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जम्मू – कश्मीर का हुआ सार्थक विभाजन

जम्मू – कश्मीर का हुआ सार्थक विभाजन

by प्रमोद भार्गव
in देश-विदेश
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जम्मू – कश्मीर का जम्मू – कश्मीर और लद्दाख के रूप में विभाजन ने उस पल सार्थकता ग्रहण कर ली जब इन केंद्र शासित प्रदेशों में उपराज्यपाल के रूप में राधाकृष्णन माथुर और गिरीश चंद्र मुर्मु ने शपथ – ग्रहण कर ली। इस अहम् पल के साथ ही अलग निशान और विधान का शासन खत्म हो गया, नतीजतन अब सही मायनों में कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत को भारतीय संविधान के कानूनी धागे में पुरो दिया गया है। क्योंकि अब यहां आधार, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, नियंत्रक और महालेखक परीक्षक, मुस्लिम विवाह विच्छेद, शत्रु संपत्ति कानून, मुस्लिम महिला सरंक्षण अधिनियम, भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम, सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, व्हिसल ब्लोअर समेत 108 केंद्रीय कानून अस्तित्व में आ जाएंगे। साथ ही इस राज्य को विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त होने के कारण जो 164 कानून यहां के लोगों को विशेष लाभ देते थे, वे रद्द हो जाएंगे। इस राज्य के पुराने कानूनों में से 166 कानून ही नए केंद्र शासित प्रदेशों में लागू होंगे। जो अधिकार देश की दूसरी ग्राम पंचायतों को प्राप्त थे, वे यहां लागू नहीं थे, जो अब लागू हो जाएंगे। कश्मीर में अल्पसंख्यक हिंदू और सिखों को मिलने वाला आरक्षण लागू नहीं था, लेकिन इस नई व्यवस्था के तहत ये संवैधानिक प्रावधान प्रभावशील हो जाएंगे। यहां सबसे बड़ा बदलाव यह होगा कि यहां की आधिकारिक भाषा उर्दु की जगह हिंदी हो जाएगी। जम्मू – कश्मीर देश का एकमात्र ऐसा राज्य था, जहां आधिकारिक भाषा उर्दु थी।

31 अक्टूबर के दिन ये केंद्र शासित प्रदेश सोच – समझकर अस्तित्व में लाए गए हैं। भारत के भौगोलिक राजनीतिक एकीकरण के सूत्रधार सरदार वल्लभ भाई पटेल की 31 अक्टूबर को 144 वीं जयंती है। पटेल ने ही विभाजन के रूप में मिली आजादी के बाद 562 भारतीय रियासतों का स्वतंत्र भारत में विलय कराया था। इन देशी रियासतों का स्वतंत्र भारत में विलय करना कठिन इसलिए हो रहा था, क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने इन्हें यह छूट दी थी कि वे भारत या पाकिस्तान किसी के भी साथ अपनी इच्छा से जा सकते हैं। या फिर स्वतंत्र रियासत के रूप में भी बने रह सकते हैं। भारत को खंडित बनाए रखने की यह अंग्रेजों की कुटिल चाल थी। दूसरी तरफ पाकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्ना भी इन रियासतों को लुभाने में लगे थे। देश के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल ने इन दुर्भावनाओं को भांप लिया और उस समय के वरिष्ठ नौकरशाह वीपी मेनन के साथ मिलकर सामंतों व नवाबों से बातचीत शुरू की। इन्हें विलय के बाद प्रिवीपर्सेंज के माध्यम से आर्थिक मदद देने का भी लालच दिया। तीन रियासत हैदराबाद, जूनागढ़ एवं जम्मू – कश्मीर को छोड़ अन्य रियासतों ने आसानी से विलय कर लिया। जूनागढ़ तो पटेल ने दबाव के चलते भारत में मिला लिया, किंतु हैदराबाद के निजाम अली खान आसिफ ने 15 अगस्त 1947 को ही हैदराबाद को स्वतंत्र देश बनाने की घोषणा कर दी। उस समय हैदराबाद का क्षेत्रफल इंग्लैंड और स्कॉटलैंड के कुल क्षेत्रफल से भी बड़ा था। हैदराबाद के पक्ष में सबसे बड़ी बात यह थी कि सेना के वरिष्ठ पदों पर मुस्लिम तैनात थे, लेकिन यहां की 85 प्रतिशत जनसंख्या हिंदू थी। बावजूद निजाम ने पाकिस्तान से हथियार खरीदना शुरू कर दिया। तब पटेल ने कठोर फैसला लेते हुए ‘ऑपरेशन पोलो‘ के तहत 13 सितंबर 1948 को सैनिक कार्यवाही शुरू कर दी। पांच दिन के भीतर ही 17 सितंबर को भारतीय सेना ने हैदराबाद को अपने अधीन कर लिया।

