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नोटबंदी, जीएसटी, रेरा का महागठबंधन

by खुशबू चौरासिया
in आर्थिक, नवम्बर २०१७, सामाजिक
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नोटबंदी, रेरा, जीएसटी को लागू करने के फैसले सही थे, लेकिन सभी फैसलों का समय गलत था या फिर समय सही था तो उसका नियोजन सही नहीं था। भारतीय इतने तीव्रता से लिए गए फैसलों के आदी नहीं है।
भाजपा ने केंद्र में अपनी सरकार २०१४ में शासित की। उसका केंद्र में आना लोगों के लिए एक नई उम्मीद की किरण थी। अच्छे दिन का वादा उनके चुनाव का मुख्य नारा था। लोग भी उनके इसी चुनाव प्रचार से प्रभावित हुए थे। आम जनता भ्रष्टाचार देख देख कर त्रस्त हो गई थी। वे ऐसे कुछ की उम्मीद लगाए थे, जिससे आतंकवाद, भ्रष्टाचार और बढ़ती हुई महंगाई पर रोक लगा सके। यह कहना उचित होगा कि कोई भी सरकार आए उसे सुधार लाने में वक्त लगता है, लेकिन स्थिति को नियंत्रण करने में जोे सरकार फैसले लेती है, वे ऐसे हों कि उस देश की (Economy) पर कोई दुष्प्रभाव न पड़े। वर्तमान स्थिति में सरकार का नोटबंदी (८ नवंबर २०१७) का फैसला लोगों के लिए किसी भूंकप से कम नहीं था। सरकार के फैसले को जहां आम जनता ने एकजुट होकर सराहा, वहीं गांव और शहर में रहने वाली निचले तबके की जनता, जो अपनी रोजमर्रा की जिंदगी रोज कमाने और खाने पर निर्भर थी, वे लोग इस फैसले से बहुत त्रस्त हुए। उनके पास कोई काला धन नहीं था। वे ५०,००० से १,००,००० रुपये को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। वह कोई काला धन नहीं था। एक आम जनता की मेहनत की कमाई थी।
हम भले ही २१वीं सदी में हों लेकिन आज भी हमारे लोग आधुनिकता से पूर्ण रूप से अवगत नहीं हैं। सरकार लोगों को आधुनिकता की ओर प्रोत्साहित कर रही है, वहीं इस तकनीक के कारण ऐसे केस की कोई धरपकड़ नहीं है। लोगों के बैंक खातों से पैसा गायब हो जाता है। महंगे मोबाइल फोन चोरी हो जाने पर उसे पाने की कोई उम्मीद नहीं। हैकिंग सिस्टम से लोगों के डेटा चोरी हो जाते हैं। दिल्ली और गुड़गांव जैसे शहरों में अपने लोगों के बीच आतंक का माहोल पैदा हो जाता है। ऐसे कई अन्य उदाहरण जो हमें आज भी अपना जीवन आतंक, डर व भय में जीने पर मजबूर करते हैं। ऐसे में आधुनिकता को लोग अपनाते तो कैसे? हम यह नहीं कहना चाहते कि सरकार का फैसला गलत था या सरकार की मंशा गलत थी, लेकिन रातोंरात परिर्वतन करना ठीक नहीं था। नवंबर शादी और त्यौहारों का महीना था। नोटबंदी ने शादी के घरों को मातम में बदल दिया। घर की गृहिणी की रोजमर्रा की बचत को काले धन की श्रेणी में खड़ा कर दिया। रियल इस्टेट जैसे सेक्टर तो अभी नोटबंदी से बाहर नहीं आए थे कि RERA Am¡a GST उनके लिए एक नई चुनौती के रुप में खड़े हो गए। लोगों ने इस दौरान व्यापारी वर्ग को चोर की नजरों से देखा। वे जब भी, उनकी बात कहते, तो वे कहते, ‘बहुत लूटा। अब व्यापारियों की लुटने की बारी है।’
नोटबंदी का उद्देश्य या उसका स्वरूप लोग आज भी नहीं समझ पाए। क्या हुआ उस ८ नवंबर की रात जो आज भी लोगों के लिए किसी युद्ध की घोषणा से कम नहीं था। आम लोगों ने सोचा कि हमारे लिए कुछ नहीं, परेशानी तो बड़े लोगों के लिए है, जो काले धन की चोरी करते हैं। लेकिन ऐसा नहीं था। छोटे भी इसमें पीस गए। अगर रोक लगानी ही थी तो उन पर लगानी चाहिए थी जो बाजार में चिट फंड कम्पनी चला रहे थे। उनकी धरपकड़ करनी चाहिए थी। उनके घोटाले उजागर करने चाहिए थे। बाजार से गंदगी साफ करने के लिए उनके घर की गंदगी साफ करने की जरूरत थी। हिंदी में कहावत है, ‘जाना उसका जिसके पास जाने को हो, उस फकीर का क्या जिसके पास संभालने के लिए कुछ न हो।’ कहने का अर्थ है, जिसके पास गंवाने को कुछ हो, वही तो गंवा सकता है, पर जिसने कमाया कुछ न हो, वह व्यक्ति खोएगा क्या? इसी तरह नोटबंदी का भी हुआ। जो उद्देश्य सरकार नोटबंदी से पूर्ण करना चाहती थी, शायद ही वह कभी पूरा हुआ हो।
