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देव की दुनिया

देव की दुनिया

by दिलीप ठाकुर
in जनवरी -२०१२, व्यक्तित्व
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देव आनंद एक इतिहास का नाम है….
वह भले ही ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया’ के सिध्दांत पर जिंदगी भर चलता रहा, लेकिन देव आनंद ऐसा शख्स है जिसे पीछे मुड़ कर देखना ही होगा, उसके फलैशबैक के आसपास की सामाजिक‡ सांस्कृतिक‡ आर्थिक‡ लैंगिक दुनिया को खंगालना होगा।

कुल कलाकारों की यात्रा केवल परदे तक सीमित नहीं होती। उनके साथ जुड़े दर्शक, उन दर्शकों से मिल कर बनने वाला समाज, उस समाज की एक पीढ़ी, फिर उस पीढ़ी द्वारा अपने प्रिय कलाकार की महती अगली पीढ़ी को बताना और पिछली पीढ़ी की अन्य बातें भी जाने अनजाने खुलती चलती हैं।
देव आनंद की पहली फिल्म ‘हम एक हैं’ 1946 में आई। तब देश विभाजन की दहलीज पर खड़ा था। उस देश में सर्वत्र स्वतंत्रता प्राप्ति की चाहत थी। फिल्मों के बारे में कहना हो तो वह श्वेत‡श्याम का जमाना था। तब के शहर भी छोटे थे। मुंबई की सीमा माहिम‡सायन तक सीमित थी। अंग्रंजों के लिए आलीशन थिएटर थे, देसी लोगों के लिए सादे थिएटर थे। उस जमाने में यानी उस समय की मुंबई में केवल दो‡तीन थिएटरों में ही नई फिल्म आती थी। दिन में केवल एक या दो खेल होते थे। मुंबई में प्रदर्शित फिल्म कुछ सप्ताह बाद दिल्ली, फिर बंगाल, बिहार, राजस्थान इस तरह एक‡एक इलाके में प्रदर्शित होने के बाद देहातों में टूरिंग टॉकीज के जरिए पहुंचती थी। किसी फिल्म की देश के कोने‡कोने में पहुंचने की अवधि डेढ़ से दो वर्ष होती थी। उस समय के अखबार स्वाधीनता के स्वागत में लगे थे। फिर फिल्मों को कितना स्थान मिलेगा?

इस तरह के माहौल में ‘स्टार’ के रूप में अपने को स्थापित करना कुछ कठिन ही था। उसमें दिलीप कुमार, देव आनंद, राज कपूर, नर्गिस, मधुबाला, मीना कुमारी जैसे सितारों के लिए संभव हुआ यह सराहनीय है।

2011 तक इस परिस्थिति में आमूलाग्र बदलाव आ गए।
देव आनंद का ही ‘शो’ देख लीजिए।
जुहू के पांच सितारा होटल में थोड़े‡बहुत अंतर से उसकी ‘चार्जशीट’ व नए रंगीन अवतार में आई ‘हम दोनों’ फिल्म के प्रेस सम्मेलन चर्चित हुए। दोनों में मुख्य आकर्षण अर्थात देव आनंद ही थे। उन्होंने यह कभी नहीं छिपाया कि उन्हें उसी तरह रहना पसंद है। ‘चार्जशीट’ के लिए तो वे अकेले ही स्टेज पर थे। ‘हम दोनों’ के समय मंच पर उनके साथ उस फिल्म का अधिकार खरीदने वाले थे। लेकिन उनका अस्तित्व ही महसूस नहीं होता था। हम पत्रकारों व छायाचित्रकारों की अपेक्षा चैनलों की युवा प्रतिनिधियों का ‘देव भेंट’ का उत्साह फूला नहीं समा रहा था। देव की नाती के समान इन युवतियों के उत्साह का आखिर क्या कारण था?देव आनंद याने उनके लिए तुरुप का युवा पत्ता रहा होगा। देव भी मीडिया के विस्तार, स्वरूप व ताकत को जानकर हरेक से न थकते हुए खुशी‡खुशी संवाद स्थापित कर रहा था। पिछले कुछ वर्षों में देव आनंद का रूपांतर ‘मीडिया स्टार’ के रूप में हुआ है व कायम रहा हैा लेकिन देव आनंद और मीडिया को भी इस ‘युति’ के बारे में कोई गैर नहीं लगता। ‘चार्जशीट’ के वाकई भव्य प्रेस सम्मेलन में उसने समय के साथ होने की मिसाल दी और कहा कि सामान्य अखबारों का जमाना कब का बदल चुका है और उपग्रह चैनलों और वेबसाइटों का जमाना आ गया है। उसने यह भी कहा कि आगामी दो फिल्मों में वे काम कर रहे हैं। उसकी इस शैली पर ही मीडिया फिदा है। यह देव आनंद भी जानते थे और इसी कारण उन्होंने ऐसी घोषणा करने में कोई गलती नहीं की।

