चीन की पानी डकैती

चीन तिब्बत में झांगबो (ब्रह्मपुत्र) नदी पर बांधों की शृंखला बना रहा है। अब जो नया विशालतम और बेहद खर्चीला बांध बन रहा है वह भारत-भूटान सीमा के पास तिब्बत के संगरा जिले में होगा। इस बांध का पानी उत्तर-पश्चिम में मोड़कर शिंजियांग प्रांत के तकलीमाकन रेगिस्तान तक पहुंचाया जाएगा। चीन की इस पानी डकैती का पूर्वोत्तर भारत पर गहरा असर पड़ने वाला है। भविष्य में जलयुद्ध का यह आगाज मानने में क्या हर्ज है?
‘ब्रह्मपुत्र’ नाम से हम सब परिचित हैं। उसी का तिब्बती नाम है यार्लंग झांगबो। तिब्बती में ‘झांगबो’ माने पवित्र, शुद्ध। अर्थात यार्लंग नामक पवित्र नदी। उसके भारत में उतरते ही वह लोहित, और बाद में ब्रह्मपुत्र कहलाती है। बांग्लादेश में वह ‘जमुना’ बन जाती है। लेकिन पवित्रता का मूल धागा यार्लंग से लेकर जमुना तक बरकरार है। हर जगह वह जीवनदायिनी है। तिब्बत के बुरंग जिले के अंगासी ग्लेशियर से निकलकर बंगाल की खाड़ी में गिरने तक उसका ३८४८ किमी का लम्बा सफर है। इसमें से कोई १६२५ किमी का सफर तिब्बत का है।
ब्रह्मपुत्र की चर्चा इस समय चीन की पानी डकैती के कारण है। यार्लंग झांगबो के अधिकांश पानी का इस्तेमाल करने के लिए वह छोटे-बड़े कोई २८ बांध बनवा रहा है। इसी क्रम में उसने यार्लंग झांगबो के प्रवाह को मोड़कर उस पानी को शिंजियांग प्रांत में ले जाने की योजना बनाई है। इससे वहां का तकलीमाकन नामक रेगिस्तान हराभरा हो जाएगा। इस रेगिस्तान का ९० फीसदी हिस्सा अभी रहने लायक नहीं है। पानी पहुंच जाएगा तो सारा चित्र बदल जाएगा और इलाका आबाद होगा। जिस तरह अमेरिका ने कैलिफोर्निया को हराभरा बना दिया ठीक उसी तरह। कभी कैलिफोर्निया में शिंजियांग प्रांत जैसा ही पानी का संकट था। अमेरिका ने १९३३ में सेंट्रल वैली परियोजना आरंभ की। उत्तरी कैलिफोर्निया के नदियों का पानी दक्षिण में सान जोएक्विन घाटी तक पहुंचाया। इस तरह पूरा कैलिफोर्निया हराभरा हो गया। खेती उपज में उसने कीर्तिमान बनाया, जिससे वहां खुशहाली आई। चीन यार्लंग झांगबो का पानी इसी तरह शिंजियांग प्रांत के रेगिस्तान तकलीमाकन तक पहुंचाकर उसे चीन का ‘कैलिफोर्निया’ बनाना चाहता है।
तिब्बत का पठार विश्व का सब से अधिक ऊंचाई पर स्थित पानी का विशाल भंडार माना जाता है। उसका एक लाख वर्ग किमी का पठार ग्लेशियरों से भरा है। पानी का यह भंडार दक्षिण व दक्षिण-पूर्व एशिया की कई नदियों का उद्गम स्रोत है। झांगबो के अलावा सिंधु और सतलज भारत में उतरती हैं। सलवीन और मेकांग नदियां तिब्बत-भारत के बीच बहती हैं। इन नदियों या उनकी उपनदियों के प्रवाह को रोककर अन्यत्र मोड़ने से भारत, बांग्लादेश तथा म्यांमार में उतरने वाली नदियों के प्रवाह में कमी आएगी और उसके पर्यावरणीय दुष्प्रभाव भी होंगे। इसके भारत पर प्रभावों की चर्चा बाद में, पहले इस परियोजना को जान लें और चीन की लफ्फाजी को समझ लें।
