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आतंरिक कलह से गिरी कर्नाटक सरकार

आतंरिक कलह से गिरी कर्नाटक सरकार

by हिंदी विवेक
in देश-विदेश, राजनीति
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चौदह माह पहले केवल भाजपा को सत्ता में आने से रोकने वाली जनतादल (सेकुलर) और कांग्रेस के गठबंधन की सरकार के पतन होने की इबारत तो उसी समय लिख दी गई थी।

14 माह बाद विश्वास प्रस्ताव पर बहस में हिस्सा लेते हुए पूर्व मुख्यमंत्री एवं कांग्रेस विधायक दल के नेता सिद्दरामय्या को ज्ञानोदय हुआ कि “राजनीति में कोई किसी का नहीं होता है कोई सिद्धांत तत्व पर चलने वाला नहीं होता।“ उन्होंने यह भी कहा कि यदि असंतुष्ट पार्टी में वापस आना भी चाहेंगे तो उन्हें नहीं लिया जाएगा। सिद्दरामय्या ने व्हिप का उल्लंघन करने वाले असंतुष्टों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए विधानसभा अध्यक्ष से अपील की है।

पिछले 6 दिनों से विश्वास प्रस्ताव पर किए जाने वाले बहसीय नाटक का पटाक्षेप सरकार के पतन से हुआ। 6 जुलाई से शुरू हुई असंतुष्टों की गतिविधियों ने दोनों ही दलों के नेताओं को इतना मजबूर कर दिया कि वे विधानसभा में विश्वास प्रस्ताव लेकर आए। यदि सत्तारूढ़ दल ऐसा नहीं करते तो भाजपा अविश्वास प्रस्ताव को लाने का मन बनाकर बैठी हुई थी।

असंतुष्टों  द्वारा गठबंधन सरकार के विरुद्ध शुरू की गई मुहीम 18 वें दिन सरकार के पतन से पूरी हुई।

चौदह माह बाद कर्नाटक में जद(सेकुलर) और कांग्रेस ने सत्ता पर काबिज होने के लिए चुनी गई सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के खिलाफ गठबंधन किया था। उस समय देश की 21 विपक्षी पार्टियों ने मुख्यमंत्री कुमारास्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में हिस्सा लिया था और घोषणा की थी कि हम मोदी और भाजपा की तानाशाही के खिलाफ यहाँ एकत्र हुए हैं। जिन पार्टियों के नेता उस समय जनता की मनोभावना के विरुद्ध एकत्र हुए थे आज उन सभी लोगों की पार्टियां लोकसभा चुनाव के बाद राजनीतिक हाशिए पर चली गई हैं और अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। चंद्रबाबु नायडू, मायावती, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल,काँग्रेस, एनसीपी, नेशनल कांफ्रेंस, सभी कम्युनिस्ट पार्टियां, ममता बनर्जी की राजनीति में गिरती हुई ग्राफ को देखकर पता चल जाता है।

कर्नाटक की राजनीति में गठबंधन की सत्ता में भागीदारी का दौर 2004 के विधानसभा चुनाव के बाद ही शुरू हुआ। जब कांग्रेस को जद(से) ने समर्थन दिया और सरकार में भी शामिल हुई। 20 माह बाद जनतादल के तत्कालीन राज्याध्यक्ष कुमारास्वामी की मुख्यमंत्री बनने की चाहत के कारण समर्थन वापस लिया गया और गठबंधन की सरकार अल्पमत में आ गई । उसके बाद कुमारास्वामी, भाजपा के साथ मिलकर 20-20 माह सत्ता में बने रहने का वादा कर मुख्यमंत्री बने। परंतु 20  माह के पूरा होने के साथ ही भाजपा को सत्ता सौंपने में पीछे हट गए, विश्वासघात के आरोप लगने लगे तो भाजपा के येड्डीयूरप्पा को मुख्यमंत्री की शपथ तो दिलवा दी परंतु विधानसभा में विश्वासमत प्रस्ताव पर सरकार का समर्थन नहीं किया और एक सप्ताह के अंदर ही भाजपा-जद(से) की गठबंधन सरकार गिर गई।

दोनों ही राष्ट्रीय दलों ने क्षेत्रीय दल कहें या एच.डी.देवेगौड़ा की पारिवारिक पार्टी जनता दल(से) के साथ गठबंधन में शामिल होकर सत्ता में बने रहने की कोशिश की, परंतु 2008 में विधानसभा चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला और फिर एक बार आया राम- गया राम ने जोर पकड़ लिया। भाजपा को केवल 110 पर संतोष कर निर्दली सदस्यों के सहारे सत्ता पर पहुंचना पड़ा। 2008 में भाजपा ने पहली बार गठबंधन न कर कर्नाटक में सरकार की रचना की और इसे भाजपा के लिए दक्षिण में प्रवेश द्वार कहा जाने लगा।

2013 में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिला और पूरे पांच साल सरकार चली। जनता दल 2008 से 2013 तक न तो किसी गठबंधन का हिस्सा ही बन पाई और न ही विपक्षी नेता का पद ही उसके खाते में आया। लेकिन 2018 के चुनाव में मतदाताओं ने 224 सदस्यों वाली विधान सभा में भाजपा को 104 सदस्यों वाली सबसे बड़ी पार्टी तो बनाई परन्तु सत्ता में आने के लिए वह 9 अंकों से पीछे रह गई।