कुछ दिनों बाद ‘चार्जशीट’ देश भर में एक ही दिन प्रदर्शित हुआ। मुंबई में भी कुछ मल्टीफलेक्स में फिल्म लगी। दिन भर शो चलते रहेा यह अलग बात है कि फिल्म देखने वालों की तादाद कोई बहुत नहीं थी। ‘हम दोनों’ का भव्य प्रीमियर हुआ। कुछ नामी हस्तियां भी इसमें आईं।

इन दोनों फिल्मों को फेसबुक, आर्कुट, ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग पर कवरेज मिला। ‘हम दोनो’ क्लासिक फिल्म होने से डीवीडी, कंप्यूटर डाउनलोड, मोबाइल, स्क्रीन, हवाई जहाजों के कम्पैक्ट स्क्रीन तक पहुंच गई।

कहां 1946 का संथ गति से चलने वाला काल और कहां 2011 का बहुत तेजी से फिल्मों के प्रमोशन, मार्केटिंग, प्रदर्शन वाला काल! ये दो सिरे हैं, लेकिन उसमें एक व्यक्ति निरंतर थी अर्थात देव आनंद। लेकिन उन्होंने भी इस बदलते समय के साथ अपने को बदलते रखा। देव आनंद सदाबहार, देव आनंद यूथ आइकॉन, देव आनंद चाकलेटी हीरो, देव आनंद यौवन का प्रतीक जैसी गुलाबी परिभाषाओं के अतिरिक्त भी देव आनंद हैं।

स्वाधीनता के पहले दशक में स्वाधीनता का आनंद व नए सपनों का माहौल था। इस मानसिकता को पूरक फिल्मों का जमाना था। दर्शकों को खूब और सहज मनोरंजन चाहिए था, सस्ता और समझने वाला भी। फिल्मों ने ऐसा मनोरंजन दिया जो दूसरे दशक में भी जारी रहा। अब शहरों की सीमाएं बढ़ गई हैं। मुंबई पहले अंधेरी तब बढ़ी और बाद में बोरिवली तक। अब एक फिल्म एक ही समय पूरे शहर में 15‡17 जगह प्रदर्शित होने लगी। लेकिन देहातों में पहुंचने में उसे सालभर लगता था।

इसी बीच साठ के दशक के उत्तरार्ध में ‘मैटिनी संस्कृति’ आई, पनपी और उसमें देव आनंद फिट बैठ गया।
‘फस्ट रन’ की फिल्म कुछ सालों के बाद सुबह के शो में आना यानी मैटिनी शो। देव आनंद की बाजी, नो दो ग्यारह, हम दोनों, पेईंग गेस्ट, टैक्सी ड्राइवर, सीआईडी, मुनीमजी, काला बाजार, जब प्यार किसी से होता है, गाइड, ज्वेल थिफ छोड़ दें तो 1970 तक अन्य फिल्मों को फर्स्ट रन में बहुत सफलता नहीं मिली। लेकिन कुछ फिल्मों के संगीत ने उन्हें जिंदा रखा। इसी कारण देव आनंद की ऐसी कुछ फिल्मों के मैटिनी शो को अच्छा प्रतिसाद मिला। फंटूश, लव मैरेज, बम्बई का बाबू, असली नकली, तेरे घर के सामने, तीन देवियां, प्यार मोहब्बत, दुनिया, महल जैसी फिल्में उल्लेखनीय थी। मैटिनी शो की संस्कृति कायम करने का बहुत सा श्रेय देव आनंद का हैा इस मामले में उसकी स्पर्धा शम्मी कपूर से थी।

