जीएसटी आम आदमी के लिए बहुत अच्छा

विरोध करने वाले भले बदलावों को जीएसटी की अधूरी तैयारी का नाम देते रहें, लेकिन कर का पूरा ढांचा ही बदल देने वाली प्रणाली को सुचारु होने में कुछ महीने तो लगेंगे ही। दीर्घावधि में जीएसटी सब के लिए लाभप्रद ही होगा।
पिछले करीब आठ महीने से देश भर में जो भी नाम सुर्खियों में रहे हैं, उनमें जीएसटी काफी आगे है। जीएसटी यानी वस्तु एवं सेवा कर आजादी के बाद का सब से बड़ा कर सुधार है, जिसे लागू करने के लिए सरकारों को बहुत मशक्कत भी करनी पड़ी है। वास्तव में यह क्रांतिकारी कदम है, इसलिए इसका जम कर समर्थन भी किया जा रहा है। लेकिन जितना समर्थन है, उतना ही विरोध भी है। सोशल मीडिया जैसे मंचों पर विरोध के स्वर और भी मुखर हैं। लेकिन क्या वास्तव में जीएसटी इतना खराब है? क्या वास्तव में उससे सुविधा के बजाय असुविधा हो रही है?
सब से पहली बात तो यह है कि विरोधियों के दावे के उलट जीएसटी आम आदमी के लिए बहुत अच्छा है। टेलीफोन बिल जैसी कुछ सेवाएं बेशक इसके बाद महंगी हो गई हैं, लेकिन आम इस्तेमाल की अधिकाधिक वस्तुएं जीएसटी के दायरे में आने के बाद सस्ती ही हुई हैं। खास तौर पर दैनिक उपभोग का सामान और राशन की वस्तुओं पर तो इसका अच्छा असर दिख रहा है। तेल, साबुन, आटा, दाल जैसा अमीरों और गरीबों के समान रूप से काम आने वाला सामान या तो जीएसटी के दायरे से बाहर है या जीएसटी आने के बाद उस पर कर की दर कम हो गई है। यही नहीं, रेस्तरां में खाने वालों को भी पहले के मुकाबले १-१.५ प्रतिशत कम कर ही देना पड़ रहा है। इसलिए विरोध का यह आधार तो कहीं टिक ही नहीं रहा है कि आम आदमी को जीएसटी से दिक्कत हो रही है।
विरोधियों का दूसरा तर्क कारोबारियों को हो रहा नुकसान है। इसके लिए बिक्री कम होने, निर्यात में कमी आने, औद्योगिक उत्पादन घटने और नौकरियां जाने जैसी तमाम बातें गिनाई जाती हैं। इसमें ध्यान देने वाली बात यह है कि जीएसटी लागू होने से ऐन पहले यानी मई और जून के महीनों में जबरदस्त बिक्री हुई थी। छोटे-मोटे सामान ही नहीं बल्कि कार और फ्रिज, एसी, टीवी जैसे बड़े सामान पर भी खरीदार खूब मेहरबान हुए थे क्योंकि कारोबारी भी जीएसटी से पहले का माल खपाने के फेर में अच्छी छूट दे रहे थे। जीएसटी के बाद की अनिश्चितता के कारण जून से ही कारोबारियों ने नया माल खरीदना बंद या कम कर दिया था। इस कारण कारखानों में विनिर्माण धीमा हो गया और उसी की वजह से औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) के आंकड़े नीचे आ गए। औद्योगिक गतिविधियों या विनिर्माण का अंदाजा पर्चेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स (पीएमआई) से भी लगता है, जो बताता है कि किसी खास महीने में कारखानों में विनिर्माण के लिए कितना सामान खरीदा गया। कारखाने सुस्त होंगे तो आईआईपी के साथ पीएमआई भी कमजोर होना स्वाभाविक है और ऐसा हुआ भी। उसी को आधार बना कर महज दो महीने के भीतर ही जीएसटी को असफल करार दे दिया गया। लेकिन ऐसा करने वाले भूल गए कि जिस समय देश में मूल्यवर्द्धित कर (वैट) प्रणाली चालू हुई थी, उस समय भी माहौल कमोबेश ऐसा ही था और उस समय भी कारोबारी जम कर विरोध कर रहे थे। मगर बाद में एक दषक से भी अधिक समय तक वैट प्रणाली अच्छी तरह से चलती रही।
बहरहाल, जीएसटी विरोधी जिन दलीलों के बल पर बोल रहे थे, अक्टूबर में वे भी धराशायी हो गईं। जब निर्यात और औद्योगिक उत्पादन के आंकड़े आए तो विरोधियों के लिए झटका ही था। आंकड़ों के मुताबिक अगस्त में औद्योगिक उत्पादन में ४.३ प्रतिशत की वृद्धि हुई, जो पिछले ९ महीनों में सब से तेज रफ्तार रही। जून में कारखाने सुस्त होने की वजह से यह आंकड़ा ०.१ प्रतिषत था, जिसे जीएसटी विरोधी सब से बड़ी दलील बता रहे थे। लेकिन जुलाई में ०.९ प्रतिशत होने के बाद अगस्त में यह साबित हो गया कि जीएसटी का उद्योगों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा है।
यही बात निर्यात के साथ भी है। जीएसटी लागू होने के साथ ही निर्यातकों को दिक्कत हुई थी, इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता। अगर कर प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया जाए तो ऐसा होगा ही। लेकिन सितंबर के आंकड़े बताते हैं कि निर्यात एक बार फिर तेजी पकड़ने लगा है। सितंबर में देश से निर्यात में २५.७ प्रतिशत वृद्धि हुई, जो पिछले ६ महीने का सब से बड़ा आंकड़ा है। इससे भी अंदाजा लग रहा है कि शुरुआती महीनों का व्यवधान खत्म होने के बाद जीएसटी का कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं रहेगा।
