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रामदास आठवले और कुछ जातक कथाएं

रामदास आठवले और कुछ जातक कथाएं

by रमेश पतंगे
in जनवरी -२०१२
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रामदास आठवले और उनकी रिपब्लिकन पार्टी ने महाराष्ट्र की राजनीति में अति महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया है। मई, 2011 तक रामदास आठवले राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस के साथ थे। पिछले वर्ष से ही उनके मन में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस का साथ छोड़ने का विचार चल रहा था। वे बारह वर्ष से अधिक समय तक शरद पवार के साथ थे। दलितों के वोट कांग्रेस को दिलवाकर उन्होंने दो चुनावों में कांग्रेस को सत्ता पर स्थापित किया। अनेक निर्वाचन क्षेत्रों में शिवसेना-भाजपा के प्रत्यासी मात्र कुछ हजार वोटों से हार गये। यह वोटों का थोड़ा सा अन्तर होता है उसे विजयी बनाने वाला अथवा विरोधी को हराने वाला वोट कहा जाता है। हरेक निर्वाचन क्षेत्र में दलितों का वोट कम संख्या में होने पर भी निर्णायक होता है। इसी मत के आधार पर शरद पवार को सत्ता मिली है, इस तथ्य को वे और उनके समर्थक भूल रहे हैं। यही नहीं वे अब रामदास आठवले और उनकी पार्टी को कोई महत्व भी नहीं दे रहे हैं। यह बात रामदास आठवले को बारह वर्ष बाद समझ में आयी है। आज यदि भगवान गौतम बुद्ध होते तो वे यह कथा अवश्य सुनाते-

वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त ने अपने पुत्र से भयभीत होकर उसकी पत्नी सहित उसे अपने राज्य से बाहर निकाल दिया। वह राजपुत्र एक कमरे में रहने लगा। राज्य चले जाने पर भी राजकुमार की पत्नी ने उसका साथ नहीं छोड़ा। वह एकनिष्ठ होकर उनके साथ रहने लगी। कुछ समय के पश्चात राजा ब्रह्मदत्त स्वर्गवासी हो गये। अपना राज्य सम्हालने के लिए जब राजकुमार राज्य में जाने लगा तो एक किसान ने उन्हें एक छोटे से कटोरे में भात देते हुए कहा, ‘‘यह अपनी पत्नी को दे दीजिए।’’ परन्तु राजकुमार ने पूरा भात स्वयं ही खा लिया। अपनी पत्नी को कुछ नहीं दिया। उसकी पत्नी को भी भूख लगी थी। उसकी पत्नी ने कहा, ‘‘ये कितने निष्ठुर हैं।’’

वाराणसी का राज्य राजकुमार को मिल गया। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कहा जाये, तो वे मुख्यमंत्री बन गये। अपनी पत्नी को पटरानी बनाया। किन्तु पटरानी को किसी भी प्रकार का अधिकार नहीं दिया। यहां तक कि उनके भरण-पोषण की भी व्यवस्था नहीं की। पटरानी को कोई अधिकार नहीं है, इस बात को कभी विचार ही नहीं किया। केवल आते-जाते केवल इतना पूछ लेते थे, ‘‘तुम्हारा क्या हाल-चाल है?’’

एक दिन राज्य के महामंत्री बोधिसत्व पटरानी के पास गये और पूछा, ‘‘माता-पिता को वस्त्र का टुकड़ा और भात नहीं देना है क्या?’’
रानी ने कहा, ‘‘बाबा, मुझे ही कुछ नहीं मिलता, तो उन्हें क्या दूं? राजा कुछ देते नहीं हैं। राज्य प्राप्त करने आते समय मिला हुआ भात भी उन्होंने अकेले ही खा लिया था।’’

