ईरान को लेकर दो हिस्सों में विभाजित दुनिया

अमेरिका के ईरान के साथ हुए परमाणु समझौते से अलग हो जाने के बावजूद रूस, चीन, फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी अभी भी इस समझौते से सहमत हैं। इसीलिए ईरान भी अमेरिका के खिलाफ तल्ख तेवर अपनाए हुए है। इसीलिए दुनिया को लग रहा है कि कहीं जंग का सिलसिला शुरू न हो जाए?

ईरान और अमेरिका के बीच बढ़ते तनाव के कारण दुनिया दो हिस्सों में विभाजित होती दिख रही है। चिंता की बात यह है कि दोनों ही तरफ परमाणु शक्ति से संपन्न देश हैं। इन देशों के बीच जबरदस्त गुटबंदी है। लिहाजा यदि जरा सी भी चूक होती है तो यह वैश्विक जंग के परिणाम में बदल सकती है। यह आशंका इसलिए कहीं ज्यादा है, क्योंकि ईरान के परिप्रेक्ष्य में जहां अमेरिका और रूस आमने-सामने हैं, वहीं दुनिया के ज्यादातर देश इनमें से किसी एक देश का पक्ष लेते नजर आ रहे हैं। हालांकि भारत और चीन अब तक दुविधा में हैं, इन देशों ने किसी एक देश के समर्थन में आ जाने का कोई बयान अब तक नहीं दिया है। ईरान द्वारा अमेरिका का ड्रोन मार गिराए जाने के बाद अमेरिका ने ईरान को सबक सिखाने की धमकी दी है, वहीं रूस ने अमेरिका को नसीहत देते हुए हुंकार भरी है कि यदि अमेरिका ईरान पर आक्रमण करता है तो रूस शांति का टापू नहीं बना रहेगा। इस बयान के बाद अमेरिकी विदेश मंत्री माईक पोंपियों ईरान से समझौते की कोशिश में लगे हैं। इसी का परिणाम है कि अमेरिका और रूस जेनेवा में इकट्ठे हुए और परमाणु हथियारों की संख्या सीमित करने से जुड़ी संधि पर विचार किया। हालांकि इसके अभी कारगर नतीजे सामने नहीं आए हैं।

ईरान से कच्चा तेल खरीदने को लेकर अमेरिका ने भारत सहित चीन, जापान, इटली, ग्रीस, दक्षिण कोरिया, ताईवान और तुर्की को भी नहीं बख्शा है। इन देशों को ईरान से तेल नहीं खरीदने की हिदायत दी हुई है। एक तरह से यह अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मनमानी है। दरअसल पिछले साल ट्रंप ने ईरान के साथ हुआ परमाणु समझौता रद्द कर दिया था और उसके साथ ही उसके तेल आयात पर प्रतिबंध लगा दिए थे। बावजूद ट्रंप ने भारत समेत 8 देशों को छह महीने की छूट दे दी थी। इससे यह आभास हुआ था कि अमेरिका की ईरान से जो कटुता बढ़ रही है, उससे अमेरिका के मित्र देशों को नुकसान नहीं होगा। लेकिन प्रतिबंध की शर्त को लेकर अमेरिका ने जो सख्त रुख अपना लिया है, उससे जाहिर होता है कि अमेरिका ईरान को बर्बाद करने पर तुल गया है। हालांकि अमेरिका की धमकी को ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, चीन, रूस और यूरोपीयन यूनियन ने दरकिनार किया हुआ है। भारत और चीन तटस्थ हैं। अकेला इजराइल ऐसा देश है, जो युद्ध के मुद्दे पर अमेरिका के साथ है। यही वजह है कि युद्ध अब तक टला हुआ है। बावजूद दुनिया पर विश्व युद्ध का संकट मंडरा रहा है।

अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में लगातार इजाफा हो रहा है। नतीजतन पेट्रोल, डीजल और घरेलू गैस के दाम घटने की बजाय बढ़ने की नौबत आ गई है। वैश्विक बाजार में कच्चे तेल का भाव 71 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर पहुंच गया है, जो 2014 के बाद अब तक का सबसे ऊपरी स्तर है। इन कीमतों का असर सेंसेक्स पर भी पड़ा है। वह 495 अंक नीचे गिर गया है। ईरान से चीन के बाद सबसे ज्यादा तेल भारत खरीदता है। इसीलिए चीन और भारत अमेरिका के ईरान से झगड़े को लेकर दुविधा में हैं। साल 2017-18 में भारत ने ईरान से 2.26 करोड़ टन कच्चे तेल खरीदा था। हालांकि प्रतिबंध लागू होने के बाद इसकी मात्रा घटा कर 1.50 करोड़ टन सालाना कर दी गई थी। यदि तेल के इस आयात पर पूरी तरह रोक लग जाती है तो डीजल, पेट्रोल, कैरोसिन और घरेलू ईंधन का कमी के साथ, दाम बढ़ने का संकट भी झेलना पड़ सकता है। साफ है, अमेरिका का यह फैसला भारत की अर्थव्यवस्था के लिए गंभीर संकट पैदा कर सकता है। दरअसल इस तेल संकंट की आहट तभी मिल गई थी, जब ट्रंप ने ईरान पर परमाणु समझौते के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए उसकी नाक में दम करना शुरू कर दिया था। यह समझौता बराक ओबामा के कार्यकाल 2015 में हुआ था, तब ईरान और सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों के बीच हुए समझौते के तहत ईरान यह शर्त मानने को तैयार हो गया था कि वह अपना परमाणु कार्यक्रम रद्द कर देगा।

भारत की दुविधा इसलिए है, क्योंकि भारत ने ईरान के साथ मधुर सांस्कृतिक व राजनीतिक द्विपक्षीय संबंधों के चलते चाबहार बंदरगाह विकसित किया। फारस की खाड़ी में खोजे गए बी-गैस क्षेत्र के विकास के अधिकार भी ईरान ने भारतीय कंपनी ओएनजीसी विदेश लिमिटेड को दिए हुए हैं। इसके अलावा ईरान के ऊर्जा संसाधनों पर भी भारत 20 अरब डॉलर खर्च कर रहा है। ईरान और भारत के बीच गैस पाइपलाइन बिछाने का प्रस्ताव भी लंबित है। यह लाइन पाकिस्तान होकर गुजरनी है, इसलिए लगता नहीं कि पूरी होगी। अमेरिका द्वारा ईरान से प्रतिबंध हटने के बाद भारत ने गैस व तेल के सिलसिले में कई समझौते किए हैं, जिसके तहत भारत ने बड़ी मात्रा में कच्चा तेल ईरान से ही खरीदना तय किया है।

भारत को अपनी खपत का लगभग 80 फीसदी तेल खरीदना पड़ता है। ईरान से तेल खरीदना सस्ता पड़ता है। यहां तेल की कीमत भी अमेरिकी डॉलर की बजाय रुपए में चुकानी होती है। दूसरी मुख्य बात यह है कि भारत के तेल शोधक संयंत्र ईरान से आयातित कच्चे तेल को परिशोधित करने के लिहाज से ही तैयार किए गए हैं। गोया, ईरान के तेल की गुणवत्ता श्रेष्ठ नहीं होने के बावजूद भारत के लिए लाभदायी है। किसी अन्य देश से तेल खरीदने में डॉलर से भुगतान करने की समस्या का संकट झेलना पड़ता है। इस भुगतान की पूरी बैकिंग प्रणाली अमेरिका के नियंत्रण में होने के साथ सभी बैकिंग चैनलों पर डॉलर का प्रभुत्व है। हालांकि विकल्प के तौर पर यूरोपीय संघ ने एक नई संस्था ‘इनस्टेक्स‘ बनाई हुई है। जिसके तहत यूरोप ईरान से सीधे आर्थिक लेनदेन कर सकता है। चीन भी ‘यूआन‘ का करोबार करता है। भारत भी ‘रुपए‘ से लेनदेन करता है, लेकिन उसकी अपनी सीमा है। अमेरिकी डॉलर की तुलना में रुपए का मूल्य कम होना भी भारतीय मुद्रा के लिए एक संकट है। इस द़ृष्टि से अमेरिका की ईरान को घेरने की मुहिम में भारत शामिल होता है तो उसे ऊर्जा संबंधी कठिनाइयों का सामना करना ही होगा।

