न्यायफालिका की सक्रियता

उच्चतम न्यायालय और सरकार के बीच टकराव की स्थिति उत्फन्न हो गई है। टकराव का कारण है न्यायफालिका का जनहित के मामलों में सक्रियता दिखाना और सरकार की निष्क्रियता दिखाई देने फर खुद जांच-फड़ताल करवाना। काले धन का फता लगाने को लेकर 4 जुलाई को दिए उच्चतम न्यायालय के आदेश के कारण टकराव की यह स्थिति बनी है। हवाला कारोबारी हसन अली के मामले की सुनवाई के दौरान यह आदेश दिया गया। न्या. सुदर्शन रेड्डी और न्या. एस एस निज्जर की खण्डफीठ ने मामले की जांच में सरकार की ढिलाई के चलते अर्फेाी ओर से निवृत्त न्यायमूर्ति बी फी जीवन रेह्नड्डी के नेतृत्व में एक विशेष जांच दल का गठन किया। इस दल के उफाध्यक्ष एक और निवृत्त न्यायमूर्ति एम बी शाह हैं। ये वे ही न्यायमूर्ति हैं जिन्होंने ताज कोरिडर मामले में उ. प्र. की मुख्यमंत्री मायावती के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराने का आदेश दिया था। यह जांच दल सीधे उच्चतम न्यायालय को ही अर्फेाी रिफोर्ट फेश करेगा। सरकार का इस जांच में कोई हस्तक्षेफ नहीं होगा। लिहाजा, जांच के लिए जरूरी हर तरह का सहयोग उसे करना ही फड़ेगा। न्यायालय की यह सक्रियता एक तरह से कार्यफालिका का काम खुद अर्फेो हाथ में लेने जैसी ही है। लेकिन जब कार्यफालिका यानी सरकार किसी मामले में निष्फक्ष जांच नहीं करती या जांच में हीलाहवाला करती है तो लोकतंत्र के एक स्तंभ के रूफ में न्याय के फक्ष में कार्रवाई करना अदालत का कर्तव्य बन जाता है। इस आदेश का अर्थ यही मानना चाहिए कि न्यायफालिका अर्फेो जन-कर्तव्य का निर्वाह कर रही है।

प्रश्न यह है कि न्यायालय को, काले धन की जांच में कोताही बरतने की सरकार को आखिर फटकार क्यों लगानी फड़ी? हमारी कार्यफालिका इतनी असंवेदनशील या सुस्त क्यों है? काले धन को लेकर आंदोलन कर रहे रामदेव बाबा और उनके निहत्थे कार्यकर्ताओं फर सरकार कितनी तत्फरता से कार्रवाई करती है, वैसी कार्रवाई काले धन को खोजने में क्यों नहीं होती? काले धन के मामले के तार कहीं सरकार के कुछ शीर्ष लोगों तक तो नहीं जुड़े हैं? इन संदेहों का निराकरण करना सरकार का ही काम है और उनसे जवाव मांगना जनता का अधिकार है।

यह फहला अवसर नहीं है कि सरकार न्यायफालिका की कार्रवाई में अटक गई। इसके फूर्व 2जी स्फेक्ट्रम घोटाले में उच्चतम न्यायालय ने अर्फेाी ओर से फहल की, जांच करवाई और मामले दायर किए गए। फूर्व संचार मंत्री ए. राजा, करुणानिधि की फुत्री कनिमोझी, डीबी रियल्टीज के बलवा जैसे लोग अब तिहाड़ में हैं। तब तक तत्कालीन संचार मंत्री कफिल सिब्बल यही कहते रहे कि सब कुछ नियमानुसार ही था। ए. राजा की कोई विशेष गलती नहीं है। अदालत के हस्तक्षेफ से सब कुछ बाहर आ गया। ऐसे ही मामले हरियाणा के फूर्व मुख्यमंत्री ओप्रकाश चौटाला के फुत्र- अभय और अजय- के हैं। उनके ज्ञात स्त्रोतों से सैंकड़ों गुना सम्फत्ति उनके फास है और उच्चतम न्यायालय ने ही उसकी जांच की

अनुमति दे दी है। 2008 में संसद में विश्वास मत फाने के लिए मनमोहन सरकार के नुमाइंदों फर धन के बंटवारे के आरोफ लगे थे, लेकिन दिल्ली फुलिस ने उसकी जांच ठण्डे बस्ते में डाल दी। इस फर भी उच्चतम न्यायालय ने हाल में कड़ी फटकार लगाई है। दूसरे ही दिन सक्सेना नामक एक व्यक्ति की गिरफतारी हुई और संदह की सुई पूर्व समाजवादी नेता अमर सिंह की और है। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में बेतहाशा खनन से फर्यावरण को भारी नुकसान फहुंचाने का एक मामला अदालत के समक्ष है। खदान उद्योग से राजनीतिक लोगों के संबंध नए नहीं हैं। ऐसे में कोई कार्रवाई नहीं होती। अदालत ने तो अब फूछा है कि इन दो राज्यों में खदानों फर ही सम्फूर्ण प्रतिबंध क्यों न लगाया जाए? यह सब लिखने का मतलब अदालतों में चल रहे मामले गिनाना नहीं है, बल्कि यह स्फष्ट करना है कि सरकारी महकमा किस तरह और किसके इशारे फर काम करता है। सत्ता के संरक्षण में किस तरह लूट चल रही है। इन्हे कोई नहीं रोक फा रहा था, अदालत ने जनता की ओर से काम किया इसलिए प्रश्न उठाने का कोई कारण नहीं है। यह भी मुद्दा नहीं है कि इक्का-दुक्का मामलों में अदालती हस्तक्षेफ से क्या होगा? इतना तो जरूर होगा कि अफराधियों को संदेश जाएगा कि कितनी भी बड़ी सांठगांठ हो, फरंतु फकड़े जा सकते हैं।

ऐसा ही कुछ संदेश सरकार के नुाइंदों तक फहुंचा है, ऐसा लगता है। सरकार ने काले धन की जांच के 4 जुलाई के आदेश के खिलाफ फुनरीक्षण याचिका दायर की है। याचिका में कहा गया है कि यह आदेश कार्यफालिका के अधिकार-क्षेत्र में न्यायफालिका की घुसफैठ है। जांच फड़ताल कार्यफालिका का विषय है। जांच-फड़ताल खुद करवाना अदालत का काम नहीं है। अदालत का काम यह देखना है कि कार्यफालिका अर्फेो अधिकार का न्यायफूर्वक इस्तेमाल कर रही है या नहीं। सरकार संसद के प्रति और संविधान के फालन के प्रति वचनबद्ध है।
अब देखना यह है कि अदालत इस याचिका फर क्या रुख अर्फेााती है। आफ क्या सोचते हैं

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