बोधिसत्व ने पूछा, ‘‘तुम यह बात राजा के सामने कह सकोगी?’’ रानी ने कहा, ‘‘अवश्य कहूंगी।’’
दूसरे दिन बोधिसत्व ने रानी की उपस्थिति में राजा से पूछा, ‘‘महाराज, महारानी एक सामान्य वस्त्र भी नहीं दे सकतीं, ऐसा क्यों है?’’
उसी समय पटरानी ने कहा, ‘‘मुझे पटरानी का पद मिला है, परन्तु कोई सम्मान व अधिकार नहीं है। राज्य प्राप्त करने हेतु आते समय मिला हुआ भात इन्होंने अकेले ही खा लिया, मुझे तनिक भी नहीं मिला।’’

यह सुनकर बोधिसत्व बोले, ‘‘महारानी, आपको यहां रहकर क्या करना है? इस संसार में बुरी संगति से बड़े कष्ट होते हैं। आप के यहो रहने से, आपकी संगति से राजा को भी दु:ख होगा, इससे अन्यत्र चला जाना ही अच्छा है। इस जगत में बहुत से लोग हैं और यह संसार बहुत बड़ा है।’’ यह कहते हुए बोधिसत्व ने आगे कहा-

जो नमन के योग्य हैं, उनका नमन करें
जो भजन के योग्य हैं, उनका भजन करें।
जो अनर्थकारी हैं उनका साथ न दें
विनष्टकारी लोगों के साथ मैत्री न करें॥

रामदास आठवले ने ‘‘विनष्टकारी लोगों के साथ मैत्री न करें’’ का पालन किया है।
रामदास आठवले पिछले 26 नवम्बर को ‘मुंबई तरुण भारत’ के कार्यालय में भेंट करने आये थे। उन्होंने अपने छोटे से भाषण में कहा, ‘‘इस रास्ते से होकर मैं कई बार गुजरा हू। तरुण भारत भाजपा के साथ आता था, तो मैं दूसरी ओर हो जाता था। किन्तु अब हम एक साथ हैं। अपने-अपने मतभेद भुलाकार शिवशक्ति-भाजपा-भीमशक्ति इकट्ठा हुई है। अब हमें सामाजिक क्रान्ति लाना है। इतने दिन तक रामदास आठवले दूर क्यों थे? वे शिवसेना और भाजपा को दूर से ही क्यों देख रहे थे? हिन्दू और हिन्दुत्व के प्रति विद्वेष क्यों मन में पाले रहे? इन सभी प्रश्नों का उत्तर है संगति का प्रभाव। संगति से व्यक्ति बनता और बिगड़ता है। उनके ऊपर राष्ट्रवादी कांग्रेस और सोनिया कांग्रेस का प्रभाव था। भगवान गौतम बुद्ध ने एक जातक कथा के माध्यम से बताया है कि संगति का दुष्परिणाम किस तरह से होता है।

वाराणसी के राजा के पास महिलामुख नाम का एक सुन्दर हाथी था। राजा उसे बहुत प्रेम करते थे। एक दिन मध्यरात्रि के समय हाथी के पास कुछ चोर आये। वहा बैठकर उन्होंने किसके घर में कैसी चोरी करनी है, इसकी योजना बनायी। उन्होंने सलाह की कि चोरी करते हुए दया-माया नहीं दिखाना है। जो भी सामने आये उसे मार डालना है। इस सलाह मशविरे में चोरों ने हिंसक गालियों का खूब प्रयोग किया। चोरों की योजना सफल हो गयी। चोरों को लगा कि हाथीखाना शुभकारी है। इसलिए वे प्रतिदिन वहां आकर चोरी की योजना बनाने लगे। उनकी दुष्टता भरी बातों का हाथी के मन पर बुरा प्रभाव पड़ने लगा। धीरे-धीरे हाथी दुष्ट बन गया। एक दिन उसने अपने महावत की हत्या कर दी। वह किसी की नहीं सुनता था। राजा को इससे बड़ी चिन्ता हुयी। बोधिसत्व राजा के योग्य मंत्री थे। हाथी के दुष्ट स्वभाव होने का कारण खोजने का कार्य उन्हें दिया गया।

पशु वैद्य को ले जाकर बोधिसत्व ने हाथी की जांच कराई। किन्तु हाथी को कोई रोग दिखाई नहीं दिया। मंत्री ने हाथीखाना की चौबीसों घण्टे निगरानी करवाई। इससे चोरों के अड्डे का पता चल गया। मंत्री बोधिसत्व राजा के पास पहुंचे और बोले, ‘‘महाराज महिलामुख हाथी को कोई रोग नहीं हुआ है। अपने आस-पास चोरों की बात-चीत सुनकर उसका मन बिगड़ गया है और वह उन्मत्त हो गया है। यह दुष्टों की संगति का परिणाम है।’’
राजा ने पूछा, ‘‘इसका कोई उपाय है?’’