एक वक्त था जब कच्चे तेल की कीमतें मांग और आपूर्ति से निर्धारित होती थीं। इसमें भी अहम् भूमिका ओपेक देशों की रहती थी। ओपेक देशों में कतर, लीबिया, सऊदी अरब, अल्जीरिया, ईरान, ईराक, इंडोनेशिया, कुवैत, वेनेजुएला, संयुक्त अरब अमीरात और अंगोला शामिल हैं। दरअसल अमेरिका का तेल आयातक से निर्यातक देश बन जाना, चीन की विकास दर धीमी हो जाना, शैल गैस क्रांति, नई तकनीक, तेल उत्पादक देशों द्वारा सीमा से ज्यादा उत्पादन, इलेक्ट्रोनिक ऊर्जा दक्ष वाहनों का विकास और इन सबसे आगे सौर ऊर्जा एवं बैटरी तकनीक से चलने वाले वाहन आ जाने से यह उम्मीद की जा रही थी कि भविष्य में कच्चे तेल की कीमतें कभी नहीं बढ़ेंगी।

भारत भी जिस तेजी से सौर ऊर्जा में आत्मनिर्भरता की और बढ़ रहा है, उसके परिणामस्वरूप कालांतर में भारत की तेल पर निर्भरता कम होने वाली है। किंतु अब देखने में आ रहा है कि समस्या यथावत है, ऐसे में भारत को आने वाले समय में दो चुनौतियों से एक साथ जूझना होगा। एक तो कच्चा तेल खरीदने का प्रबंध करना होगा। दूसरे अमेरिका से मधुर संबंध बनाए रखने की चुनौती भी पेश आएगी। ईरान भी तेल के बदले में भारत से अनेक वस्तुएं खरीदता है। यदि भारत ईरान से तेल खरीदना बंद कर देगा तो ईरान भी इन वस्तुओं की खरीददारी बंद कर सकता है? यदि विकासशील देशों ने एकजुट होकर अमेरिका का प्रतिकार नहीं किया तो उन्हें अमेरिकी मनमानियों से मुक्ति मिलने वाली नहीं है।

अमेरिका की ईरान से यह नाराजी इसलिए है, क्योंकि ईरान ने 2006 में पांच परमाणु संयंत्र स्थापित किए थे, इनमें से एक रूस की मदद से लगाया था। इसे लेकर अमेरिका और इजराइल ने ईरान से आंखें तरेर लीं। हालांकि ईरान बार-बार कह रहा है कि उसने ये परमाणु संयंत्र विद्युत ऊर्जा पैदा करने के लिए लगाए हैं, न कि परमाणु हथियार बनाने के लिए। दरअसल अमेरिका और इजराइल को शंका है कि ईरान बुशेर परमाणु संयंत्र में परमाणु बम बना रहा है। ईरान ने दुनिया को यह विश्वास दिलाने की केाशिशें भी कीं कि वह परमाणु संधि का कतई उल्लंघन नहीं कर रहा है। लेकिन अमेरिका और इजराइल की शंका बरकरार है, जबकि ईरान अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी को नियमित रिपोर्ट तो सौंप ही रहा है, तय समय-सीमा में परमाणु संयंत्र की जांच के लिए भी राजी है। इसीलिए अमेरिका के परमाणु समझौते से अलग हो जाने के बावजूद रूस, चीन, फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी अभी भी समझौते से सहमत हैं। इसीलिए ईरान भी अमेरिका के खिलाफ तल्ख तेवर अपनाए हुए है। इसीलिए दुनिया को लग रहा है कि कहीं जंग का सिलसिला शुरू न हो जाए?

 

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