तिब्बत के पानी को सूखाग्रस्त इलाकों में मोड़ने की इन परियोजनाओं की पृष्ठभूमि बहुत पुरानी है। १९वीं सदी में चीन के क्विंग राजघराने के लिन झेशू एवं झुओ झोंगतांग ने इस तरह की परियोजनाओं की पहल की थी। हाल में इसी पर काम करते हुए चीन सरकार ने विशाल बांधों, नहरों एवं पम्पों के सहारे पानी को वांछित जगह ले जाने की रूपरेखा बनाई है। यही ‘ग्रेट वेस्टर्न रूट वाटर ट्रांसपोर्ट परियोजना’ का मूल खाका है। इसी के अंतर्गत चीन में विभिन्न वृहद परियोजनाएं चलाई जा रही हैं। इसमें शिंजियांग के रेगिस्तान के अलावा उत्तर में गोबी के रेगिस्तान तक भी पानी पहुंचाने का प्रावधान है। इस तरह पूरे चीन में पानी और बिजली परियोजनाओं का जाल बिछ जाएगा।
असल में तिब्बत चीन की झोली में डालने की पंडित नेहरू की मूर्खता का यह खामियाजा है। अब वह तिब्बती इलाके में कोई परियोजना लगाता है तो हमारे पास महज विरोध करने के अलावा कुछ नहीं रह जाता। झांगबो याने ब्रह्मपुत्र के तिब्बती इलाके में चीन जगह-जगह पानी रोक रहा है। झांगबो भारत-चीन नियंत्रण रेखा के करीब से तिब्बती इलाके में बहती है। इस नदी पर चीन ने विशाल बांध परियोजनाओं के तहत सबसे पहले भूटान-भारत सीमा के करीब ज्ञासा में झांगमू नामक बांध बनाया। इसका निर्माण २००९ में शुरू हुआ तथा १३ अक्टूबर २०१५ को पूरा हुआ। इसके बाद चीनी मंत्रिमंडल ने ‘नई ऊर्जा विकास योजना-२०१५’ को मंजूर किया। इसके अंतर्गत और चार नई बांध परियोजनाओं की घोषणा की गई। ये परियोजनाएं लाल्हो, दागू, जियाशू और जियाछा परियोजनाएं हैं। ल्हालो परियोजना शियाबुक नदी पर बन रही है। यह ब्रह्मपुत्र की सहायक नदी है। जून २०१४ में इस पर काम शुरू हुआ और २०१९ में पूरा होना है। इस तरह दसों जल परियोजनाओं की शृंखला कायम की जा रही है और पड़ोसी देशों की नदियों के पानी पर डाका डाला जा रहा है। यह तो दूसरे के मुंह का कौर छीनने जैसा हुआ या यूं कहें कि यह ‘नदियों की चोरी है’ तो कहां गलत होगा? भविष्य में पानी के लिए युद्ध होने की जो बात कही जाती है, उसकी पृष्ठभूमि इस तरह तैयार हो रही है। चीन के विस्तारवाद का यह छद्म रूप है।
अब ब्रह्मपुत्र पर जो सबसे विशाल परियोजना चीन बना रहा है, वह संगरी जिले में है। इसमें पानी को भूमिगत नहरों के जरिए दक्षिण से उत्तर की ओर उतार कर बाद में उसे पश्चिम की तरफ मोड़ा जाएगा। ये सुरंगी नहरें १००० किमी की होंगी। इस पर प्रति किमी १५० मिलियन डॉलर खर्च होंगे। इस तरह कुल खर्च १५० बिलियन डॉलर होगा। यहां मिलियन और बिलियन का जिक्र है, जिससे परियोजना पर प्रचंड राशि खर्च होगी यह स्पष्ट है। जब तक परियोजना पूरी होगी तब तक यह खर्च और बेतहाशा बढ़ गया होगा। विश्व में किसी ऐसी परियोजना पर अब तक इतनी प्रचंड राशि खर्च नहीं हुई होगी। पूरी परियोजना रिपोर्ट चीनी उच्चाधिकारियों को सौंप दी गई है। अगले कुछ वर्षों में इस पर काम शुरू हो सकता है।