जम्मू – कश्मीर के विलय की जिम्मेवारी जवाहरलाल नेहरू ने ले रखी थी, वे इस क्षेत्र को भारत में विलय करा पाते इससे पहले ही पाकिस्तानी सेना के साथ कबाईलियों ने श्रीनगर पर हमला बोल दिया। बाद में भारतीय सेना भेजकर बमुश्किल इन कबाईलियों को खदेड़ा गया। शेख अब्दुल्ला के साथ हुए एक ‘दिल्ली समझौते‘ के तहत नेहरू ने इस राज्य को विशेष दर्जा दिया, इसी के तहत यहां दो निशान और दो विधान का शासन कायम हो गया, जो 5 – 6 अगस्त 2019 तक देश के गले में फांस बना रहा। अंतत: अनुच्छेद 370 और 35 – ए के खात्मे के बाद ही भारत के राजनीतिक मानचित्र में वर्तमान फेरबदल संभव हुआ। इस बदलाव के पीछे की मूल मंशा में यहां के नागरिकों में अमन और चैन कायम करने के साथ अलगाववादियों और आतंकियों के मंसूबों पर पानी फेरना भी नरेंद्र मोदी सरकार की मंशा है। इसीलिए गुजरात के केवाड़िया में प्रधानमंत्री मोदी ने बोलते हुए कहा है कि ‘ये व्यवस्थाएं जमीन पर लकीर खींचने के लिए नहीं हैं, बल्कि विश्वास के संबंध बनाने की सार्थक पहल हैं।‘ पाकिस्तान का नाम लिए बिना मोदी ने आगे कहा, ‘बावजूद देश पर होने वाले हर हमले को परास्त करेंगे और दुश्मन को मुंहतोड़ जवाब देंगे।‘

पुनर्गठन विधेयक – 2019 के लागू होने के बाद इस राज्य राज्य की भूमि का ही नहीं राजनीति का भी भूगोल बदलेगा। इसके साथ ही विधानसभा सीटों के परिसीमन के जरिए राजनीतिक भूगोल बदलने की कोशिश भी होगी। नए सिरे से परिसीमन व आबादी के अनुपात में जम्मू – कश्मीर की नई विधानसभा का जो आकार सामने आएगा, उसमें सीटें घट अथवा बढ़ सकती हैं। बंटवारे के बाद जम्मू – कश्मीर और लद्दाख केंद्र शासित राज्य हो गए है। दोनों जगह दिल्ली व चंडीगढ़ की तरह की तरह मजबूत उप राज्यपाल सत्ता – शक्ति के प्रमुख केंद्र के रूप में अस्तित्व में आ गए हैं। लद्दाख में विधानसभा नहीं होगी। परिसीमन के लिए आयोग का गठन किया जाएगा। यह आयोग राजनीतिक भूगोल का अध्ययन कर रिपोर्ट देगा। आयोग राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में मौजूदा आबादी और उसका विधान व लोकसभा एवं विधानसभा क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व का आकलन करेगा। साथ ही राज्य में अनुसूचित व अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों को सुरक्षित करने का भी अहम् निर्णय लेगा। परिसीमन के नए परिणामों से जो भौगोलिक, सांप्रदायिक और जातिगत असमानताएं हैं, वे दूर होंगी। नतीजतन जम्मू – कश्मीर व लद्दाख क्षेत्र नए उज्जवल चेहरों के रूप में पेश आएंगे।