बोधिसत्व बोले, ‘‘इसका उपाय यही है कि हाथी को साधु-सन्तों की संगति में रखना चाहिए। साधु-सन्त परोपकार, दया, करुणा, शील इत्यादि कल्याणकारी विषयों पर बात-चीत करते हैं। उसका परिणाम अपने हाथी पर होगा।’’ राजा ने इसी प्रकार किया और हाथी पहले जैसा ही सौम्य बन गया।

रिपब्लिकन पार्टी का चिह्न हाथी है। हाथी मंगलकारी प्राणी है। स्वभाव से वह शान्त होता है। वह बुद्धिमान होता है। लबाड़ व्यक्तियों की संगति से कुछ बुरा प्रभाव पड़ा है। शिवसेना और भाजपा के नेताओं के धर्माचरण के प्रभाव से हाथी पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा।

रामदास आठवले के शिवसेना- भाजपा के साथ जाना सुनिश्चित देखकर राष्ट्रवादी कांग्रेस ने दो कार्य करना शुरू किए। पहला कार्य यह कि उन्होंने कुछ प्रश्न खड़े किए और दूसरे भावनात्मक राजनीति शुरू की। उन्होंने पहला प्रश्न उठाया कि हिन्दुत्ववादियों के साथ आंबेडकरवादी कैसे बैठे सकते हैं? जुलाई में मुंबई की सभा में शरद पवार ने दीक्षाभूमि पर डॉ. बाबासाहब द्वारा दिलाई गयी इक्कीस प्रतिज्ञाओं का कुछ अंश पढ़कर सुनाया। दूसरे शब्दों में उन्होंने कहा कि हिन्दुत्व के साथ बैर करना मत छोड़ो।

इस बार दूसरी बात दोनों कांग्रेस ने की, उनका आशय स्पष्ट है- दलितों की भावना को भड़काना। इसके लिए दोनों कांग्रेसों ने दो विषय उठाये। दादर स्टेशन का नाम बदलकर चैत्यभूमि करना और प्रभादेवी की हिन्दू मिल की जमीन चैत्य भूमि को देना। स्टेशन का नाम बदलने और मिल की जमीन देने में दोनों कांग्रेस का अपना कुछ नहीं जाएगा। उनकी सत्ता भी नहीं जाएगी। सत्ता की भागीदारी का प्रश्न भी समाप्त हो जाएगा। और इस प्रश्न पर वर्तमान और आगे आने वाली पीढ़ी आठ-दस वर्षों तक आन्दोलन करती रहेगी। ऐसे मक्कार लोगों से कैसे सतर्क व सावधान रहा जाए, यह बोधिसत्व की एक कथा के माध्यम से समझाया जा सकता है-

पूर्व जन्म में बोधिसत्व हिरण थे। वन में विचरण करते हुए वे बहुत सावधान रहते थे। वे सीवन वृक्ष के फल खाया करते थे। शिकारी हिरण का शिकार किया करते थे। वे शिकारियों से सावधान रहते थे। शिकारी कहां पर छिपे हैं, यह जानने के उद्देश्य से वे एक वृक्ष के नीचे फल खाने पहुंचे। दूर छिपे हुए शिकारी को वे खोजने लगे। शिकारी को जाने की जल्दी थी। हिरण को अपने नजदीक शीघ्रता से बुलाने के लिए शिकारी ने दो-चार फल जल्दी-जल्दी उसकी ओर फेंके। यह देखकर हिरण रूप में बोधिसत्व ने कहा, ‘‘सीवन, आज तुम मेरी हां‡हुजूरी क्यों कर रही हो। रोज की तरह फल स्वयं नहीं गिर रहे हैं, तुम उन्हें मेरी ओर फेंक रही हो। हां-हुजूरी घातक होती है। यह जानकर मैं तुम्हारा त्याग करके दूसरे वृक्ष के पास जा रहा हूं।’’ दोनों कांग्रेस की हां-हुजूरी का विष दलितों को कमजोर-लाचार किये हुए है। यह बात अब रामदास आठवले की समझ में आ गयी है।

