुझे एक वरदान दिया है। मेरी जैसी एक नहीं, असंख्य ज्योतियां मैं प्रज्वलित कर सकती हूं, उनसे पर्याप्त प्रकाश फैल सकता है।’ सूर्यदेव समझ गए। एक सूर्य दूसरा सूर्य निर्माण नहीं कर सकता है। परंतु एक ज्योति से दूसरी ज्योति प्रज्वलित हो सकती है। एक से दूसरी, दूसरी से तीसरी, ऐसी और अनगिनत छोटी ज्योतियां प्रज्वलित कर भी आसमंत आलोकित करने की क्षमता का ही नाम है दीपावली-दीपोत्सव। सकारात्मकता का दर्शन।
घर का हिस्सा
प.पू. गुरुजी की एक पत्रकार वार्ता के बारे में मैंने पढ़ा है। पत्रकार परिषद समाप्त होने के पश्चात् एक पत्रकार ने जानबूझकर पीछे रह कर प.पू. गुरुजी को एक प्रश्न पूछा- ‘मैं तो संघ के अनुकूल नहीं हूं, किसी कार्यक्रम में नहीं जाता हूं, परंतु संघ वाले मुझे हर कार्यक्रम की सूचना देते हैं, अपना समय गंवाते हैं।’ प.पू. गुरुजी ने उस बंधु की ओर देखा और पूछा ‘क्या दिवाली वगैरे मनाते हो?’ पत्रकार को लगा मेरा क्या प्रश्न था और ये क्या पूछ रहे हैं? उनकी बुद्धिमानी के बारे में मेरी धारणा गलत थी क्या? परंतु उसने कहा, ‘हां, हां, मनाता हूं न।’ प.पू. गुरुजी का प्रश्न था- ‘कैसे मनाते हो?’
‘दीप जलाता हूं।’- पत्रकार
‘कहां कहां रखते हो?’- प.पू. गुरुजी
‘देहली पर, तुलसी, तथा भगवान के पास हर कमरे में, संडास में…’ उसका वाक्य आधा ही काट कर प.पू. गुरुजी ने पूछा- ‘अरे अरे इतने गंदे स्थान पर?’
‘हां हां- गुरुजी वह भी तो अपने घर का हिस्सा है न।’- पत्रकार
प.पू. गुरुजी ने कहा- ‘इसीलिए हमारे स्वयंसेवक आपको भी आमंत्रित करते हैं।’ पत्रकार तो पानी-पानी हो गया। तात्पर्य है कि समाज के हर स्तर के व्यक्ति को संस्कारों का प्रकाश उपलब्ध कराना ही अपने समाज की विशेषता है। कोई भी अज्ञान के, संस्कारहीनता के तमस में न रहे, यह सूचित करने वाला पर्व है दीपावली। हम भी दुष्टता का, शत्रुत्व का, जानलेवा स्पर्धा का अंधकार दूर करने हेतु मन में समग्रता से निष्ठा की, देशभक्ति की छोटी सी ही क्यों न हो, ज्योति प्रज्वलित करने का संकल्प करेंगे यही अपेक्षा है, उस छोटी थर्राती ज्योति की।
आत्मबोध का प्रकाश फैलाएं
दीपज्योति प्रज्वलित करने हेतु, दीप, बाती, तेल (घी), माचिस के साथ-साथ हाथों को यह ज्योति जलाने की प्रत्यक्ष क्रिया करना है। साधन सब हैं परंतु उनका उपयोग करने का संकल्प एवं प्रत्यक्ष कृति करना भी महत्वपूर्ण हैं। क्योंकि स्वाधीनता के सात दशकों बाद भी स्थान-स्थान पर अंधेरा छाया है। सब से बड़ा अंधेरा है मैं कौन हूं? मैं इस दुनिया में क्यों आया हूं? जीवन का लक्ष्य क्या है? जिसने मुझे भेजा है उसकी अपेक्षा है कि मैं उसका ही काम करूं। यह बोध मन में होते ही उपभोग के, सत्ता-स्वार्थ-संपत्ति के मोह का अंधकार हटेगा। आत्मबोध का प्रकाश फैलना-फैलाना यह है दीपावली पर्व।
भारत ही मेरी माता-मेरा परमेश
सब से महत्वपूर्ण प्रकाश है- मैं भारत माता की संतान हूं, वह मेरे लिए स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है, मेरा गुरु नहीं, मेरा ईश्वर है, मोक्ष है, स्वर्ग है। प्रत्यक्ष शरीर द्वारा या वाणी, कर्म, आंतरिक, सुप्त मन के मनोमय विचार में भी उसके साथ बेईमानी करने का विचार मेरे सपने में भी नहीं आएगा, इस संकल्प से ही मेरा-हमारा, हम सबका जीवन अंतिम क्षण तक आलोकित होता रहेगा, यह स्पंदन ही दीपोत्सव है।
देवत्व अर्थात् सज्जनरक्षा