नोटबंदी से पहले रेरा और जीएसटी की बाजार में खूब चर्चा थी। लोग इन कानूनी व्यवस्था को समझ पाते, उससे पहले नोटबंदी ने कहर ढा दिया। रेरा का उद्देश्य था कि लोगों तक बिल्डर लॉबी का रूपांतरण पहुंचाना, लेकिन कहीं उसने भय का रूप ले लिया तो कहीं वह आरोप-प्रत्यारोप का आधार बन गया। ग्राहकों को लगा कि वे अब बिल्डर को तोड़ सकते हैं। बिल्डर लॉबी के लिए वह एक शिकंजा अथवा मछली पकड़ने का जाल बन गया। रेरा एक तरफ जहां बिल्डर लॉबी की पोल खुलने/खोलने जैसा था, वहीं उन्हें जिस सिस्टम से राहत चाहिए थी, वह अभी भी नहीं मिली थी। बिल्डर कभी भी ऐसा नहीं करना चाहते थे, जिसमें वे बाध्य हों, अफसर और अधिकारी का घूस देनी पड़ेे। सरकारी कर्मचारियों की आदत है, वे बिना रिश्वत के किसी कागज पर हस्ताक्षर नहीं करते। रेरा जहां पारदर्शिता के लिए लाया, वही उस्का उद्देश्य उलझता हुआ दिखा।
सभी राज्यों ने रेरा को स्वीकार किया और उसे आगे भी बढ़ाया, लेकिन रेरा का नियोजन पूर्ण रूप से होता अभी तक नजर नहीं आया। सरकार को पहले सिस्टम काबू में करने की जरूरत है। विकास देरी से होने का कारण बिल्डर लॉबी नहीं है, उसके मुख्य कारण तमाम परमिशन और अनगिनत एनओसी और कागजी कार्यवाही है, जो विकास की गति को धीमी कर देती है। कई राज्यों में जैसे ही रेरा लागू हुआ उनके अथॉरिटी दफ्तर में असंख्य शिकायत-पत्र मिले। इन शिकायत पत्रों में कुछ शिकायतें वाजिब थीं और कुछ विपक्ष को शर्मिंदा करने जैसी थी। जिस तरह आरटीआई का सही उपयोग न कर वह कालाबाजारी के धंधे का स्रोेत बन गया, उसी तरह रेरा ने उस भय और डर से बिल्डर लॉबी को बाहर निकाल दिया।
रेरा ने जहां बाजार से सारी बिल्डर लॉबी में पल रही छोटी-छोटी गंदगी साफ कर दी, वहीं लोन पर चलने वाली बिल्डर लॉबी के लिए लोन चुकाना तथा उसका ब्याज चुकाना भारी पड़ गया। वे सभी उद्योगपति कर्ज में डूबने की कतार में खड़े हो गए। बिल्डर लॉबी/रियल इस्टेट ऐसा जगत है जहां पूरा निर्माण कार्य ब्याज से लिए हुए पैसे से खड़ा होता है। इन हालातों में नोटबंदी, जीएसटी और रेरा का खूब प्रभाव पड़ा है। बैंकों की ईएमआई चुकाना भारी पड़ रहा है। यह भयंकर स्थिति बड़े स्तर के लोगों पर ज्यादा प्रभाव नहीं कर रही है, जितना छोटे बिल्डर पर कर रही है।
जीएसटी और सबके लिए एक टैक्स का विचार बहुत दिनों से रोक कर रखा था, ऐसा मौजूदा सरकार का कहना था, लेकिन सरकार यह बताए कि जिस टैक्स स्लैब में उन्होंने इन सारी चीजों को बिठाया, क्या वे बहुत प्रमाणित थीं? जैसे कि बाल काटने पर १८%, तीन सितारा या दो सितारा होटल में खाना खाने पर १८% टैक्स! सरकार ने अपने पूंजीगत घाटे को भरने के लिए सारी जिम्मेदारी जनता के ऊपर ढकेल दी। जीएसटी का कोई विरोध नहीं है, लेकिन जिस तरह उसे लागू किया गया, और जिस तरह उसे रोजमर्रा की जिंदगी के लगने वाले वस्तु पर टैक्स लगाया गया उसका विरोध है। आज व्यक्ति एक करोड़ के फ्लैट पर १२% जीएसटी चुका रहा है, तो उसने कितने में खरीदा? १२ लाख रुपया टैक्स और ६% प्रतिशत स्टैम्प ड्यूटी यानी ६ लाख रुपया तो अगर सब मिला दिया जाए तो १ करोड़ पर १८ लाख रुपया उसका टैक्स में चला जाता है, कैसे कोई उपभोक्ता कुछ खरीदे।
आज के बाजार बहुत तेजी से सक्रिय है, इसका मुख्य कारण लोन है। जिसे देखो वह ईएमआई चुकाने में लगा है। टीवी, फ्रिज, मोबाइल, लैपटाप या फर्नीचर- ईएमआई पर क्या नहीं मिलता? ग्राहक कर्ज में डूबता जा रहा है, वो अपनी परेशानी से जूझता रहता है, और कमा-कमाकर अपनी जीवन शैली को पूर्ण कर रहा है। ऐसे ही और कितने अन्य कारण हैं, जिनसे भारत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से ऊपर नीचे हो गई और इन सब उतार- चढ़ाव से आम जनता बहुत त्रस्त हुई है।
सारंश यह है कि, सारे नियम को लोगों के बीच जिस तरह लाया गया वह माध्यम उचित नहीं था। भारतीय इतने तेज फैसले के आदी नहीं हैं, उन्हें समझने के लिए समय चाहिए, जो उन्हें मिला नहीं, और सरकार को जिस दिशा को नियंत्रित करना चाहिए था, उसने उस दिशा से हट कर अन्य बहुत सारे बदलाव समाज में ला दिए जिससे लोगों में और हलचल बढ़ गई।
कहने का अर्थ है कि फैसले सही थे, लेकिन सभी फैसलों का समय गलत था। या फिर समय सही था, तो उसका नियोजन सही नहीं था।

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