रामदास आठवले को शिवसेना-भाजपा के साथ जाने की खबर से अनेक दलित नेता नाराज हैं। वे कहने लगे, ‘‘आठवले अकेले ही दलितों के नेता नहीं हैं। पूरा दलित समाज उनके पीछे नहीं है। हम भी दलितों के नेता हैं।’’ समाचार माध्यमों में यह पढ़कर एक और जातक कथा का स्मरण हो आया है। भगवान गौतम बुद्ध की यह कथा बताती है कि प्रशिक्षण देने वाला शिक्षक अच्छा क्यों चाहिए?

वाराणसी के राजा को घोड़े बहुत पसन्द थे। अश्वदल के लिए उन्होंने कई नये घोड़े खरीदे थे। उन्हें प्रशिक्षित करने के लिए प्रशिक्षक की नियुक्ति कर दी। कुछ दिनों के पश्चात राजा घोड़ों का निरीक्षण करने घुड़शाला में गये। वहां उन्होंने देखा कि नये घोड़े लंगड़ाकर चल रहे हैं। उन्हें चिन्ता हुई कि घोड़े लंगड़े कैसे हो गये? उन्होंने पशु चिकित्सक को बुलवाकर घोड़ों के स्वास्थ्य की जांच करवाई। घोड़ो को कोई बीमारी नहीं हुई थी। उनके पैर भी मजबूत थे। फिर घोड़े लंगडाकर क्यों चल रहे थे? इसकी खोज की जिम्मेदारी महामंत्री बोधिसत्व को सौंपी गयी।

बोधिसत्व ने सभी प्रकार के निरीक्षण किए। उन्हें ज्ञात हुआ कि घोड़ों को प्रशिक्षण देने वाला प्रशिक्षक एक पैर से लंगड़ा था। वह लंगड़ाकर चलता था। जब वह घोड़ों के साथ चलता तो घोड़ों को लगता कि उन्हें भी लंगडाकर चलना है, इसलिए घोड़े लंगड़ाकर चलने लगे। बोधिसत्व ने राजा से कहा, ‘‘महाराज हमें प्रशिक्षक बदलना चाहिए। अच्छा प्रशिक्षक होगा, तो घोड़े अच्छी तरह से चलने लगेंगे।’’लोकतन्त्र में जनता राजा होता है। जनता रूपी राजा को अपना प्रशिक्षक बदलने का निर्णय करना चाहिए। महाराष्ट्र में दलितों के अनेक नेता हैं। उनमें कौन लंगड़ा है और कौन अच्छा है, इसका निर्णय जनता को करना चाहिए।

शिवसेना-भाजपा और रिपब्लिकन पार्टी का महा गठबन्धन हुआ है। दूसरे शब्दों में तीन बडे समुदाय एकत्र हुए हैं। किन्तु केवल संख्या बढ़ने से यश नहीं मिलता है। समाज को अत्यन्त श्रेष्ठ नेता की जरूरत होती है। वही अपने समाज को विजयी बनाता है। वे यह कार्य कैसे कों, इस के लिए भी भगवान बुद्ध ने अत्यन्त सुन्दर जातक कथा कही है-

वर्धकिसुकर नामक एक सुअर था। उसे एक बढ़ई जंगल से ले आया था। अपने बच्चे की तरह उसका पालन-पोषण किया। वर्धकिसुकर बड़ा होने लगा। वह पहलवान जैसा हो गया था। बढ़ई को यह चिन्ता सताने लगी कि मांस भक्षण करने वाले एक न एक दिन उसे मार डालेंगे। यह सोचकर वह सुअर को जंगल में ले जाकर छोड़ आया। संयोग से वह सुअर अपने परिवार से मिल गया।