1970 हिंदी फिल्मों के इतिहास का महत्वपूर्ण वर्ष है।
‘आराधना’ (1969) से राजेश खन्ना के प्रति बेहताशा क्रेज से ऐसा लगता था कि दिलीप, देव, राज जैसे वृक्ष धराशायी हो जाएंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि उनकी जड़े गहराई तक जा पहुंची थी। दर्शकों का इन तीनों पर इतना स्नेह था कि वे अपने चहेते हीरो के पक्ष लड़ पड़ते, उनकी हेयर स्टाइल अपनाते, फैशन फोटो बनाते। लेकिन राजेश खन्ना के प्रति उनका स्नेह अलग किस्म का था। उसमें उन्माद था, हिस्टेरिया था। इस माहौल में 1970 में दिलीप कुमार की फिल्म ‘गोपी’, राज कपूर की ‘मेरा नाम जोकर’ और देव आनंद की ‘जॉनी मेरा नाम’ आई। तीनों में तगड़ा संघर्ष शुरू हुआ और जीते देव आनंद। ‘जोकर’ फलाप हुई, ‘गोपी’ की रजत जयंती हुई, लेकिन ‘जॉनी मेरा नाम’ को कई कारणों से लोकप्रियता मिली। इस फिल्म की पटकथा के.ए. नारायण की है, जो हिंदी फिल्मों के इतिहास में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है।

‘जॉनी’ जब चारों ओर धूम मचा रही थी तब मावी कौर की ‘भुवन शोम’ पूरी मुंबई में केवल ड्रीमलैण्ड में ही मैैटिनी में लगी थी और उसने रजत महोत्सव मनायाा इस सफलता से नवफिल्मों की संस्कृति को पनपाने में सहायता मिली यह इस फिल्म के प्रशंसक मानने लगे। फलस्वरूप सत्तर के दशक में ‘जॉनी’ जैसी फिल्मों की अपेक्षा ‘भुवन शोम’ जैसी नई यथार्थवादी फिल्में होनी चाहिए यह स्वर उभरने लगा।

विजय आनंद के निर्देशन में देव आनंद ने ‘जॉनी‘ के बाद कभी भी अभिनय या स्टाइल (चाहे तो इसे ‘मर्यादा’ छोड़ कर हीरोगीरी कहें) नहीं पकड़ी। यहां तक कि विजय आनंद की ‘छुपा रुस्तम’ व ‘ञाना ना दिल से दूर’ में भी देव आनंद फीका साबित हुआ। इसमें से ‘जाना ना..’ दस साल पुरानी फिल्म थी। देव आनंद के हस्ताक्षर के साथ शो का निमंत्रण आने से गया था लेकिन निराश हो गया। हां, फिल्मी समीक्षकों के चेहरे नापने के लिए देव आनंद खुद मौजूद थे। वे ‘प्रेम पुजारी’ से निर्माता‡ निर्देशक बनने के बाद से इस तरह प्रेस शो में उपस्थित रहता था।

‘जॉनी’ के जमाने में ही मीडिया का स्वरूप बदला। फिल्मी पत्रकारिता वैसे गंभीर कभी नहीं थी। इसी कारण हिंदी फिल्मों, मीडिया व पाठकों का काफी नुकसान हुआ है। ‘जॉनी’ के काल में ही गॉसिप्स, बेडरूम स्टोरिज, बेहूदी भेंटवार्ताओं को उबाल आ गया। उसका बहुत श्रेय राजेश खन्ना व देवयानी चौबल को जाता है।
‘जॉनी’ के बाद का देव आनंद एकदम नया अध्याय है। कई लोगों को ‘जॉनी’ तक का देव आनंद पसंद आता है, क्योंकि वह असली था, उसका विकास हो रहा था, उसकी स्टाइल सही थी।
‘जॉनी’ से वह अपनी ‘युवा’ छवि में, रोमांटिक अदाओं में मशगूल हो गया। फिर भी उसके बाद ‘हरे राम, हरे कृष्ण’, ‘वारंट’, ‘अमीर गरीब’, ‘देस परदेस’ को ज्युबली मिली। ‘बनारसी बाबू’, ‘छुपा रुस्तम’, ‘जानेमन’, ‘लूटमार’, ‘स्वामी दादा’ को सामान्य सफलता मिली।