यह निर्माण इसलिए संभव होगा क्योंकि बांध निर्माण परियोजनाओं की तकनीक में चीन ने महारत हासिल कर ली है। भूमिगत नहरों के निर्माण का भी उसका खासा अनुभव है। दाहू में उसने ८५ किमी लम्बी भूमिगत जल सुरंग आठ साल पहले बनाई थी। विश्व में न्यूयार्क शहर की सबसे लम्बी अर्थात १३७ किमी की मुख्य भूमिगत जल वाहिनी है। लेकिन चीन ने उस पर मात कर यून्नान प्रांत में ६०० किमी लम्बी भूमिगत जल वाहिनी बिछाने का काम अगस्त में शुरू कर दिया है। इसमें ६० सेक्शन होंगे और उस पर दो हाईस्पीड ट्रेनें तक चलाई जा सकेंगी। यह अगले ८ वर्ष में पूरी होगी। इस परियोजना का अनुभव झांगबो नदी की १००० किमी की नई परियोजना में काम आएगा। पर्यावरण की दृष्टि से इसके प्रभावों का आकलन किया जा रहा है। चीनी इंजीनियरों की दिक्कत यह है कि जिन पहाड़ों में सुरंगें बनानी हैं, वे भुरभुरे हैं। कुछ इलाके तो भूकम्प पीड़ित क्षेत्र में आते हैं। इस बात पर सोचा जा रहा है कि जहां पहाड़ों के खिसक जाने का खतरा है वहां अंदर की पानी की सुरंग को कैसे बचाया जाए। भूकम्प क्षेत्र के लिए यह सोचा जा रहा है कि क्या सुरंग में डाले गए पानी के विशाल पाइपों को ऐसी किसी लचीली, मजबूत और भूकम्प के झटके को सहनेवाली कपलिंक से जोड़ा जा सकता है, जिससे भूस्तर में आई हलचलों को वे सम्हाल सके। चूंकि पानी ऊंचाई से तीव्र गति से नीचे गिरनेवाला है इसलिए इस गति को सम्हालने के लिए जगह-जगह विशाल कुएं बनवाए जाएंगे। पानी जलप्रपात जैसा पहले उन कुओं में गिरेगा, जिससे नियंत्रित गति से पानी आगे बढ़ेगा। ऐसे कई कृत्रिम जलप्रपात बनाए जाएंगे। वहां पनबिजली का उत्पादन होगा। इस तरह पानी और ऊर्जा दोनों को पूरे देश में फैलाने की चीन की योजना है। इस परियोजना की विशालता और अद्भुत प्रौद्योगिकी के बारे में सुनकर सब कुछ चमत्कारिक लगता है। चीन की जनसंख्या को देखते हुए रोजगार सृजन करना उनकी पहली प्राथमिकता है। इस तरह की परियोजनाओं से लाखों लोगों को बरसों तक रोजगार मिल सकेगा, पानी की किल्लत कम होगी और नई सम्पदा का भी निर्माण होगा।
चीन अपने यहां कोई परियोजना लगाता है तो किसी को आपत्ति का कोई कारण नहीं है। आपत्ति तब होती है जब दूसरों का हक ऐसी परियोजनाओं से मारा जाता है। ब्रह्मपुत्र पर अकेले चीन का अधिकार नहीं है। भारत, भूटान और बांग्लादेश का भी उतना ही अधिकार है। चीन से हमारी तनातनी और सीमा विवाद पुराने मसले हैं। दोनों देशों में पानी बंटवारे का कोई समझौता भी नहीं है। चीन ब्रह्मपुत्र का पानी रोकनेवाली योजनाएं बनाकर एशिया में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। इससे संघर्ष को ही न्यौता मिलेगा। दक्षिण चीन सागर को लेकर चीन से भारत की अनबन है ही। अंतरराष्ट्रीय अदालत ने इस पर चीन के खिलाफ फैसला दिया, लेकिन चीन ने उसे ठुकरा दिया है। ब्रह्मपुत्र के पानी को लेकर भी किसी अंतरराष्ट्रीय अदालत में मुकदमेबाजी को चीन बिल्कुल घास नहीं डालेगा। और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के चलते राष्ट्रसंघ या अंतरराष्ट्रीय अदालत कुछ नहीं कर पाएगी।
