आत्मनिर्भर भारत की बुनियाद नई शिक्षा नीति

भारत विविधता के रंगों से सजा राष्ट्र है। यहाँ हर कुछ कोस पर बोली भी बदल जाती है, मौसम भी, भोजन भी। इन तमाम विविध रहन-सहन और बोली-भाषा के बावजूद यह राष्ट्र अनूठी एकता की डोर से सदैव बंधा हुआ, विश्व गुरु के रूप में जाना जाता था। एक समय था जब भारतवर्ष की समग्र शिक्षा प्रणाली का डंका पूरे विश्व में बजता था। उत्तर में तक्षशिला थी तो पूर्व की ओर बढ़ते हुए नालंदा और विक्रमशिला, सौराष्ट्र में वल्लभी थी तो दक्षिण में कांथालूरसाला। विविधता से रंगे इस राष्ट्र की सुनहरी संस्कृति की डोर से सभी एक सूत्र में बंधे थे। इन शिक्षण संस्थानों में डिग्री धारी नहीं अपितु ज्ञानवान, विवेकी, साहसी, संतोषी, उद्यमी और आत्मनिर्भर युवा तैयार किये जाते थे। विभिन्न विषयों पर गहन शोध किये जाते थे। दूर-दूर से लोग भारत के इन विश्व प्रसिद्ध संस्थानों में ज्ञानार्जन हेतु आते थे। समय का चक्र बदला और धीरे-धीरे बाहरी लुटेरों के आक्रमण और आगमन के साथ यह व्यवस्था बदलती गयी। ब्रिटिश राज में मैकाले शिक्षा प्रणाली ने भारतीयों से उनका आत्म गौरव ही छीन लिया। अंग्रेज़ी भारतीय शिक्षा का मुख्य माध्यम बन गयी। इससे अधिक विडम्बना क्या होगी की आज़ादी के सत्तर वर्षों बाद भी हम शैक्षणिक रूप से आज भी ब्रिटिश राज के गुलाम बने हुए थे। कहीं न कहीं यही कारण रहा कि अपने आस-पास के गृह उद्योगों तथा हस्तशिल्प कला को छोड़ हम पाश्चात्य ब्रांडों के पाश में फंसते चले गए। किन्तु आज जब आत्मनिर्भर भारत की बात हो रही है, हाल ही में जारी हुई नयी भारतीय शिक्षा नीति ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली में बड़े परिवर्तन कर फिर एक बार भारत को विश्व गुरु बनाने के प्रयास का बिगुल बजा दिया है। यह नीति बहुआयामी तथा समग्र है, बहुत लचीली है, अंकों की बजाय ज्ञानवर्धन और कौशल विकास पर आधारित है, और समावेशी है। सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि यह नीति भारतीय और मानवीय मूल्यों का गठजोड़ उच्च तकनीक के साथ कर ऐसी प्रणाली हमारे सामने रख रही है जिसके माध्यम से हम सफल, प्रसन्न और भविष्यपरक किन्तु अपने गौरवशाली अतीत से जुड़े हुए युवा तैयार कर पाएंगे। आत्मनिर्भर भारत की दिशा में यह निश्चित ही एक बड़ा कदम होगा।

हम आत्मनिर्भर बन सकें, इसके लिए सर्वप्रथम आवश्यक है कौशल परक और समग्र शिक्षा। इस नयी शिक्षा नीति में भारतीय शिक्षा का कोई कोना छूटा हुआ नहीं दिखाई पड़ता है। इसमें भारतीय भाषाओं, कला और संस्कृति के संवर्धन पर ज़ोर दिया गया है तो बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए आवश्यक गतिविशियों पर भी। इसमें विद्यालयीन शिक्षा में ही कौशल विकास जोड़ देने की बात की गयी है तो इसमें प्रौढ़ शिक्षा को प्रोत्साहन का भी उल्लेख है। महिलाओं के अलावा ट्रांसजेंडर्स का भी उल्लेख करते हुए यह नीति हर भारतीय को, समाज के हर तबके, हर वर्ग को शिक्षा से जोड़ने का प्रयास करती दिखती है। इसमें ऑन-लाइन शिक्षा को बढ़ावा देने के प्रावधान भी हैं पर साथ ही भारतीय परम्परा तथा मूल्यों की भी बात की गयी है।

इस नीति से जुड़े कई महत्वपूर्ण बिंदु हैं किन्तु पूरी नीति के ड्राफ्ट में जिस बिंदु ने मेरा ध्यान बार- बार अपनी और आकर्षित किया वह है इसका समावेशी स्वरुप। इस नीति का विशेष ध्यान महिलाओं, अल्पसंख्यक  महिलाओं, पिछड़े वर्ग के शिक्षार्थियों, आदिवासी समुदायों तथा दिव्यांगों पर रहेगा। यह शिक्षा नीति कहीं न कहीं इस तथ्य को भली भाँति समझती है कि भारत में समग्र रूप से समतामूलक और समावेशी शिक्षा की व्यवस्था किये जाने की आवश्यकता है। नीति में इस बात का साफ़ उल्लेख है कि किस प्रकार विभिन्न आर्थिक तथा सामजिक कारणों की वजह से अनुसूचित जाति-