ईश्वर ने जब सृष्टि निर्माण की, तब हर देश को उसके जीवितकार्य का सूचक एक-एक शब्द दिया। कला, उद्योग, श्रम, धन, सत्ता, आदि आदि। भारत को शब्द दिया ‘धर्म’। अन्य की कहीं-न-कहीं अंतिम सीमारेखा है। परंतु इस सृष्टि के अस्तित्व के अंतिम क्षण तक धर्म की आवश्यकता है। धर्म अर्थात कर्तव्य बुद्धि, धर्म अर्थात दैवी जीवनमूल्य, जो मानव को देवत्व प्रदान करते हैं। देवत्व का अर्थ है सज्जनरक्षा- दुर्जनों को सजा। सज्जन-दुर्जन यह कोई व्यक्ति नहीं यह एक मानसिकता है। यह ईश्वर की भूमि है, यहां ईश्वरीय कार्य ही होना चाहिए। यह विचारज्योति प्रज्वलित होना और मन-मन उससे आलोकित होने का पर्व है दीपावली।
आनंद की ज्योति जलाएं
ईश्वर का रूप हम मानते हैं- सत्-चित्-आनंद। सत् अर्थात् सकारात्मक चिरंतनता। चित् अर्थात् चेतनायुक्त आनंद-अर्थात् सात्त्विक निर्मल आनंद। सुख और आनंद में अंतर है। सुख भौतिक अर्थात् ‘अनुकूल संवेदनं सुखम्।’ ‘मुझे जो अनुकूल है वह सुख भौतिक-दैहिक सीमा तक है।’ आनंद उच्च कोटि की आत्मिक अनुभूति है। समग्रता, मानवता का स्पर्श है अतः आनंदमय कोश का महत्व है। इसमें ईर्ष्या, स्पर्धा, आसक्ति का स्पर्श नहीं। आनंद की यह अनुभूति ही दीपोत्सव है। ये सभी दीप अखंड प्रज्वलित रखने का दायित्व हम सबका है। जो-जो बुरा है अर्थात् राष्ट्रीय संस्कृति के विरुद्ध है, वह सब अशास्त्रीय, अवैज्ञानिक अर्थात् त्याज्य है। स्वागतार्ह, स्वीकारार्ह नहीं है। यह तमस है। उससे ऊपर उठना है।
सेतुमाधवरावजी का अद्भुत चिंतन
इस नश्वर विश्व में क्या चिरंजीव है? मातृभक्ति, मातृभूमि भक्ति। सेतुमाधवराव पगडी, विद्यापीठ से अवकाश प्राप्त करने के पश्चात् मुंबई में अपने बेटे के पास जाने वाले थे। सुप्रसिद्ध सेतुमाधवराव पगडी, राष्ट्रीय इतिहास के परम उद्गाता थे। उनसे चर्चा करने हेतु आए पत्रकार बंधुओं में से एक ने प्रश्न पूछा- ‘आपने देश की इतनी सेवा की है तो आपको मोक्ष मिलेगा ही।’ उन्होंने उत्तर दिया- ‘मुझे मोक्ष नहीं चाहिए। मैं इस देवभूमि पर पुनः पुनः जन्म लेकर उसकी सेवा करना चाहता हूं।’ पत्रकार बंधु ने पुनः पूछा कि ‘क्या आपको विश्वास है कि आपको अगला जन्म मनुष्य का ही मिलेगा।’ उन्होंने कहा-‘मेरा ऐसा कोई दावा नहीं। पशु, पक्षी, पेड़-पौधे- कीडा इतना ही नहीं अगर पत्थर का भी जन्म भारत में मिले तो मुझे आनंद ही होगा।’ इतना विद्वान व्यक्ति पत्थर बनने की चाह रखता है यह बात पचाना पत्रकार बंधुओं के लिए कठिन था। यह समझ कर सेतुमाधवराव जी ने कहा- ‘हां पत्थर बनने में भी मुझे आनंद होगा।’ ऐसे ही एक पत्थर पर कोई युवा संन्यासी चिंतन, तपस करते हुए अपना जीवनोद्देश खोजता है। अपने हृदय की हर धड़कन भारत माता के गौरव के लिए, उसकी विश्वप्रतिष्ठापना के लिए है, यह सोच कर बाहर देशों में जाता है। ऐसी प्रेरणा प्राप्त करने का स्थान, ऐसा पत्थर मैं बनू यह मेरी मनीषा है।’ आह! क्या अद्भुत चिंतन है।
प्रकाशपुंज बनें
इस आत्मबोध के प्रकाश में परब्रह्म है, यह समझ कर भारत माता की सेवा हेतु बलशाली शरीर के, व्यक्तित्व के धनी बनना, भारत के तेजस्वी संतानों के चित्र निरंतर देखना एवं उनके चरणस्पर्श से पावन, प्रेरक बने स्थानों पर जाकर वहां के स्पंदन प्राप्त करना चाहिए। इस भाव स्पर्श का प्रकाश ही श्रेष्ठ दीपोत्सव है। उसमें अपना सहभाग थोड़ा ही क्यों न हो, प्रामाणिकता से देने वाली विचार स्फूर्तिशलाका प्रकट हो- ऐसी शलाकाओं का प्रकाशपुंज बनने पर अंधेरे का अस्तित्व कैसे रहेगा? कारण प्रकाश होने का अर्थ ही है तमस हटना। उसके लिए अलग प्रयत्नों की आवश्यकता ही नहीं।
आइये, हम सब छोटे-बड़े, धनिक और गरीब सब इस दीपोत्सव में सम्मिलित हों। फिर किसी भी प्रकार के अंधकार को स्थान ही कहां रहेगा? हे भारत मां, हम सब को यही आशीष दो, कि ऐसे सात्त्विक सर्वकल्याणाकारी प्रकाश के पुंज हम बनें और दीपोत्सव सार्थ करें।

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