इस तरह यह मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि जीएसटी अर्थव्यवस्था को बेहतरी की ओर ही ले जाएगा। बेशक निकट भविष्य में आर्थिक वृद्धि दर कम रहने की बात कही जा रही है, लेकिन विश्व की लगभग सभी बड़ी आर्थिक संस्थाएं इसके लिए सरकार को शाबासी भी दे रही हैं। मगर क्या वाकई जीएसटी कारोबारियों के लिए इतना आसान है? इसका जवाब है- नहीं। कारोबारियों का जीवन आगे चल कर तो आसान हो जाएगा, लेकिन जीएसटी ने शुरुआत में उन्हें परेशानी में डाला है। सब से बड़ी समस्या तो यही है कि सरकार ने उन्हें तैयारी के लिए अधिक समय नहीं दिया। ज्यादातर छोटे उद्यमी और कारोबारी अभी तक कागजी काम करने के आदी थे और कंप्यूटर से उनका साबका नहीं के बराबर पड़ता था। लाखों कारोबारी ऐसे भी थे, जो कर के दायरे से बाहर रहते थे या कच्चे बिल बना कर कर की चोरी कर लेते थे। लेकिन जीएसटी के नियमों के मुताबिक उनके लिए भी कर प्रणाली में आना जरूरी हो गया। जो किसी भी तरह का कर नहीं देते थे, उनके लिए जीएसटी प्रणाली तो पेचीदा होनी ही थी। यही कारण है कि तीन महीने गुजर जाने के बाद भी जीएसटी रिटर्न कम संख्या में ही दाखिल किए गए हैं। जीएसटी के बाद के पहले महीने यानी जुलाई के लिए रिटर्न दाखिल करने की अंतिम समय सीमा दो बार बढ़ाई गई, लेकिन १० अक्टूबर की आखिरी समय सीमा खत्म होने के बाद भी ३० प्रतिशत कारोबारियों ने जुलाई का जीएसटी रिटर्न दाखिल नहीं किया था। इसके पीछे तकनीकी समस्याएं भी रहीं और पेचीदगी भी। हालांकि सरकार इसे सुगम बनाने की कोशिशों में जुटी है और समय सीमा दो बार बढ़ाया जाना अपने आप में इसका प्रमाण है।
इसके अलावा कारोबारियों को इनपुट टैक्स रिफंड की भी समस्या आ रही थी। इनपुट टैक्स रिफंड की प्रक्रिया को समझ लीजिए। यदि राम दुकानदार है और उसने श्याम से माल खरीदा है तो श्याम उस पर राम से जीएसटी वसूल लेगा और सरकार के पास जमा करा देगा। अब राम को प्रमाण समेत सरकार को बताना होगा कि श्याम माल पर जीएसटी वसूल चुका है और वह जीएसटी राम को वापस होना चाहिए। इसी प्रक्रिया को इनपुट टैक्स रिफंड कहते हैं और यह इसलिए होता है कि हरेक कारोबारी सामान पर जीएसटी चुकाए, लेकिन कई बार जीएसटी न कटे, इसके लिए अगला कारोबारी पिछले कारोबारी द्वारा चुकाया गया जीएसटी सरकार से वापस मांग ले। लेकिन टैक्स रिफंड में देर होने के कारण कारोबारियों की रकम फंस रही थी। जिसके कारण वे परेशान थे। इसी तरह कंपोजिशन योजना यानी १, २ और ५ प्रतिशत की सपाट दर से जीएसटी चुका कर झंझट मुक्त होने की योजना में भी खामियां थीं। निर्यातक भी ऐसी ही समस्याओं से जूझ रहे थे। लेकिन अक्टूबर के दूसरे सप्ताह में हुई जीएसटी परिषद की बैठक में सरकार ने काफी राहत दे दी।
इस बैठक में तय किया गया कि निर्यातकों को निर्यात के मकसद से खरीदे जाने वाले माल पर जीएसटी नहीं देना पड़ेगा। उसी उद्देष्य से आयात किए जाने वाले सामान पर सीमा शुल्क की रियायत भी मिलती रहेगी और उनके द्वारा चुकाया गया शुल्क नियत समय में वापस आ जाएगा। इससे सुनिश्चित होगा कि निर्यातकों की रकम कहीं नहीं अटके। यह वास्तव में बहुत बड़ी राहत है।
इसी तरह कंपोजिशन योजना में भी सालाना कारोबार का दायरा बढ़ा दिया गया है। अभी तक ७५ लाख रुपये या उससे कम कारोबार वाले ही इसमें शामिल हो सकते थे, लेकिन यह सीमा १ करोड़ रुपये कर दी गई है। योजना अपनाने वालों को हर महीने रिटर्न भरने के बजाय तीन महीने में एक बार ही रिटर्न भरना होता है। सीमा बढ़ाने से उनकी संख्या भी बढ़ेगी और उन्हें रिटर्न के झंझट से राहत मिलेगी। इसके अलावा भी कई तरह की रियायत और छूट उस बैठक में दी गईं, जिनसे यह साबित होता है कि सरकार जीएसटी पर बेहद लचीला रुख अपना रही है और किसी भी तरह की कसर को दूर करने में उसे कोई झिझक नहीं है। बेशक विरोध करने वाले इन बदलावों को जीएसटी की अधूरी तैयारी का नाम देते रहें, लेकिन कर का पूरा ढांचा ही बदल देने वाली प्रणाली को सुचारु होने में कुछ महीने तो लगेंगे ही।

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