सत्तर के दशक के पूर्वार्ध में राजेश खन्ना व बाद में अमिताभ बच्चन के उमड़ते तूफान और तगड़ी स्पर्धा की उसकी तुलना में देव आनंद की यह सफलता कमजोर ही लगती है। देव भक्तों ने भी देव की सफलता का मूल्यांकन करते समय ‘जौनी’ के पूर्व के देव पर ही सदा फोकस बनाए रखा। इस कारण देव की बाद की सफलता को उतनी तवज्जो नहीं मिली। शायद स्तुति से वह सुधरता, लेकिन देव के हिस्से में आने वाली यह स्तुति मीडिया को खुश रखने की उसकी कोशिशों के कारण पिछड़ गई। वह इस भ्रम में रहा कि वह पहले जैसा ही चिरतरुण (व बड़ा) है यह छवि बनाए रखें और इस छवि के आधार पर पहले जैसी ही फिल्में सफल होंगी। तब तक मीडिया भी बदल चुका था। देव आनंद पार्टिया देते हैं, मीडिया से संवाद बनाए रखता है इस कारण मीडिया ने भी उससे संबंध बढाए। इससे देव के दोष तो ढंक गए लेकिन हिंदी फिल्मों व मीडिया का प्रचंड नुकसान हुआ। अमिताभ बच्चन भी बहुत बार यह गलती करते हैं। लेकिन उसकी गुणवत्ता इस गलती को ढंक देती है। देव के पास मूलत: इसी गुणवत्ता का अभाव था (अपवाद केवल ‘गाइड’)। फलत: वह अपनी छवि को चमकीला बनाता रहा। लगभग 20 साल पहले अपने यहां आई खुली अर्थव्यवस्था और वैश्वीकरण को देव जैसी संस्कृति एकदम फिट बैठती थी। लेकिन उसका उसकी फिल्मों को कोई लाभ नहीं मिला। नए विचारों का स्वागत करना, अपमार्केट विस्तार करना, विदेशी संस्कृति में जो अच्छा है उसे स्वीकार करना, समय का अनुशासन, व्यावसायिकता यह देव आनंद की संस्कृति है। ‘कार्पोरेट युग’ में यह सब ‘सही’ है। देव आनंद इस बारे में आगे था, लेकिन उसमें आए इस बदलाव की ओर किसी ने बहुत ध्यान नहीं दिया।

देव आनंद दार्शनिक था यह मेरा कहना आपको आश्चर्यजनक लगेगा। लेकिन ‘सेंसार’, ‘लश्कर’, ‘अमन के फरिश्ते’ के बहाने उससे स्वतंत्र भेंटवार्ताओं का अवसर मिला और उसमें उसके अखंड और प्रचंड बयानों से उसका संकेत मिला। दीर्घानुभवों से उसमें यह बदलाव आया था। लेकिन अपनी तरुण प्रतिमा बनाए रखने की लालसा के कारण उसने अपनी बौध्दिक परिपक्वता को होशियारी से बाजू में रख दिया। निष्कर्ष यह कि उसने अपने में होने वाले इस बदलाव को नकार दिया।

देव आनंद का प्रवास इस तरह बहुत बड़ा है। उसके आसपास का समाज कितना तो बदल गया। ‘चार्जशीट’ के प्रेस सम्मेलन में उसने कहा, मैं मुंबई में आया तब जुहू इलाके में बहुत शांति थी। आरंभिक दिनों में मैं मुंबई की लोकल में घूमा करता था, शांति से यात्रा करता था। तब छह डिब्बों की लोकल थी। उसमें भीड़ होती नहीं थी। रास्ते पर ट्राम भी थी। देव के पास इस तरह कहने के लिए बहुत कुछ था, लेकिन पिछली यादों में जाने के बारे में वह लहरी ही था, जिससे उसका और समाज का भी नुकसान हुआ है।

देव आनंद रसिकों की पांच पीढ़ियां पार करने के बावजूद भी देव आनंद ही रहा। यह उसकी छवि का खेल था। परंतु देव आनंद एक बड़े इतिहास का महत्वपूर्ण गवाह था यह बहुत बड़ा रियलिटी शो है। इस इतिहास को खंगालने का यह छोटा सा प्रयास है। उसने स्वयं को हमेशा इतिहास से बड़ा माना…. क्या कहें?
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