अन्य सुअरों ने उसका स्वागत किया और पूछा, ‘‘तुम जहां पर थे, वहां सुखी थे। यहां रोज-रोज मृत्यु का भय रहता है। रोज एक बाघ आता है और एक सुअर पकड़कर ले जाता है।’’ वर्धकिसुकर ने उनसे कहा, ‘‘अपनी संख्या बहुत बड़ी है। संगठन की शक्ति से हम बाघ को मार सकते हैं। मनुष्य अपनी रक्षा कैसे करते हैं, मैने देखा है। आइए हम लोग वैसे ही करें।’’

ऐसा कहकर उसने सभी सुअरों के साथ मिलकर एक बड़ा गड़्ढा खोदा। अपने तेज दातों से सुअरों ने मिट्टी खोद फेंकी। सुबह बाघ शिकार के लिए आया। उसने आदेश सुनाया। किन्तु सुअरों ने बिना घबराये हुए एक साथ हुंकार भरी। यह देखकर बाघ डर गया। उस बाघ को एक तपस्वी ने पाला था। वह बाघ अपने पालक गुरु के पास गया और बोला, ‘‘आज सुअरों ने भारी तैयारी की है और वे इकट्ठा होकर लड़ने के लिए तैयार हैं।’’ यह सुनकर तपस्वी ने कहा, ‘‘तुम बाघ हो, बाघ सुअर से कभी डरते नहीं। जाओ और सुअर को मारकर ले आओ।’’

बाघ सुअरों के पास फिर गया। ऊची आवाज में गर्जना की और सुअर के समूह पर कूद पड़ा। उसे सामने गहरे गड़्ढे का ध्यान ही नहीं रहा। वह कूदकर सुअर पर गिराने के बजाय स्वयं गड़्ढे में गिर गया। वह जख्मी हो गया। वर्धकिसुकर आठ-दस तगड़े सुअरों के साथ गड़ढे में कूद पड़ा और अपने मजबूत नुकीले दातों से बाघ का पेट फाड़ डाला। बाघ मर गया। सुअरों को बहुत आनन्द हुआ। उन्हें इसका एहसास हुआ कि वे भी बाघ का वध कर सकते हैं। इसके पश्चात सुअरों ने तपस्वी की झोपड़ी पर हमला किया। तपस्वी प्राण की रक्षा के लिए पेड़ पर चढ़ गये। सुअरों को पेड़ पर चढ़ना नहीं आता। वर्धकिसुकर ने सुअरों से अपने थुथनों में पानी भरकर लाने और उसे पेड़ की जड में डालने को कहा। इससे जड़ के पास की मिट्टी गीली और मुलायम हो गयी। तब सबने मिलकर जड़ के पास की मिट्टी खोद कर धक्के मार-मार कर पेड़ को गिरा दिया। पेड़ गिरने से तपस्वी जान बचाकर भागे, किन्तु सुअरों ने उस पर आक्रमण कर दिया और मार डाला।

इस कथा में बाघ और तपस्वी राष्ट्रवादी कांग्रेस और कांग्रेस को मान सकते हैं। यद्यपि लोकतन्त्र में हिंसा का कोई स्थान नहीं है। यह कथा बहुत प्रचलित न होने के कारण पाठकों के ध्यान में नहीं आती। यहा कथा की मूल भावना समझने की जरूरत है, उसका शाब्दिक अर्थ नहीं लेना है। दोनों कांग्रेस को पराभूत करना है, तो इस महागठबन्धन को विजय दिलाने के लिए नेतृत्व प्रदान करना होगा। यह कार्य आज नेतृत्व करने वाले नेताओं को करना होगा। उन्होंने आपस में समन्वय, सामंजस्य और सहयोग किया, आपस में एक-दूसरे से प्रेम किया और अपने-अपने अनुयायियों में विजय के प्रति विश्वास पैदा किया तो आने वाले समय में यह कथा निश्चित ही चरितार्थ होगी।
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