जम्मू – कश्मीर का करीब 60 प्रतिशत क्षेत्र लद्दाख में है। इसी क्षेत्र में लेह आता है, जो अब लद्दाख की राजधानी होगी। यह क्षेत्र पाकिस्तान और चीन की सीमाएं साझा करता हैं। बीते सत्तर साल से लद्दाख कश्मीर के शासकों की बद्नीयति का शिकार होता रहा है। अब तक यहां विधानसभा की मात्र चार सीटें थी, इसलिए राज्य सरकार इस क्षेत्र के विकास को कोई तरजीह नहीं देती थी। लिहाजा आजादी के बाद से ही इस क्षेत्र के लोगों में केंद्र शासित प्रदेश बनाने की चिंगारी सुलग रही थी। 70 साल बाद इस मांग की पूर्ति हो गई है। इस मांग के लिए 1989 में लद्दाख बुद्धिस्ट एसोशिएशन का गठन हुआ और तभी से यह संस्था कश्मीर से अलग होने का आंदोलन छेड़े हुए थी। 2002 में लद्दाख यूनियन टेरेटरी फ्रंट के अस्तित्व में आने के बाद इस मांग ने राजनीतिक रूप ले लिया था। 2005 में इस फ्रंट ने लेह हिल डेवलपमेंट काउंसिल की 26 में से 24 सीटें जीत ली थीं। इस सफलता के बाद इसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। इसी मुद्दे के आधार पर 2004 में थुप्स्तन छिवांग सांसद बने। 2014 में छिवांग भाजपा उम्मीदवार के रूप में लद्दाख से फिर सांसद बने। 2019 में भाजपा ने लद्दाख से जमयांग सेरिंग नामग्याल को उम्मीदवार बनाया और वे जीत भी गए। लेह – लद्दाख क्षेत्र अपनी विषम हिमालयी भौगोलिक परिस्थितियों के कारण साल में छह माह लगभग बंद रहता है। सड़क मार्गों व पुलों का विकास नहीं होने के कारण यहां के लोग अपने ही क्षेत्र में सिमटकर रह जाते हैं।

जम्मू – कश्मीर में अंतिम बार 1995 में परिसीमन हुआ था। राज्य का संविधान कहता है कि हर 10 साल में परिसीमन जारी रखते हुए जनसंख्सा के घनत्व के आधार पर विधान व लोकसभा क्षेत्रों का निर्धारण होना चाहिए। परिसीमन का यही समावेशी नजारिया है। जिससे बीते 10 साल में यदि जनसंख्यात्मक घनत्व की द़ृष्टि से कोई विसंगति उभर आई है, तो वह दूर हो जाए और समरसता पेश आए। इसी आधार पर राज्य में 2005 में परिसीमन होना था, लेकिन 2002 में तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला ने राज्य संविधान में संशोधन कर 2026 तक इस पर रोक लगा दी थी। इस हेतु बहाना बनाया कि 2026 के बाद होने वाली जनगणना के प्रासंगिक आंकड़े आने तक परिसीमन नहीं होगा।

फिलहाल जम्मू – कश्मीर में विधानसभा की कुल 111 सीटें हैं। इनमें से 24 सीटें पाक अधिकृत कश्मीर क्षेत्र में आती हैं। इस उम्मीद के चलते ये सीटें खाली रहती हैं कि एक न एक दिन पीओके भारत के कैंजे में आ जाएगा। फिलहाल बाकी 87 सीटों पर चुनाव होता है। इस समय कश्मीर यानी घाटी में 46, जम्मू में 37 और लद्दाख में 4 विधानसभा सीटें हैं। 2011 की जनगणना के आधार पर राज्य में जम्मू संभाग की जनसंख्या 53 लाख 78 हजार 538 है। यह प्रांत की 42.89 प्रतिशत आबादी है। राज्य का 25.93 फीसदी क्षेत्र जम्मू संभाग में आता है। इस क्षेत्र में विधानसभा की 37 सीटें आती हैं। दूसरी तरफ कश्मीर घाटी की आबादी 68 लाख 88 हजार 475 है। प्रदेश की आबादी का यह 54.93 प्रतिशत भाग है। कश्मीर संभाग का क्षेत्रफल राज्य के क्षेत्रफल का 15.73 प्रतिशत है। यहां से कुल 46 विधायक चुने जाते हैं। इसके अलावा राज्य के 58.33 प्रतिशत वाले भू-भाग लद्दाख में संभाग में महज 4 विधानसभा सीटें थीं, जो अब लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद विलोपित हो जाएंगी। साफ है, जनसंख्यात्मक घनत्व और संभागवार भौगोलिक अनुपात में बड़ी असमानता है, जनहित में इसे दूर किया जाना, एक जिम्मेवार सरकार की जवाबदेही बनती है। परिसीमन के बाद अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए भी सीटों के आरक्षण की नई व्यवस्था लागू हो जाएगी। फिलहाल कश्मीर में एक भी सीट पर जातिगत आरक्षण की सुविधा नहीं है, जबकि इस क्षेत्र में 11 प्रतिशत गुर्जर बकरवाल और गद्दी जनजाति समुदायों की बड़ी आबादी निवास करती है। जम्मू क्षेत्र में सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं, लेकिन इनमें आजादी से लेकर अब तक क्षेत्र का बदलाव नहीं किया गया है। बहरहाल अब इन केंद्र शासित प्रदेशों में कई ऐसे बदलाव देखने में आएंगे, जो यहां के निवासियों के लिए समावेशी होने के साथ लाभदायी भी साबित होंगे।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।

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