2013 की राजनीति में पुनः गठबंधन का खेल खेला गया। जब भाजपा को सरकार बनाने का न्यौता देकर राज्यपाल ने उसे 15 दिनों में सदन में अपना विश्वास मत हासिल करने को कहा तो कांग्रेस और जद(से) ने उच्चतम न्यायालय में राज्यपाल के आदेश के विरुद्ध अपील की, कि इससे विधायको की खरीद फरोख्त को “हार्स ट्रेडिंग” को बढ़ावा मिलेगा, उच्चतम न्यायालय ने विश्वासमत हासिल करने की समय सीमा 15 से घटाकर 1 दिन कर दी। सदन में विश्वासमत पर मतदान शुरू होने के पहले ही मुख्यमंत्री येड्डीयूरप्पा ने अपना त्यागपत्र राज्यपाल को सौंप दिया।

उसके बाद कांग्रेस के वरिष्ठ और राज्यसभा में विपक्षी नेता गुलामनबी आजाद ने कुमारास्वामी को मुख्यमंत्री बनने का न्यौता दिया। विधानसभा में सबसे कम 37 सीटों वाली जद(से)के नेता कुमारास्वामी मुख्यमंत्री बने।

14 माह पहले भाजपा के विरोध में बने गठबंधन की सरकार का पतन मुख्यमंत्री द्वारा विधानसभा में विश्वासमत प्रस्ताव प्रस्तुत करने के 6वें दिन मतदान में 6 मतों से गिर गया। विश्वासमत के सर्मथन में 99 और विरुद्ध 105 मत पड़े।

गठबंधन सरकार के भविष्य के प्रति न तो कांग्रेस ही आश्वस्त था और न ही जद (से)। मुख्यमंत्री और मंत्रिमंडल के गठन की प्रक्रिया में लगभग 1 माह से ऊपर का समय लगा। कांग्रेस के दिग्गज नेताओं को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया। सरकार की कार्यशैली को लेकर दोनों ही दलों की ओर से आरोप और प्रत्यारोप लगाए जाने का सिलसिला ही चलाया जाता रहा। दोनों ही दलों की मजबूरी थी कि यदि उन्होंने सरकार नहीं बनाई तो पार्टी के विधायक भाजपा में शामिल हो जाएंगे।

लेकिन पार्टी से विद्रोह को दोनों ही दलों के नेता रोक नहीं पाए। मंत्रिमंडल की बंदरबांट और निगमों और अन्य सार्वजनिक संस्थाओं के अध्यक्षों की नियुक्तियों को लेकर जिस तरह से उठापटक शुरू हुई उसका भी असर गठबंधन की सरकार पर पड़ना ही था।

रमेश जारकी होली बेलगाम जिले के एक महत्वपूर्ण नेता हैं, जिन्हें कांग्रेस ने मंत्रिमंडल में शामिल नहीं कराया, जारकी होली कांग्रेस विधायक दल के नेता पूर्व मुख्यमंत्री सिद्दरामय्या के खास माने जाते रहे हैं। वे आंतरिक तौर पर कांग्रेस के उन बागी विधायकों की पहचान करते रहे जो विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे सकें। इस सन्दर्भ में वे सफल भी रहे। असंतुष्टों की इस्तीफे की रणनीति परवान तब चढ़ी जब, 1 जुलाई को आनंद सिंह जो भाजपा से पालाबदल कर कांग्रेस में आए थे, उन्होंने विधान सभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया।

1 जुलाई 2019 का दिन गठबंधन सरकार की ताबूत में कील जड़ने वाला दिन बन गया।नेतृत्वहीन कांग्रेस ने विद्रोह की चिंगारी को पहचानने की कोशिश ही नहीं की। वे यही समझते रहे कि व्हिप जारी करने की धमकी देकर वे असंतुष्टों को दबाते रहेंगे। राज्य के कद्दावर नेता डी के शिवकुमार और सिद्दरामय्या यह मानकर चलते रहे कि यदि कोई पार्टी के विरुद्ध गतिविधियों में शामिल होगा तो उसके खिलाफ कार्रवाई होगी। 1 जुलाई से 6 जुलाई के बीच 5 दिन के दौरान कांग्रेस के 7 और जद(से) के 3 विधायकों ने अपना त्यागपत्र विधानसभा अध्यक्ष को सौंप दिया। और मुम्बई चले गए। इसके बाद 4 अन्य विधायकों ने भी अपना त्यागपत्र विधानसभा अध्यक्ष को सौंप दिया। मुम्बई गए विधायकों ने उच्चतम न्यायालय में अपील की कि वह विधानसभा अध्यक्ष को उनका इस्तीफा स्वीकार करने के लिए निर्देश जारी करें। इसके पूर्व ही मुख्यमंत्री कुमारा स्वामी ने विधान सभा में विश्वासमत प्रस्ताव पेश करने के लिए विधानसभा अध्यक्ष से अनुमति ली।

मुख्यमंत्री कुमारास्वामी ने विश्वास प्रस्ताव पर अपने भाषण के दौरान यह स्वीकार किया कि विश्वास प्रस्ताव पर मतदान 6 दिनों तक लगातार टालते रहने का एकमात्र कारण यही था कि जो भी असंतुष्ट विधायक हैं वे लौटकर आ जाएं और विश्वास प्रस्ताव के समर्थन में अपना मत दे। इन असंतुष्ट विधायकों को मंत्री बनाने का लालच भी दिया गया। परंतु असंतुष्टों पर इसका कोई असर नहीं हुआ। गठबंधन दलों के आंतरिक कलह का लाभ यदि भाजपा को मिले तो इसे लोकतंत्र की हत्या कैसे कहा जा सकता है।

                  वेणुगोपालन

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