अब केवल यही बचा है कि हम पर होने वाले विपरीत प्रभावों को हम किस तरह न्यूनतम करें। ये प्रभाव निम्न तरीके के हो सकते हैं-
१. इन बांधों के जरिए चीन भारत और बांग्लादेश में ब्रह्मपुत्र के पानी के बहाव को नियंत्रित कर सकेगा। यदि किसी समय इन बांधों में बेहद पानी जमा हो जाता है, दबाव से टूट जाने जैसी कोई दुर्घटना होती है तो उसके भीषण परिणाम भारत को भोगने पड़ेंगे। ऐसी अप्रत्याशित बाढ़, जिसे अंग्रेजी में फ्लैश फ्लड कहते हैं, यदि आ जाने से विश्व में कई भीषण दुर्घटनाएं पहले ही घट चुकी हैं।
२. यदि नई परियोजना के तहत चीन शिंजियांग की ओर पानी मोड़ता है तो भारत पर उसके दूरगामी और दीर्घावधि परिणाम होंगे। सबसे पहला परिणाम तो हमारे जल-परिवहन पर होगा। असम में सादिया से धुब्री तक ब्रह्मपुत्र में ८९० किमी का राष्ट्रीय जलमार्ग-२ विकसित किया जा रहा है। जल परिवहन के लिए सादिया से डिब्रुगड़ तक नदी पात्र में कम से कम १.५ मीटर पानी होना चाहिए। उसके आगे धुब्री तक २ मीटर गहराई की जरूरत होगी। भले प्रवाह न रोका गया हो, परंतु पनबिजली के लिए टर्बाइन चलाने के लिए जब पानी का इस्तेमाल होगा तब उसके प्रवाह की गति पर असर होना ही है। इससे निचले इलाके में पनबिजली परियोजनाएं लगाने के भारत के प्रयासों में अड़चन पैदा होगी। यही नहीं ब्रह्मपुत्र घाटी में बसे करोड़ों लोगों के जनजीवन पर इसका गहरा और विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
३. नदी जल विवाद पर राष्ट्रसंघ के नियमों के अंतर्गत प्रवाह के निचले इलाके के देशों को बांध बनाने की छूट होगी। इसी को ध्यान में रखते हुए भारत ने ३७ हजार मेगावाट की ७६ पनबिजली परियोजनाओं का खाका बनाया था। लेकिन विभिन्न कारणों से इस दिशा में प्रगति नहीं हो सकी। जलवायु परिवर्तन और तकनीकी दिक्कतों के कारणों को आगे बढ़ाते हुए कई स्वयंसेवी संगठनों ने इसका विरोध किया है।
४. भारत और चीन के बीच कोई जल समझौता नहीं है। राष्ट्रसंघ प्रस्ताव के अनुसार निचले इलाकों के देशों के हितों की रक्षा करना चीन का कर्तव्य है। चीन से पानी के बारे में आंकड़ें मुहैया करने के २००८ और २०१० में दो समझौते हो चुके हैं। उसे १ जून व १५ अक्टूबर को पानी की स्थिति के बारे में भारत को आंकड़े देने होते हैं। कुछ साल यह ठीक चला, लेकिन अब तो तकनीकी कारण बताकर वह भी बंद कर दिया गया है।
५. ब्रह्मपुत्र पर बांध, नहरें, पनबिजली व पानी वितरण प्रणालियां कायम कर चीन इसका राजनीतिक अस्त्र के रूप में भी उपयोग कर सकता है। दोनों देशों में युद्ध की स्थिति में भारत को इसका बहुत नुकसान सहना पड़ेगा और पूर्वोत्तर भारत को नए संकट का सामना करना पड़ेगा।
६. चीन अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा करता रहा है, जबकि भारत १९१४ की संधि के तहत अरुणाचल को अपना अविभाज्य अंग मानता है। ब्रह्मपुत्र के अरुणाचल के ऊपरी इलाके में बांध बनवाकर चीन अपने दावे को पुष्ट करना चाहता है। इससे संघर्ष को और बढ़ावा मिलेगा। उसका डोकलाम में घुसने का असफल प्रयास इसी पृष्ठभूमि में है।
७. चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। नेहरू के जमाने के पंचशील समझौते और ‘हिंदी चीनी भाई भाई’ के नारे के बावजूद चीन ने १९६२ में भारत पर हमला किया था। जब झांगबो पर पहले विशाल बांध की नींव रखी जानी थी, तब भी चीन ने इन खबरों का खंडन किया था। अंत में जब वह बनना शुरू हुआ तब उसने कबूल किया, लेकिन यह कह दिया कि यह छोटा सा बांध है, कुछ सहायक नदियों पर हैं आदि। इस खबर का भंडाफोड़ हांगकांग के ‘साउथ चायना मार्निंग पोस्ट’ ने किया था। २००९ में झांगबो की सहायक नदी शियाबुकु पर पहले विशाल बांध के निर्माण की योजना के समय भी चीन झूठ बोला कि ऐसा कुछ नहीं है। जो भी है वह झांगबो (ब्रह्मपुत्र) पर नहीं, उसकी सहायक नदी पर है और वह झांगबो में केवल ०.२% पानी ही उलीचती है। इस बार तिब्बत के संगरी जिले में झांगबो पर विशालकाय परियोजना बन रही है। हांगकांग के उसी ‘साउथ चायना मार्निंग पोस्ट’ अखबार ने पुनः २९ अक्टूबर के अंक में इस नई परियोजना का ब्यौरा छापा। लगता है भारत में मीडिया ने इसको कोई महत्व नहीं दिया। पहले दिन कुछ छिटपुट छपा भी, लेकिन दूसरे दिन चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता हुआ चुनींग के खंडन के बाद इस बारे में कोई सामग्री नहीं छपी या किसी ने इन पंक्तियों के लिखने तक कोई छानबीन भी नहीं की। चीन के खंडन पर किसी का भरोसा नहीं है। प्रश्न यह है कि हांगकांग चीन का हिस्सा होने और वहां कम्युनिस्ट शासन होने के बावजूद इस अखबार ने इस खबर को छापने की हिम्मत कैसे की? लेकिन ध्यान में रखना चाहिए कि हांगकांग चीन को सौंपते समय ब्रिटेन ने यह शर्त रखी थी कि हांगकांग का मूल स्वरूप कायम रखा जाएगा। इसी कारण वहां कुछ मुक्तता है। फलस्वरूप चीन से मुक्ति के लिए वहां आंदोलन आदि भी होते रहते हैं। अतः वहां बहुत से अखबार चीनी अनुमति के बिना भी अन्य सूत्रों से मिली खबरों को प्रकाशित कर देते हैं। फिर भी, अखबार ने बड़ी सावधानी से खबर छापी है। उसका स्वरूप इस तरह का है कि लगे कि चीन की वाहवाही हो रही है।
अब भारत क्या कर सकता है? यूपीए शासन के दौरान ब्रह्मपुत्र पर पहले चीनी बांध बनने खबर उछली थी। तत्कालिन विदेश मंत्री एस. एम. कृष्णा चीन गए, लेकिन चीन ने एक न सुनी और उन्हें बैरंग लौटा दिया। हां, पानी के आंकड़ें मुहैया करने के बहाने लीपापोती कर दी। अब भारत के समक्ष यह चुनौती है कि चीन की पानी चोरी से प्रभावित दक्षिण पूर्व एशिया के देशों को इस मुद्दे पर एकत्रित करें और महाशक्तियों पर चीन की नकेल कसने के लिए दबाव बनाएं। यह कूटनीतिक और प्रदीर्घ चलनेवाली प्रक्रिया है। लेकिन चीन से एक बात सीखने लायक अवश्य है कि वह किस तरह अपने देश में पानी का संजाल कायम कर रहा है और हम नदी-जोड़ परियोजना पर महज बहस पर बहस करते जा रहे हैं।

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