जनजाति तथा पिछड़े वर्ग के बच्चों का, महिलाओं का, अल्पसंख्यकों का तथा दिव्यांगों का प्राथमिक से क्रमशः उच्च  शिक्षा तक पहुँचते -पहुँचते प्रतिशत बहुत कम हो जाता है। कहीं न कहीं इस बात का सुनिश्चय करना आवश्यक है कि समाज के हर तबके तक, हर व्यक्ति तक इस नयी नीति  का लाभ पहुंचे। इसी दृष्टि से पूरे खंड ६ में दिव्यांगों के लिए, स्त्रियों के लिए, आदिवासी समुदाय के बच्चों के लिए, अल्पसंख्यकों के लिए, पिछड़े समाज से आने वाले बच्चों के लिए, ट्रांसजेंडर विद्यार्थियों के लिए, साथ ही आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवारों के बच्चों के लिए कई प्रकार की  सुविधाओं, छात्रवृत्तियों के प्रावधानों और व्यवस्थाओं का उल्लेख निश्चित ही इस नीति को समावेशी बनाता है। नीति में ड्राप आउट्स या पढ़ाई बीच में छोड़ चुके बच्चों और वयस्कों को शिक्षा की मुख्यधारा से दुबारा जोड़ने की बात की गयी है। यह महिलाओं के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि वैयक्तिक, पारिवारिक या सामजिक कारणों से महिलाओं के ड्राप आउट करने की संख्या भी बहुत ज़्यादा है और संभावना भी। इसे रोकने के लिए बालिका छात्रावासों पर विशेष ध्यान दिए जाने की बात खंड तीन में है। साथ ही बिंदु 6.8 में छात्राओं और ट्रांसजेंडर्स को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा प्रदान करने के लिए "जेंडर समावेशी निधि" के गठन की बात की गयी है। इसकी मदद से छात्राओं और ट्रांसजेंडर्स के लिए मूलभूत सुविधाओं और संसाधनों जैसे साइकिलों का वितरण, नगद हस्तांतरण, शौचालयों के निर्माण आदि जैसे कार्य किये जाएंगे। निश्चित ही यह सब महिलाओं, ट्रांसजेंडर, दिव्यांगों तथा पिछड़े वर्गों से आने वाले विद्यार्थियों को आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करेगा।

नयी शिक्षा नीति में पहली बार ट्रांसजेंडर्स का उल्लेख कर उन्हें शिक्षा की धारा से जोड़ने हेतु विशेष उपक्रमों का उल्लेख निश्चित ही सराहनीय है। यह एक ऐसे समाज की ओर बढ़ने का संकेत है जो जेंडर से जुड़े पूर्वाग्रहों से मुक्त हो सभी के समग्र विकास का लक्ष्य रखता हो।  नयी शिक्षा नीति दिव्यांगों के लिए भी विशेष प्रावधानों की बात करती है जिसमें दिव्यांगों के लिए विशिष्ट संसाधन केंद्रों की स्थापना, विशेष शिक्षकों का प्रावधान, उनके लिए विशिष्ट संसाधनों की उपलब्धता, सहायक उपकरणों तथा साहित्य का समावेश और सबसे महत्वपूर्ण बात, उन्हें शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ते हुए प्रेरित रखने जैसे सराहनीय प्रावधानों का उल्लेख मिलता है। आत्मनिर्भर भारत के निर्माण के लिए ऐसी शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता है जो युवाओं को सर्वांगीण तथा रोज़गार मूलक शिक्षा देकर आगे बढ़ाये। नयी शिक्षा नीति न सिर्फ इस उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ती दिखाई पड़ती है, यह समाज में समता तथा समरसता को स्थापित करने का लक्ष्य ले सभी वर्गों को आगे बढ़ाने के विभिन्न प्रावधान हमारे सामने रखती है।

हालांकि इस नीति को लागू करने में चुनौतियां आ सकती हैं किन्तु इसके लिए एक समग्र ईको-सिस्टम बनाया जा सकता है, जिसमें शिक्षकों तथा विद्यार्थियों से लेकर शिक्षण संस्थानों के साथ भारतीय शिक्षा मंत्रालय अलग-अलग स्तर की शिक्षा व्यवस्था के लिए स्वॉट मूल्यांकन के आधार पर रोड-मैप तैयार कर सकता है। यह शिक्षा नीति निश्चित ही लागू किये जाने पर बड़े सामजिक सुधारों और बदलावों की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकती है। आवश्यकता सभी स्तरों पर, सभी संस्थानों द्वारा इसे  सफलतापूर्वक लागू किये जाने की है।

लेखिका: डॉ अंशु जोशी

लेखिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध संस्थान में सहायक प्राध्यापक है। विविध  विषयों पर उनके पचास से अधिक लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, वेबसाइटों तथा जर्नल्स में प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी पुस्तक "जेएनयू में एक लड़की रहती थी" गुजरात साहित्य अकादेमी द्वारा हाल ही में गुजराती में अनुवादित कर प्रकाशित हुयी है।

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